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Friday, January 30, 2009

काठमांडू में माओवादी गजनी

8 Jan 2009


हालांकि नेपाल के प्रधानमंत्री प्रचंड ने पशुपतिनाथ मंदिर में स्थिति पूर्ववत बहाल करने का आदेश दिया है लेकिन यह कम्युनिस्टों की उस सामरिक रणनीति का ही हिस्सा है जिसके अंतर्गत वे ‘ दो कदम आगे एक कदम पीछे ’ चलते हैं। यह माओत्से तुंग की लम्बी छलांग में दी गयी नीति का ही द्योतक है। पशुपतिनाथ मंदिर दिल्ली के जनपथ या काठमांडू के दरबार मार्ग के फुटपाथ पर बना कोई छोटा मोटा एवं स्थानीय नगर पालिका कर्मचारियों की दया पर निर्भर पूजाघर नहीं है जहां आते-जाते लोग मंगल या शनि का प्रसाद चढ़ाते हैं।

आदि शंकराचार्य द्वारा एक हजार वर्ष से भी पूर्व स्थापित यह मंदिर नेपाल राष्ट्र की मुख्य पहचान का वैसा ही प्रतीक है जैसा भारत की संसद या गंगा और हिमालय। न तो भारत के सेकुलर जो आदतन हिन्दू प्रतीकों से घृणा करते हैं और न ही नेपाल के नास्तिक माओवादी इस गहन श्रद्धा का सम्मान करना चाहते हैं। इसलिए नेपाल के माओवादिओं ने पहले नेपाल की राष्ट्रीयता की प्रतीक उन मूल संस्थाओं को तोड़ना प्रारंभ किया जो नास्तिक माओवादिओं के विरोध में आस्थावान धार्मिक राष्ट्रवादी नेपालियों को संगठित कर सकती थीं। इनमें नेपाल की राष्ट्रीय सेना, राष्ट्रीय प्रहरी (पुलिस), न्यायपालिका और प्रशासन प्रथम निशाने पर रहे जहां उन्होंने काफी अधिक माओवादियों की घुसपैठ कर दी है। उसके बाद नेपाली आस्थावानों की श्रद्धा तोड़ने के लिए पशुपतिनाथ मंदिर की मर्यादा भंग करने का प्रयास नेपाली-भारतीय नागरिकता का मुद्दा उछाल कर किया गया।


वास्तव में लोग यह जानते ही नहीं कि पशुपतिनाथ मंदिर की पुजारी व्यवस्था में भारत-नेपाल नागरिकता का कोई प्रश्न ही नहीं आता। आदि शंकराचार्य ने उस समय पशुपतिनाथ मंदिर में पाशुपत तंत्र विद्या में निष्णात संस्कृत के विद्वानों की पुजारी परम्परा प्रारम्भ करवाई थी जब नेपाल बौद्ध मत के अतिशय प्रभाव में वैदिक पंडितों से रहित हो गया था। नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर का निर्माण राजा भोज ने करवाया था और पहले कर्नाटक और बाद में पेशवाओं के प्रभाव के कारण महाराष्ट्र से भी वैदिक पंडित पशुपतिनाथ मंदिर की सेवाओं के लिए बुलाये गये। नेपाल के राजाओं और राणाओं का मूल स्थान राजस्थान रहा है। उस समय भारत व नेपाल के बीच इस प्रकार की सरहदों के आधार पर बंटवारा मान्य ही नहीं था। आज भी नेपाल व भारत के समाजों के बीच रोटी-बेटी के प्रगाढ़ संबंध है। इन संबंधो को तोड़ने के लिए श्रद्धा खंडित करना जरूरी है इसलिए माओवादिओं ने पशुपतिनाथ मंदिर की मर्यादा का हनन कर भारत से पूर्णतः सांस्कृतिक संबंधरहित नेपाल बनाने की दिशा में कदम उठाया जिसके पीछे चीन की दीर्घकालिक रणनीति के खेल का हाथ भी हो सकता है।

नेपाल में माओवादी शासन हिन्दू संवेदनाओ पर आघात का पर्याय बनता जा रहा है। गत सप्ताह विश्व प्रसिद्ध पशुपतिनाथ मंदिर पर माओवादियों के संगठन यंग कम्युनिस्ट लीग (वाईसीएल) जिसे कुछ समय पूर्व गिरिजा प्रसाद कोईराला ने यंग क्रिमिनल लीग कहा था) के कार्यकर्ताओं ने हमला किया, मुख्य पुजारी जिन्हें मूल भट्ट कहा जाता है, से जबरन इस्तीफा लिया और एक स्थानीय नेपाली ब्राह्मण विष्णु प्रसाद दहल को मुख्य पुजारी नियुक्त करने की घोषणा कर दी। यह सब प्रधानमंत्री प्रचंड उर्फ पुष्प कमल दहल की स्वीकृति से हुआ जो प्रधानमंत्री होने के नाते पशुपतिनाथ मंदिर की प्रबन्ध महासमिति के संरक्षक हो गए हैं। पहले यह दायित्व राजा ज्ञानेन्द्र के पास था।

इन पंक्तियों के लिखे जाने तक, तीन दिन से मंदिर में पूजा बंद है। मंदिर के चार द्वारों में से केवल पूर्व द्वार ही खुला है और दुनिया भर से आने वाले भक्त अत्यन्त क्षुब्ध और स्तब्ध होकर मंदिर के बाहर से ही या प्रांगण में जाकर भक्ति पूजा से ही संतोष कर रहे हैं। माओवादी कम्युनिस्ट विचार धारा को मानते हैं। अत: उनकी ईश्वर या धर्म में कोई आस्था नहीं होती। वे घोषित तौर पर नास्तिक होते हैं। नेपाल में गत बारह वर्ष से लगातार हिंसक आन्दोलन के माध्यम से सत्ता में आये माओवादियों पर दस हजार नेपालियों की हत्या का आरोप सरकार के अधिकृत सूत्रों द्वारा लगाया गया है। माओवादियों की गुरिल्ला फौज चीन की तर्ज पर बनी है, जिसका नाम है पीपल्स लिब्रेशन आर्मी। उसके सभी आघातों का निशाना केवल हिन्दू और उनके प्रतीक रहे हैं। उन्होंने अपने प्रभाव क्षेत्रों में संस्कृत पाठशालाएं बन्द करवाई, संस्कारो की शिक्षा कटवाई, अपने गुरिल्लाओं में गौ मांस संरक्षण का चलन किया और लोकतात्रिक पद्धति का सहारा लेकर जब सत्ता में आए तो पहला काम नेपाल के हिन्दू रासू वाली संवैधानिक स्थिति से समाप्त करने का किया।

माओवादियों के तथा कथित सेकुलर व सुधारवादी निशाने पर केवल हिन्दू ही क्यों हैं और वे नेपाल में लगातार बढ़ रहे ईसाई चर्च एवं उनके प्रचारक पादरियों के बारे में क्यों चुप्पी साधे हुए हैं, इसका उत्तर माओवादी नहीं देते। हां, नेपाल स्थित विश्व हिन्दू महासंघ के अधिकारियों का करना है कि उन्हें शक हैं कि प्रचंड ईसाई हो चुके हैं।

बहरहाल, नेपाल राष्ट्र की मुख्य पहचान पशुपति नाथ मन्दिर में गत तीन सौ साल से दक्षिण भारतीय पुजारी ही समस्त पूजन कार्य करवाते आ रहे थे। वे क्रमश : आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक एवं तमिलनाडु से नेपाल के शासक द्वारा आमंत्रित किए जाते रहे। कांची पीठ के शंकराचार्य पूज्य जयेन्द्र सरस्वती जी भी नेपाल कई बार गए एवं शुद्ध वैदिक रीति से पूजा पाठ की सुचारू व्यवस्था में उन्होंने राजा के माध्यम से सहयोग दिया। नेपाली सूत्रों के अनुसार भारत से पुजारी लाने के पीछे एक व्यवहारिक कारण यह भी रहा कि नेपाल के ब्राह्मणों में भारत के अनेक प्रातों के ब्राह्मणों की भांति मांसाहार का परम्परागत चलन रहा, अत: युद्ध शाकाहारी भट्ट, नम्बूदरी ब्राह्मणों को भारत से लाए जाने एवं भारत में सुरक्षित शास्त्रगत वैदिक प्रणाली से पूजा किए जाने को प्रोत्साहन दिया गया।

नेपाल के नास्तिक कम्युनिस्टों ने सत्ता संभालते ही नेपाल की मुख्य पहचान से अपनी लाल क्रांति करने की कुचेष्टा में धर्म पर भीषण आघात करने की भूल कर दी है। धार्मिक कार्य राष्ट्रीय नागरिकता पहचान पत्रों से नहीं बल्कि शास्त्रगत विधिविधान का पालन करने वाले योग्य पुजारियों एवं धर्म-मार्ग दर्शकों द्वारा ही सम्पन्न किए जा सकते हैं। परन्तु नेपाल के माओवादी सत्तामद में इतने अच्छे हो गए कि तीन सौ साल पुरानी परम्परा को खण्डित करने में उन्होंने कोई संकोच नहीं किया और मंदिर पर सैंकड़ों कम्युनिस्ट गुंडों ने दरवाजे तोड़कर हमला कर दिया। अब वहां ऐसा कोई पुजारी नहीं हैं जो विधिविधान से हिन्दुओं की भावना के अनुरूप प्रतिदिन चलने वाले अभिषेक एवं विभिन्न कालखण्डों की अत्यंत विशिष्ट पूजा करवा सके।

उल्लेखनीय है कि पशुपतिनाथ मंदिर हिन्दुओं के लिए परमविशिष्ट एवं अत्युच्च देव मंदिर है जिसे द्वाश ज्योतिर्लिन्गों में अत्यन्त प्रमुख स्थान प्राप्त है। दुनिया भर के हिन्दुओं की तीर्थ यात्रा का चक्र पशुपतिनाथ दर्शन किये बिना पूरा नहीं होता। यहां से होने वाली आय पशुपतिनाथ विकास बोर्ड के माध्यम से शिक्षा, स्वाथ्य, सड़क निर्माण, गौशाला, संस्कृत पाठशाला, बालिका शिक्षा आदि योजनाओं पर खर्च होती है। सवाल उठता है कि स्वयं को नास्तिक रहने वाले शासन को किसी धर्म की आस्था में दखल देने का हक है।

क्या नास्तिक कम्युनिस्ट शासन केवल और केवल हिन्दुओं की आस्था को अपना निशाना बनाने का विशेषाधिकार रखते हैं। क्या वो तथाकथित सुधार व हिन्दुओं के श्रद्धा स्थानों पर लागू करना चाहते हैं, वैसे ही कथित नवयुगीन सेकुलर सुधार के इस्लाम या ईसाईयत के क्षेत्रों में करने का साहस दिखा सकते हैं। क्या प्रचंड और उनके यंग क्रिमनल लीग के हिंसक मवालियों में गोरे पादरियों को नेपाल से यह कहते हुए निकल जाने की आज्ञा देने का साहस है कि नेपाल के चर्चों और मस्जिदों में सिर्फ नेपाल का नागरिक पहचान पत्र प्राप्त ईसाई या मुसलमान ही कार्य कर सकतें हैं? यदि उनकी गैर हिन्दुओं में वे कार्य ले जाने की हिम्मत नहीं हैं जो वे हिन्दू क्षेत्रों में रहने का दुस्साहस दिखा रहे हैं, तो इसका स्पष्ट अर्थ है कि वे हिन्दुओं के विरूद्ध सामुदायिक विद्वेष के साथ काम कर रहे हैं।

दूसरा पक्ष यह भी हैं कि हिन्दू अपने धर्म पर हो रहे आघात का हिंसक उत्तर नहीं देता। हिन्दू देवी देवताओं के नग्न चित्र बनाने वाले चित्रकार हुसैन को आज भी राज्य सत्ता व न्यायपालिका अभिव्क्ति की स्वतंत्रता के नाम पर संरक्षण देते हैं। हिन्दू संगठन ज्यादातर कर्मकांड और आपसी लड़ाईयों में ही उलझे रहते हैं। हिन्दू राजनेता सिर्फ वोट राजनीति के तराजू पर मुद्दों को तौलकर अक्सर अपना रूख तय करते हैं।

क्या यह विडम्बना नहीं कि भारत के हिन्दू राजनेताओं में केवल भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह उद्वेलित हुएऔर उन्होंने पशुपतिनाथ में पुजारी बदलने के नाम पर हुए हमले के विरोध में नेपाल के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति से बातचीत की। क्या सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह भारत के हिन्दुओं की व्यथा और वेदना का प्रतिनिधित्व नहीं करते? कभी सोनिया गांधी को पशुपतिनाथ मंदिर में आहुति के जाते नियमानुसार प्रवेश नहीं दिया गया था तो कहा जाता है कि उसके प्रतिशोध स्वरूप राजीव गांधी ने अपने प्रधानमत्रित्व काल में नेपाल की नाकबन्दी कर दी थी। आज करोड़ों हिन्दुओं का इतना भीषण अपमान हुआ है। ये सभी राजनेता आखिरकार बहुसंख्यक हिन्दुओं के मतो से चुनकर राजसी वैभव प्राप्त करते है जो विभिन्न पार्टियों में बटे हुए हैं। क्या इन राजनेताओं का हिन्दू धर्म सिर्फ वोट बैंक तक सीमित है?

यदि पशुपतिनाथ मंदिर के भारतीय मूल के पुजारी बदलने ही थे तो क्या उसकी पद्धति इस प्रकार गुण्डागर्दी की स्वीकार्य होना चाहिए? महत्वपूर्ण नागरिकता है या धार्मिक विधिविधान से पूजा सम्पन्न करवाना? क्या नेपाली पुजारियों को पद्धति और विधि में साल दो साल पूर्व पारंगत कर यह स्थानांतरण नहीं किया जा सकता है? वस्तुतः भारत के सेकुलरवाद ने समस्त दक्षिण एशिया का जो वातावरण बनाया है, काठमांडू में पशुपतिनाथ मंदिर पर कम्युनिस्टों का हमला, उसी का परिणाम है। इसकी प्रतिक्रिया में हिन्दू समाज बाध्य होकर तीव्र प्रत्युत्तर दे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

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