28 Jan 2009
कभी कुछ न सहने और जो अभी तक जो कुछ मानते आए उसे कसौटी पर कसने और लगे तो नकारने, अस्वीकारने का स्वभाव भी पालना चाहिए। जो ठीक न लगे उसे क्यों सहें? और जो मन न माने उसे भी जीने का सामान जुटाने की मजबूरी में क्यों मानते रहें? नेपाल में प्रचंड ने पशुपतिनाथ से छेड़छाड़ की तो जो अभी तक डरे सहमे सब कुछ चुपचाप सह रहे थे वे भी विद्रोह में उठ खड़े हुए, माओवादी अहंकार ढीला पड़ा। जो लोग तोलते हैं कि नुकसान क्या और कितना होगा, उसके बाद तय किया जाए कि बोलें या न बोलें, वे केंचुए के कबीले में रहते हैं। तेईस साल की उम्र में भगत सिंह निडर विद्रोह कर वह कमा गए जो करोड़पति रायबहादुर ब्रिटिश चाटुकार होकर छू भी न पाए थे। विवेकानंद तो पैंतीस के ही थे कि संसार छोड़ गए पर संसार उन्हें अब भी याद करता है -12 जनवरी को सरकारी स्तर पर नहीं, जनता के असरकारी स्तर पर विवेकानंद का जन्मदिन मनाया गया था। उनके जीवन का एक ही मूल परिचय था - आमि विद्रोही चिर अशांत। लीक पर नहीं चलना। जो गलत लगे उसे नहीं मानना, जो सही है उसके प्रसार के लिए गत्ते के डिब्बों में भी रात बितानी पड़े तो मंजूर। यानी जीएं भले ही थोड़ा, पर आग धधकती हो , रोशनी फैलाते हुए। धुएं की तरह सुलग-सुलग कर लंबे जीने से अच्छा है आत्महत्या कर लो , बोझ मत बनो।
पर आज यह बताना, विवेकानंद को याद करना खतरे से खाली नहीं। जरा कह कर देखिए कि ये मंदिर वाले अपने देव, आराध्य पूजने की जगहें इतनी गंदी क्यों रखते हैं। काशी विश्वनाथ मंदिर जाने की गली क्यों है कीचड़ भरी और ये पंडे, अपने जजमानों को इतने अभद्र और अमानवीय ढंग से क्यों लूटते हैं? वृंदावन में सिर घुटाए विधवाओं को देख कर हम क्यों मुंह फेर लेते हैं और उस समय राधे-राधे कह कर पलायनवादी अबूझी धार्मिकता का पाखंड औढ़ते हैं जब सारा हिंदू समाज युद्ध भूमि में आक्रमण झेल रहा हो ? क्या यह समय मंदिरों में घंटियां बजा-बजा कर अपने पाप शमन करने के जुगुप्साजनक कर्म का है या आनंदमठ के उस संन्यासी विद्रोह के तेवर फिर सुलगाने का जो धर्म को राष्ट्र से विलग कर देखता ही नहीं? देश बचेगा तो देवताओं के लिए भी जगह बचेगी। वरना तक्षशिला, रावलपिंडी, मुल्तान और कराची हो जाओगे - यह बताने अब कोई नहीं आता।
गंगा की पूजा-आरती करने वालों ने गंगा गंदला दी, पर खम यों ठोंकते हैं मानो युद्ध-सज्ज रणबांकुरे हों। जिसकी स्मृति ही लुप्त है और सीने में है संसद का बाजार, वह संस्कृति के उद्धार की, सभ्यता के संरक्षण की बात करे तो कौन गंभीरता से लेगा? ये उस देश के लोग हैं जहां दशरथ के वानप्रस्थी मन और जनक के वीतरागी स्वभाव पर मन मथने वाले व्याख्यान होते हैं और तब भी सत्ता राजनीति का खेल खेलते हैं। गो हाथ में जुंबिश नहीं, आंखों में तो दम है, रहने दो अभी सागरो मीना मेरे आगे। धन्य हैं आप। आपकी जीवन कथाएं, आचरण, शब्द शक्ति आने वाली पीढ़ियों को निस्संदेह ‘ प्रेरित ’ करेंगी।
थक रही आंखें विद्रोह का पोकरण देखना चाहती हैं। राजनीतिक मूर्ति पूजन के विरूद्ध कोई मूलशंकर पाखंड खंडिनी पताका लेकर आए या विवेकानंद का साहस सीने में समाए असंदिग्ध हिंदू निष्ठा को हिंद महासागर की उत्ताल तरंगे नापते हुए पुन : घोषित करे तो इन वोट भय से आक्रांत अंधेरे के टुकड़ों को जनता के अस्वीकार की परची थमाई जा सकेगी। भारत का नवीन कायाकल्प नूतन धर्मचेतना के उदय-पथ से ही होगा। जब ईश्वर चंद्र विद्यासागर, दयानंद हुए, या हेडगेवार ने वह कर दिखाने के लिए पांच सहयोगियों को लेकर संघ गढ़ा, जो पहले कभी हिंदू समाज ने देखा न था, तो वे भी अपने वक्त के विद्रोही, चिर अशांत थे। श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल, दोनों ही अकाल कालकवलित हुए, इसी विद्रोही, अशांत परम्परा के जाज्वल्यमान नक्षत्र थे।
जब विवेकानंद ने स्वदेश मंत्र दिया और कहा कि जिन्हें तुम नीच, चांडाल, अब्राह्मण कहते हुए दुत्कारते हो , वे सब तुम्हारे रक्त बंधु, तुम्हारे भाई हैं , जब उन्होंने बचपन, यौवन और वार्धक्य के अध्यात्म को भारत के रंग में रंगा, जब अरविंद ने देश को भवानी-भारती के रूप में स्थापित किया तो वे सब अपने समय की धारा को बदल रहे थे, सड़ चुकी परंपराओं के विरूद्ध चट्टान बने थे। बुझ चुके चिरागों के थके हुए दीपदान हमारा पथ आलोकित नहीं कर सकते। हिसाब मांगने का वक्त अब है। गांधी और दीनदयाल को पूजने की जरूरत नहीं, उनके नाम पर रास्ते, बगीचे, बाजार और इमारतें खड़ी करना, चलो ठीक होगा, पर उन्हें मानते हो तो उन्हें जियो , जीकर दिखाओ।
व्यक्ति नहीं रास्ता महत्वपूर्ण होता है। बचाता रास्ता है, व्यक्ति नहीं। रास्ता भूले तो फिर हमारी वाणी और व्यवहार प्रभाहीन हो जाते हैं। अब देखिए, कहीं गोहत्या बंद नहीं हुई। पर हम गोभक्त हैं। कही मतांतरण बंद नही हुआ, पर हम मतांतरण विरोधी हैं। कहीं हमारे हाथों भारतीय भाषाओं का सम्मान नहीं बढ़ा, पर हम भारतीयता के प्रहरी हैं। हम मंदिरों के रक्षक और सर्जक हैं, पर सरकारी नियंत्रण से कोई मंदिर बाहर निकाल नहीं पाए। हम देवी उपासक हैं, पर कन्या भ्रूण हत्या रोक पाते नहीं। हम राष्ट्र रक्षक हैं, पर कोई भी अपने चुनाव घोषणा पत्र में यह कसम खाने से डरता है कि सत्ता में आए तो हमारी जो एक लाख पच्चीस हजार वर्ग किलोमीटर जमीन चीन और पाकिस्तान ने हड़पी हुई है, उसे वापस लेने के संसद के सर्वसम्मत प्रस्ताव को हम क्रियान्वित करेंगे।
हम बगल के गांव जाते हैं तो अर्धचंद्राकार टोपी पहन कर अस्सलामवालेकुम कहते हैं। तुम्हारे गांव आते हैं तो सिर पर गोंद से शिखा चिपका कर रामनामी औढ़ लेते हैं। अब हमें न वोट दीजिएगा तो किसे दीजिएगा? हम जातितोड़क समरसता के सम्मेलन से दफ्तर लौटते हैं तो जाति के सर्टिफिकेट जांच कर चुनाव के टिकट बांटते हैं। वोट के हकदार हम ही तो हुए फिर। हम बहुत कुछ हैं, पर हम कुछ भी नहीं हैं। प्लीज हमें वोट दो ना? यह सेक्युलर चलन या असेक्युलर भ्रम तोड़ने के लिए विवेकानंद के घनप्रहार की ही प्रतीक्षा है। डरोगे तो मरोगे, मरने का डर न होगा, तभी पाओगे। अमरनाथ से पशुपतिनाथ के प्रसंग यही बताते हैं। पर यह स्थिति बहुत कम परिणाम में दिखती है। हम अजर, अमर, अविनाशी आत्मा वाले, जो कहते हैं कि चोला ही बदलता है, आत्मा नहीं, कितना डरते हैं खड़े होकर इनकार के स्वर गुंजाने में।
इसलिए विवेकानंद, हेडगेवार को याद करने, जीने की जरूत है। ठहराए हुए पानी में काई बहुत जमी है। उसे साफ करने के लिए तो कुदाली, घन और पत्थरों की ही जरूरत होगी। हर आंदोलन अपनी नई भाषा गढ़ता है, भारत भी नई भाषा गढ़े - उषा के साथ उन्मीलित होते सरोज की नाई। इस उषा काल में अगर नए भारत के अग्रणी भिन्न भाषा और मुहावरे भी बोल रहे हैं तो गंभीरता का तकाजा है उन्हें आगे बढ़ते देख मुदित हुआ जाए। हर कोई सिर्फ हमारी भाषा, हमारे सोच, हमारे शब्द - संसार के चर्च से बपतिस्मा लिए हो तभी हम उसे अपना कहेंगे, लेकिन यह चर्चीकरण करते हुए भी खुद को उस परंपरा का ध्वजवाहक कहेंगे जो चार्वाक के मतवैभिन्य को सम्मान देती है और किसी गैलीलियो को सजा नहीं देती - तो यह दोहरापन चलेगा नहीं। आकाश में सूराख हो सकता है, जरूरत सिर्फ तबीयत के साथ एक पत्थर उछालने की होती है। दुष्यंत कुमार ने वही कहा जो सच उन्होंने देखा था। इसलिए भक्ति से स्पंदित पशुपतिनाथ के आराधकों के लिए विद्रोह की अर्चना कर नवीन पाशुपातास्त्र के उपयोग की सिद्धता चाहिए। यह सिद्धता संसद मार्ग से नहीं आनंदमठ के स्वयं स्वीकृत कंटकाकीर्ण संघ पथ से मिलेगी।
पर आज यह बताना, विवेकानंद को याद करना खतरे से खाली नहीं। जरा कह कर देखिए कि ये मंदिर वाले अपने देव, आराध्य पूजने की जगहें इतनी गंदी क्यों रखते हैं। काशी विश्वनाथ मंदिर जाने की गली क्यों है कीचड़ भरी और ये पंडे, अपने जजमानों को इतने अभद्र और अमानवीय ढंग से क्यों लूटते हैं? वृंदावन में सिर घुटाए विधवाओं को देख कर हम क्यों मुंह फेर लेते हैं और उस समय राधे-राधे कह कर पलायनवादी अबूझी धार्मिकता का पाखंड औढ़ते हैं जब सारा हिंदू समाज युद्ध भूमि में आक्रमण झेल रहा हो ? क्या यह समय मंदिरों में घंटियां बजा-बजा कर अपने पाप शमन करने के जुगुप्साजनक कर्म का है या आनंदमठ के उस संन्यासी विद्रोह के तेवर फिर सुलगाने का जो धर्म को राष्ट्र से विलग कर देखता ही नहीं? देश बचेगा तो देवताओं के लिए भी जगह बचेगी। वरना तक्षशिला, रावलपिंडी, मुल्तान और कराची हो जाओगे - यह बताने अब कोई नहीं आता।
गंगा की पूजा-आरती करने वालों ने गंगा गंदला दी, पर खम यों ठोंकते हैं मानो युद्ध-सज्ज रणबांकुरे हों। जिसकी स्मृति ही लुप्त है और सीने में है संसद का बाजार, वह संस्कृति के उद्धार की, सभ्यता के संरक्षण की बात करे तो कौन गंभीरता से लेगा? ये उस देश के लोग हैं जहां दशरथ के वानप्रस्थी मन और जनक के वीतरागी स्वभाव पर मन मथने वाले व्याख्यान होते हैं और तब भी सत्ता राजनीति का खेल खेलते हैं। गो हाथ में जुंबिश नहीं, आंखों में तो दम है, रहने दो अभी सागरो मीना मेरे आगे। धन्य हैं आप। आपकी जीवन कथाएं, आचरण, शब्द शक्ति आने वाली पीढ़ियों को निस्संदेह ‘ प्रेरित ’ करेंगी।
थक रही आंखें विद्रोह का पोकरण देखना चाहती हैं। राजनीतिक मूर्ति पूजन के विरूद्ध कोई मूलशंकर पाखंड खंडिनी पताका लेकर आए या विवेकानंद का साहस सीने में समाए असंदिग्ध हिंदू निष्ठा को हिंद महासागर की उत्ताल तरंगे नापते हुए पुन : घोषित करे तो इन वोट भय से आक्रांत अंधेरे के टुकड़ों को जनता के अस्वीकार की परची थमाई जा सकेगी। भारत का नवीन कायाकल्प नूतन धर्मचेतना के उदय-पथ से ही होगा। जब ईश्वर चंद्र विद्यासागर, दयानंद हुए, या हेडगेवार ने वह कर दिखाने के लिए पांच सहयोगियों को लेकर संघ गढ़ा, जो पहले कभी हिंदू समाज ने देखा न था, तो वे भी अपने वक्त के विद्रोही, चिर अशांत थे। श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल, दोनों ही अकाल कालकवलित हुए, इसी विद्रोही, अशांत परम्परा के जाज्वल्यमान नक्षत्र थे।
जब विवेकानंद ने स्वदेश मंत्र दिया और कहा कि जिन्हें तुम नीच, चांडाल, अब्राह्मण कहते हुए दुत्कारते हो , वे सब तुम्हारे रक्त बंधु, तुम्हारे भाई हैं , जब उन्होंने बचपन, यौवन और वार्धक्य के अध्यात्म को भारत के रंग में रंगा, जब अरविंद ने देश को भवानी-भारती के रूप में स्थापित किया तो वे सब अपने समय की धारा को बदल रहे थे, सड़ चुकी परंपराओं के विरूद्ध चट्टान बने थे। बुझ चुके चिरागों के थके हुए दीपदान हमारा पथ आलोकित नहीं कर सकते। हिसाब मांगने का वक्त अब है। गांधी और दीनदयाल को पूजने की जरूरत नहीं, उनके नाम पर रास्ते, बगीचे, बाजार और इमारतें खड़ी करना, चलो ठीक होगा, पर उन्हें मानते हो तो उन्हें जियो , जीकर दिखाओ।
व्यक्ति नहीं रास्ता महत्वपूर्ण होता है। बचाता रास्ता है, व्यक्ति नहीं। रास्ता भूले तो फिर हमारी वाणी और व्यवहार प्रभाहीन हो जाते हैं। अब देखिए, कहीं गोहत्या बंद नहीं हुई। पर हम गोभक्त हैं। कही मतांतरण बंद नही हुआ, पर हम मतांतरण विरोधी हैं। कहीं हमारे हाथों भारतीय भाषाओं का सम्मान नहीं बढ़ा, पर हम भारतीयता के प्रहरी हैं। हम मंदिरों के रक्षक और सर्जक हैं, पर सरकारी नियंत्रण से कोई मंदिर बाहर निकाल नहीं पाए। हम देवी उपासक हैं, पर कन्या भ्रूण हत्या रोक पाते नहीं। हम राष्ट्र रक्षक हैं, पर कोई भी अपने चुनाव घोषणा पत्र में यह कसम खाने से डरता है कि सत्ता में आए तो हमारी जो एक लाख पच्चीस हजार वर्ग किलोमीटर जमीन चीन और पाकिस्तान ने हड़पी हुई है, उसे वापस लेने के संसद के सर्वसम्मत प्रस्ताव को हम क्रियान्वित करेंगे।
हम बगल के गांव जाते हैं तो अर्धचंद्राकार टोपी पहन कर अस्सलामवालेकुम कहते हैं। तुम्हारे गांव आते हैं तो सिर पर गोंद से शिखा चिपका कर रामनामी औढ़ लेते हैं। अब हमें न वोट दीजिएगा तो किसे दीजिएगा? हम जातितोड़क समरसता के सम्मेलन से दफ्तर लौटते हैं तो जाति के सर्टिफिकेट जांच कर चुनाव के टिकट बांटते हैं। वोट के हकदार हम ही तो हुए फिर। हम बहुत कुछ हैं, पर हम कुछ भी नहीं हैं। प्लीज हमें वोट दो ना? यह सेक्युलर चलन या असेक्युलर भ्रम तोड़ने के लिए विवेकानंद के घनप्रहार की ही प्रतीक्षा है। डरोगे तो मरोगे, मरने का डर न होगा, तभी पाओगे। अमरनाथ से पशुपतिनाथ के प्रसंग यही बताते हैं। पर यह स्थिति बहुत कम परिणाम में दिखती है। हम अजर, अमर, अविनाशी आत्मा वाले, जो कहते हैं कि चोला ही बदलता है, आत्मा नहीं, कितना डरते हैं खड़े होकर इनकार के स्वर गुंजाने में।
इसलिए विवेकानंद, हेडगेवार को याद करने, जीने की जरूत है। ठहराए हुए पानी में काई बहुत जमी है। उसे साफ करने के लिए तो कुदाली, घन और पत्थरों की ही जरूरत होगी। हर आंदोलन अपनी नई भाषा गढ़ता है, भारत भी नई भाषा गढ़े - उषा के साथ उन्मीलित होते सरोज की नाई। इस उषा काल में अगर नए भारत के अग्रणी भिन्न भाषा और मुहावरे भी बोल रहे हैं तो गंभीरता का तकाजा है उन्हें आगे बढ़ते देख मुदित हुआ जाए। हर कोई सिर्फ हमारी भाषा, हमारे सोच, हमारे शब्द - संसार के चर्च से बपतिस्मा लिए हो तभी हम उसे अपना कहेंगे, लेकिन यह चर्चीकरण करते हुए भी खुद को उस परंपरा का ध्वजवाहक कहेंगे जो चार्वाक के मतवैभिन्य को सम्मान देती है और किसी गैलीलियो को सजा नहीं देती - तो यह दोहरापन चलेगा नहीं। आकाश में सूराख हो सकता है, जरूरत सिर्फ तबीयत के साथ एक पत्थर उछालने की होती है। दुष्यंत कुमार ने वही कहा जो सच उन्होंने देखा था। इसलिए भक्ति से स्पंदित पशुपतिनाथ के आराधकों के लिए विद्रोह की अर्चना कर नवीन पाशुपातास्त्र के उपयोग की सिद्धता चाहिए। यह सिद्धता संसद मार्ग से नहीं आनंदमठ के स्वयं स्वीकृत कंटकाकीर्ण संघ पथ से मिलेगी।
1 comment:
Instead of trying to bring Swami Vivekananda to our side, we should be on Swami Vivekananda's side.
Let us not forget that he was hatred free and politics free.
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