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Friday, January 30, 2009

राज ठाकरे और अफज़ल में कोई फर्क नहीं

राज ठाकरे और अफज़ल में कोई फर्क नहीं
30 Oct 2008

भारत अपना पता भूल
गया है। हर कोई अपने मोहल्ले , जाति और मजहब को ही अपना देश मान बैठा है और जो वास्तविक देश है , जो हमारी राष्ट्रीयता , पहचान और अस्तित्व का आधार है , जिसके कारण हमारा मोहल्ला , जाति या मजहब सुरक्षित रहते हैं , फलते - फूलते हैं , उस देश को भूलकर हम अपने मोहल्ले , जाति , मजहब को बढ़ाने में जुट गए हैं। देश सिकुड़ता जा रहा है और हमारे छोटेपन के झंडे बड़े होते जा रहे हैं। मुझे तब तक इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि मैं जिस हिन्दुत्व पक्ष का अनुगामी हू ¡ उसका कोई प्रबल विरोधी है या नहीं , जब तक कि वह भारत का और भारतीयता के तिरंगे को मजबूत बनाने में जुटा रहे और मोहल्ले जाति व मजहब की सेवा करते हुए भी देश को धिक्कारने वाला न बने।

आज ठीक इसका उलट हो रहा है। राज ठाकरे से लेकर जावेद अख्तर तक अपने - अपने मोहल्लों को देश मानने की भूल कर बैठे हैं। राज ठाकरे उसी कांग्रेस द्वारा बढ़ाए गए हैं , जिसने कभी भिंडरावाला को बढ़ाया था। उस समय भी चुनाव जीतना था और आज भी। कसरत चुनाव जीतने की है। जिस तरह से लोगों में वैमनस्य और हिंसक विद्वेष भड़का दिया गया है , वह न कांग्रेस को लाभ देगा न देश को। मगर सामाजिक समरसता का भाव इससे भस्म हो जाएगा।

राज ठाकरे को , महाराष्ट्र के लोगों द्वारा ही अस्वीकार कर दिया जाना चाहिए। वह हर उस तत्व , विचार और गौरव के विरूद्ध है , जिससे महाराष्ट्र परिभाषित होता आया है। अगर अफजल को संसद पर हमला करने के आरोप में फांसी की सजा सुनाई गई तो राज ठाकरे भी राष्ट्रीय एकता पर हमला करने के आरोप में अफजल से कम गुनहगार नहीं माने जाने चाहिए। पर जब शिखंडियों के हाथ में राजनीति हो तो राज ठाकरे पर लगाम कौन कसेगा ? राजस्थान के कवि जागेश्वर गर्ग की ये पंक्तियां आज के माहौल पर सटीक टिप्पणी करती हैं -

मौन शंकर , मौन चंडी , देश में
हो रहे हावी शिखण्डी देश में
अपना बौनापन छुपाने के लिए
बो रहे हैं वो अरण्डी देश में
भाव की पर्ची लगी हर भाल पर
हर गली , बाज़ार - मण्डी देश में

इसी रेखा में जावेद अख्तर भी जुड़ गए ह
ैं। ये भी ठीक और वो भी ठीक कहने में दोनों गलत हो जाते हैं। हर रंग और सरकार से पुरस्कार बटोरने के बाद अब उन्हें लगने लगा है कि भारत में मुसलमानों के साथ न्याय नहीं होता। उन्होंने हाल ही में एक साक्षात्कार दिया है , जिसमें उनके द्वारा कहे गए कुछ वाक्य वास्तव में अभी तक यह सब न जानने वाले मुसलमानों के लिए काफी चौंकाने वाली ` ब्रेकिंग न्यूज ´ होगी। वे कहते हैं कि निश्चित रूप से मुसलमान प्रशासन और कानून लागू करने वाली एजेंसियों से खुद को जुदा महसूस कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि उनके खिलाफ एक पूर्वाग्रह है। जब भी वे मारे जाते हैं , उनसे बलात्कार होता है , या उन्हें जिंदा जला दिया जाता है या उनकी सम्पति नष्ट कर दी जाती है तो इसके बाद उन्हें सिर्फ एक ऐसा आयोग मिलता है जो इन मामलों पर बरसों बैठा रहता है और अंतत : एक रपट थमा देता है।

रपट में कुछ लोगों को दोषी ठहराया जाता होगा। लेकिन अंतत : वह कूड़ेदान में ही पहुंचती है। वे इस बात से बहुत खफा थे कि एक टीवी चैनल पर उद्घोषक ने किसी अतिथि वक्ता से पूछा कि ' क्या ऐसा वक्त नहीं आ गया है जब मुसलमानों को आत्ममंथन करना चाहिए ?' जावेद अख्तर साहब ने कहा कि इस सवाल से संकेत मिलता है कि आतंकवादी कार्यवाहियों के लिए मुस्लिम समाज ही जिम्मेदार है। जब कनॉट प्लेस में बम विस्फोट हुआ और बेगुनाह लोग मारे गए , या डोडा , किश्तवाड़ और पुंछ में ढाई - ढाई साल के बच्चों सहित स्त्रियों व बूढ़ों को इस्लामी जिहाद का परचम लहराने वालों ने बेरहमी से मारा तो जावेद साहब कुछ नहीं बोले।

शायद इसलिए कि उन्हें लगता होगा कि अपनी कौम की पहचान बताने पर शबाना और जावेद जैसी शख्सियतों को जब मुंबई जैसे सेकुलर शहर तक में मकान नहीं मिलता तो इससे गुस्सा तो उपजेगा ही और वह गुस्सा अगर विशुद्ध इस्लाम की परंपरा के नाम धराने वाले संगठनों में किसी में प्रकट हो तो उस पर चुप रहना ठीक है। बाकी समाज के साथ चलन के लिए बोलना पड़े तो यह जरूरी हो जाता है कि उनके साथ एकाध हिन्दू संगठनों के नाम जरूर जोड़ दिए जाएं , वरना सेकुलर संतुलन खो बैठेगा। प्रमाण न हो तो भी बजरंग दल पर प्रतिबंध की मांग उठाई जाए और ट्रक भरकर प्रमाण मिलें तो भी अफजल की फांसी को माफी में बदलने की मुहिम चलाई जाए। बस इतना भर रह गया है आज सेकुलर होने का अर्थ। इस अन्याय के खिलाफ बोलें तो गांधी सधे।

जावेद भाई अब 47 से पहले की तर्ज पर शिकायतें न करें तो हिन्दुस्तानियत के रिश्ते दरकें नहीं। वरना ऐसे ही लोग हिन्दू पानी और मुस्लिम पानी की जमाते मजबूरन पैदा करते हैं।

' जमा बारूद तुमने रखा है जो मेरी ख़ातिर
उसे अपने - पराये की नहीं पहचान कुछ होती '

वे जितनी तल्ख और घटिया राजनीति के मुलम्मे
को ओढे बोले हैं वह सिर्फ दहशतगर्दी को ही मुस्कुराहटें दे गया। अगर वे हिन्दुस्तानियत से जुडे थे तो दर्द में मजहब की दीवारें क्यों खड़ी करने लगे ? क्या मुस्लिम मां के आंसू का खारापन किसी हिन्दू मां की आंख के आंसू से जुदा होता है ?

ठीक ऐसे माहौल में देश के लाखों गरीबों की बात करने वाला कोई नहीं रहता जो आज भयानक दुर्दशा के शिकार हैं। शोर के बाजार में आम आदमी का दर्द कहीं खो गया है। देश के हर बड़े नगर और महानगर में अथाह गरीबी के अत्यन्त दारूण दृश्य दिखते हैं - फुटपाथों पर जानवरों की तरह सोते और जिन्दगी बिताते लोग , गन्दे नालों , रेल की पटरियों , सार्वजनिक शौचालयों के पीछे टाट के कपड़े बांध ' घर ' बना कर रहते लोग , सार्वजनिक कूड़ेदानों , होटलों के बाहर और रेलगाड़ियों से जूठन व खाद्यकण बटोरते बच्चे व स्त्रियां , रिक्शा , ठेला , चलाकर भरी दुपहरी या घनघोर वर्षा में भी काम करते मजदूर। ये सब भारतीय ही तो हैं। कभी रांची या बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों से पंजाब , हरियाणा , जम्मू जाने वाली रेलगाड़ियां देखी हैं आपने ?

गठरियों में जीने का सामान बांधे वे लोग डिब्बों में ठूंसे हुए और छत पर चढ़े हुए बेहतर जीवन की आस में घर परिवार छोड़कर जाने पर क्यों विवश होते हैं ? अपमान , तिरस्कार , कम पगार और संवेदनहीन प्रशासन युक्त वातावरण में काम करने पर राजी हो जाते हैं - इस बेबसी का कोई आंकलन कर सकता है ? इन राज्यों में जबसे मध्यमवर्ग समृद्ध हुआ है , वहां के सामान्य व छोटे कहे जाने वाले कामों के लिए स्थानीय मजदूर नहीं मिलते। श्रीनगर में देशविरोधी हुर्रियत के नेताओं के घर बनाने के लिए भी बिहार व झारखण्ड से गए मजदूर काम आए थे। यहां तक कि चुशूल तक , ठेठ चीन सीमा पर मैंने स्वयं सड़कों पर काम करते बिहारी श्रमिक देखे हैं।

आधे पेट सोने वाले , भूखे उठकर काम पर जाने वाले , मेहनतकश असंगठित भारतीयों की संख्या बढ़ रही है। इनमें शहरी गरीब और ग्रामीण किसान दोनों सिम्मलित हैं। जिस देश में सरकारी आंकड़ों के अनुसार 70 हजार से अधिक किसान एक साल में निराशा , गरीबी व बदहाली से तंग आकर परिवार सहित आत्महत्याएं करने पर विवश हों , वहां चांद पर उपग्रह छोड़ने या जामिया के आतंकवादी संबंधों पर गुस्से भरी बहसें कितना अर्थ रखती हैं ?

राजनीति और मीडिया में सनसनी और शोर का राज चल रहा है। जो जितना जोर से बोले , वह उतना बड़ा सत्यवान और महारथी जान लिया जाता है। जिन दिनों स्वीकार्य चलन हो कि बिकेगी तो सिर्फ नफरत ही - राष्ट्रीय एकता परिषद से मीडिया तक - तब गांधी का यह वाक्य मन बड़ा संभालता है -' तुम्हारे पास एक है और शैतान के पास करोड़ , तो क्या तुम शैतान से डर जाओ ?' कभी नहीं। ओस की एक बूंद ही रेगिस्तान के अथाह विस्तार को चुनौती दे जाती है - जितनी देर जिएगी , जिएगी , पर सारी रेत उस एक बूंद का सामना कर सकी है कभी ?

प्रांतीयता , जातिवाद और मजहबी संकीर्णता के विरूद्ध खड़ा होना ही आज भारत के खोए हुए पते को वापिस ढूंढ़ लाने जैसा होगा। क्या आप तैयार हैं ?

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