31 Dec 2008
लोकतंत्र की विडंबना देखिए कि जिस प्रान्त से पांच लाख हिन्दुओं को प्रताड़ित कर निकाल दिया गया और 1947 में मुजफ्फराबाद से बेघर हुए शरणार्थियों को अभी तक मतदान का अधिकार नहीं दिया गया, वहां सिर्फ इसलिए लोकतंत्र की जीत के नारे बुलंद हो रहे हैं क्योंकि भारत से अलग होने की मांग करने वाले गिलानी और उनकी हुर्रियत की अपील पर लोगों ने ध्यान नहीं दिया। असली सवाल तो यह उठता है कि इन चुनावों में जो जीते वे किन मुद्दों पर सफल हुए और उनका भारत की एकता पर क्या दूरगामी परिणाम होगा। क्या नैशनल कांफ्रेंस और पीडीपी की जीत से कश्मीर घाटी को शेष देश से समरस बनाने की इच्छा रखने वाले भारतीयों का बढ़ेगा क्योंकि उमर और महबूबा ही पिछली सरकार को गिराने के लिए जिम्मेदार रहे थे जिनकी तात्कालिक राजनीति का एक ही नारा था - ‘ अमरनाथ के हिन्दू यात्रियों हेतु श्राइनबोर्ड को एक इंच जमीन नहीं देंगे ' ।
जम्मू के अभूतपूर्व सत्याग्रह ने उनकी जिद पलटवा दी और वहां से बीजेपी के ग्यारह विधायकों की जीत ने जम्मू-कश्मीर की राजनीति में केसरिया पक्ष को पुन महत्वपूर्ण सिद्ध कर दिया। वास्तव में दिल्ली में शीला दीक्षित की तीसरी बार विजय से ज्यादा महत्वपूर्ण है जम्मू में बीजेपी का गत चुनावों की तुलना में ग्यारह गुना ज्यादा बलशाली होकर लौटना। हांलाकि जम्मू में इस महत्वपूण जीत को सेकुलर मीडिया हल्का करके बता रहा है और कुछ ने तो इसे चिन्ताजनक भी कहा है। परन्तु रोचक तथ्य यह है कि जो मीडिया विश्लेषक बीजेपी की जीत बहुत चिन्ताजनक बता रहे हैं वे जम्मू क्षेत्र में पहली बार मुफ्ती की अलगाववाद समर्थक पार्टी पीडीपी के दो विधायक चुने जाने पर खामोश हैं। उल्लेखनीय है कि अमरनाथ सत्याग्रह के समय महबूबा मुफ्ती और उमर अबदुल्ला एक दूसरे के खिलाफ होते हुए भी हिन्दुओं के प्रति एक जैसा रुख अपनाए हुए थे। उमर ने लोकसभा में एक ‘ मुसलमान ’ के नाते भाषण देकर सनसनी फैला दी थी और महबूबा मुफ्ती अलगाववादियों का साथ देने वाली ‘ आग्नेय राजनेता ’ के नाते पहचान बना रही थीं। इसलिए यह कहना गलत होगा कि इन चुनावों में अलगाववादी पूरी तरह हारे हैं। वास्तव में अलगाववादी दलों के थके हुए नेताओं से समर्थकों को मायूसी मिल रही थी और अब उनकी जगह महबूबा और मुफ्ती सईद जैसे नेताओं ने ले ली है जो बेहतर एवं प्रभावी ढंग से अलगाववादियों को बचा सकते हैं।
सत्ता राजनीति के समीकरणों में हिस्सेदारी से उनका दिल्ली की सरकार पर भी प्रभाव ज्यादा रहता है। जहां तक कश्मीर में आतंकवाद के अंत का प्रश्न है, उसमें इन राजनेताओं की कोई खास दिलचस्पी नहीं है, बल्कि वे आतंकवाद के परिणामों का राजनीतिक इस्तेमाल करने के लिए आतुर रहते हैं। वर्ना दहशतगर्दी के खिलाफ कश्मीर के राजनीतिक दल क्यों चुप रहते? सिवाय बीजेपी के, किसी भी राजनीतिक दल ने अपने चुनाव प्रचार या घोषणा पत्र में आतंकवाद खत्म करने का जिक्र तक नहीं किया। विडम्बना यह है कि हर क्षेत्र में जम्मू से घनघोर भेदभाव बनाए रखने वालीं पार्टियों को ही जम्मू क्षेत्र में भी बहुमत मिला है। यहां की 37 सीटों पर सिर्फ 11 ही उस बीजेपी की झोली में आयी हैं जो भेदभाव के खिलाफ खुलकर सड़क पर उतरी थी। जिसके पूर्व अवतार भारतीय जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की रहस्यमय मृत्यु (जिसे श्री अटल बिहारी वाजपेयी तथा श्री लालकृष्ण आडवाणी ने हत्या कहा था) के पीछे भी जम्मू कश्मीर के शेष भारत के साथ समानता के आधार पर विलय की मांग थी। डॉ. मुखर्जी का बलिदान इस कारण हुआ कि जम्मू कश्मीर में तिरंगे की शान बनी रहे और वहां भिन्न विधान, प्रधान व झंडे की जगह सिर्फ तिरंगा फहरे, दो अलग अलग कानून न रहे तथा जम्मू के साथ कश्मीर के घाटी के बहुसंख्यक मुस्लिम भेदभाव न करें। पर शेख अब्दुल्ला ने उन्हें जम्मू में प्रवेश करते ही गिरफ्तार करवा कर श्रीनगर के निशांतबाग के पास एक बगलानुमा मकान में नजरबंदी करवा दिया। उनके पोते उमर अब्दुल्ला उन लोगों के साथ पांच साल सत्ता में रहे जो डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को अपना आदर्श मानते हैं।
वक्त जब बदलता है तो राजनीति का चेहरा भी नया बनता है। आज उमर अब्दुल्ला की अनेक कारणों से मीडिया में प्रशंसा की जा रही है। वे युवा है, तेजतर्रार राजनीति के नए चेहरे हैं, कश्मीरी मुश्लिम हैं और भारतीय एकता के बारे में असंदिग्ध विचार रखते आ रहे हैं। उनका व्यक्तित्व करिश्माई है और हालांकि अमेरिका के साथ परमाणु संधि पर संसद में अपने भाषण के तीखे मुस्लिम तेवरों के कारण उनकी विवादास्पद चर्चा हुई, फिर भी उन्हें महबूबा की तरह अलगाववादी नहीं कहा जा सकता। उमर टीवी चैनलों पर तर्कपूर्ण जोरदार ढंग से अपनी बात रखते हैं और कांग्रेस की नई उभरती पीढ़ी के साथ हम कदम नए जोश और नए ताजगी भरे भविष्य का संकेत देते हैं। जिस पीढ़ी में सचिन पायलट (उल्लेखनीय तथ्य यह है कि सचिन पायलट का विवाह उमर की सगी बहन सारा से हुआ है और इस विवाह का उमर तथा उनके पिता फारूख ने विरोध व बहिष्कार किया था), ज्योतिरादित्य सिंधिया , मिलिंद देवड़ा और निस्संदेह इन सबके नेता राहुल गांधी आकृष्ट करते हैं। इनके तेवर और परिपक्वता का आने वाले वक्त में पता चलेगा, क्योंकि सत्ता से बाहर का मामला अलग होता है और सत्ता संभालने के बाद मुद्दे संभालना एकदम अलग।
दुख की बात यह है कि जम्मू कश्मीर के चुनाव विश्लेषण में कहीं भी लद्दाख के चुनावों का जिक्र नहीं हुआ-जिसका क्षेत्रफल घाटी और जम्मू से भी बड़ा है। यहां से चार विधायक चुने गए और आश्चर्यजनक रूप से लद्दाख के लिए केन्द्रशासित प्रदेश का दर्जा मांगने वाले मोर्चे के नेता थुप्तान छेवांग कांग्रेसी उम्मीदवार नवांग रिग्जिन से मात्र डेढ़ हजार मतों से हार गए। आरोप है कि कांग्रेस के पक्ष में मतदान के लिए मस्जिदों से फतवे जारी करवाये गए। इससे यहां बौद्व मुस्लिम दूरियां बढ़ने की आशंका होगी।
क्या उमर का श्रीनगर में सत्ता संभालना घाटी में भारत की प्रभुता और वर्चस्व के साथ-साथ शांति और हिन्दुओं की वापसी सुनिश्चित करेगा? या वे भी वक्त बिताने और सम्पदा कमाने का वही काम करेंगे जो उनसे पहले के मुख्यमंत्री करते आए? क्या उमर अब्दुल्ला को कश्मीर की भारत से पृथकता बनाए रखने में अपनी भारतीयता सार्थक होती दिखती है? क्या वे 22 फरवरी 1994 के दिन भारत की संसद के द्वारा पारित उस प्रस्ताव को अपने कमरे में लगाना उचित मानेंगे जिस प्रस्ताव में पाकिस्तानी कब्जे के कश्मीर को वापस लेने का संकल्प किया गया है? क्या उमर सिर्फ मुस्लिम पृथकतावादियों के सुर में सुर मिलाते हुए जैसे - उन्होंने अमरनाथ यात्रा के समय हिन्दुओं को एक इंच जमीन न देने के ऐलान के साथ किया था - कश्मीर में हिन्दु विहीन जम्हूरियत का जश्न मनाएंगे या जम्हूरियत के मायने सबको साथ लेकर देशभक्ति का पाठ सिखाना भी मानेंगे ? यदि उमर उब्दुल्ला मुख्यमंत्री बने तो उनकी गाड़ी, बंगले और विधानसभा पर दो झंडे फहराए जाएंगे - एक भारत का तिरंगा और दूसरा कश्मीर का हल के निशान वाला लाल झंडा। यदि भारत के दूसरे किसी भी राज्य को अपने पृथक झंडे की आवश्यकता नहीं है तो कश्मीर को क्यों है, यह बात कोई भारतीय कश्मीरी नहीं पूछेगा तो कौन पूछेगा?
ऐसी परिस्थिति में यह समय जम्मू कश्मीर में पुनः उनकी कठिन परीक्षा का है जो डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की याद में हर साल दो बार आयोजन करते हैं और जम्मू कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय के पक्षधर हैं। बीजेपी को 11 स्थान मिले, पर ज्यादा भी मिल सकते थे - अमरनाथ संघर्ष का ज्वार बहुत ऊंचाई तक पहुंचा था। उन्हें सोचना होगा कि पहली बार जम्मू क्षेत्र में पीडीपी का पदार्पण कैसे हुआ? बिस्नाह, डोडा जैसे घायल और नेशनल कांफ्रेंस-कांग्रेस की नीतियों से लहुलुहान क्षेत्र उनके हाथ से क्यों फिसले? राजनीति में बीजेपी सत्ता के लिए नहीं, सत्ता के राष्ट्रहित में उपयोग को सुनिश्चित करने के लिए है। उस पर जनता का भरोसा नेताओं की व्यक्तिगत छवि से बढ़कर विचारधारा और पूर्वकालीन नेताओं की शहादत के कारण है। यही साख व भरोसा बीजेपी की सबसे बड़ी पूंजी रही है। धर्म, वैभव और सत्ता का अहंकारी चरित्र बाकी दलों के कार्यकर्ताओं में शिकायतें या क्रोध पैदा नहीं करता क्योंकि उनसे सादगी और देशहित में सर्वस्व समर्पण की किसी को उम्मीद नहीं होती। इसलिए जम्मू के समर्थन को सरमाथे पर धरकर भाजपा को डॉ. मुखर्जी के लहू का स्मरण करते हुए ‘ किसी भी कीमत पर समझौता नहीं ’ वाली नीति के साथ श्रीनगर की रणभूमि में उतरना होगा। तभी कश्मीर घाटी में तिरंगे के रंग में रंगी भारतीयता का दर्शन सुलभ होने की दिशा में आगे बढ़ा जा सकेगा।
जम्मू के अभूतपूर्व सत्याग्रह ने उनकी जिद पलटवा दी और वहां से बीजेपी के ग्यारह विधायकों की जीत ने जम्मू-कश्मीर की राजनीति में केसरिया पक्ष को पुन महत्वपूर्ण सिद्ध कर दिया। वास्तव में दिल्ली में शीला दीक्षित की तीसरी बार विजय से ज्यादा महत्वपूर्ण है जम्मू में बीजेपी का गत चुनावों की तुलना में ग्यारह गुना ज्यादा बलशाली होकर लौटना। हांलाकि जम्मू में इस महत्वपूण जीत को सेकुलर मीडिया हल्का करके बता रहा है और कुछ ने तो इसे चिन्ताजनक भी कहा है। परन्तु रोचक तथ्य यह है कि जो मीडिया विश्लेषक बीजेपी की जीत बहुत चिन्ताजनक बता रहे हैं वे जम्मू क्षेत्र में पहली बार मुफ्ती की अलगाववाद समर्थक पार्टी पीडीपी के दो विधायक चुने जाने पर खामोश हैं। उल्लेखनीय है कि अमरनाथ सत्याग्रह के समय महबूबा मुफ्ती और उमर अबदुल्ला एक दूसरे के खिलाफ होते हुए भी हिन्दुओं के प्रति एक जैसा रुख अपनाए हुए थे। उमर ने लोकसभा में एक ‘ मुसलमान ’ के नाते भाषण देकर सनसनी फैला दी थी और महबूबा मुफ्ती अलगाववादियों का साथ देने वाली ‘ आग्नेय राजनेता ’ के नाते पहचान बना रही थीं। इसलिए यह कहना गलत होगा कि इन चुनावों में अलगाववादी पूरी तरह हारे हैं। वास्तव में अलगाववादी दलों के थके हुए नेताओं से समर्थकों को मायूसी मिल रही थी और अब उनकी जगह महबूबा और मुफ्ती सईद जैसे नेताओं ने ले ली है जो बेहतर एवं प्रभावी ढंग से अलगाववादियों को बचा सकते हैं।
सत्ता राजनीति के समीकरणों में हिस्सेदारी से उनका दिल्ली की सरकार पर भी प्रभाव ज्यादा रहता है। जहां तक कश्मीर में आतंकवाद के अंत का प्रश्न है, उसमें इन राजनेताओं की कोई खास दिलचस्पी नहीं है, बल्कि वे आतंकवाद के परिणामों का राजनीतिक इस्तेमाल करने के लिए आतुर रहते हैं। वर्ना दहशतगर्दी के खिलाफ कश्मीर के राजनीतिक दल क्यों चुप रहते? सिवाय बीजेपी के, किसी भी राजनीतिक दल ने अपने चुनाव प्रचार या घोषणा पत्र में आतंकवाद खत्म करने का जिक्र तक नहीं किया। विडम्बना यह है कि हर क्षेत्र में जम्मू से घनघोर भेदभाव बनाए रखने वालीं पार्टियों को ही जम्मू क्षेत्र में भी बहुमत मिला है। यहां की 37 सीटों पर सिर्फ 11 ही उस बीजेपी की झोली में आयी हैं जो भेदभाव के खिलाफ खुलकर सड़क पर उतरी थी। जिसके पूर्व अवतार भारतीय जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की रहस्यमय मृत्यु (जिसे श्री अटल बिहारी वाजपेयी तथा श्री लालकृष्ण आडवाणी ने हत्या कहा था) के पीछे भी जम्मू कश्मीर के शेष भारत के साथ समानता के आधार पर विलय की मांग थी। डॉ. मुखर्जी का बलिदान इस कारण हुआ कि जम्मू कश्मीर में तिरंगे की शान बनी रहे और वहां भिन्न विधान, प्रधान व झंडे की जगह सिर्फ तिरंगा फहरे, दो अलग अलग कानून न रहे तथा जम्मू के साथ कश्मीर के घाटी के बहुसंख्यक मुस्लिम भेदभाव न करें। पर शेख अब्दुल्ला ने उन्हें जम्मू में प्रवेश करते ही गिरफ्तार करवा कर श्रीनगर के निशांतबाग के पास एक बगलानुमा मकान में नजरबंदी करवा दिया। उनके पोते उमर अब्दुल्ला उन लोगों के साथ पांच साल सत्ता में रहे जो डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को अपना आदर्श मानते हैं।
वक्त जब बदलता है तो राजनीति का चेहरा भी नया बनता है। आज उमर अब्दुल्ला की अनेक कारणों से मीडिया में प्रशंसा की जा रही है। वे युवा है, तेजतर्रार राजनीति के नए चेहरे हैं, कश्मीरी मुश्लिम हैं और भारतीय एकता के बारे में असंदिग्ध विचार रखते आ रहे हैं। उनका व्यक्तित्व करिश्माई है और हालांकि अमेरिका के साथ परमाणु संधि पर संसद में अपने भाषण के तीखे मुस्लिम तेवरों के कारण उनकी विवादास्पद चर्चा हुई, फिर भी उन्हें महबूबा की तरह अलगाववादी नहीं कहा जा सकता। उमर टीवी चैनलों पर तर्कपूर्ण जोरदार ढंग से अपनी बात रखते हैं और कांग्रेस की नई उभरती पीढ़ी के साथ हम कदम नए जोश और नए ताजगी भरे भविष्य का संकेत देते हैं। जिस पीढ़ी में सचिन पायलट (उल्लेखनीय तथ्य यह है कि सचिन पायलट का विवाह उमर की सगी बहन सारा से हुआ है और इस विवाह का उमर तथा उनके पिता फारूख ने विरोध व बहिष्कार किया था), ज्योतिरादित्य सिंधिया , मिलिंद देवड़ा और निस्संदेह इन सबके नेता राहुल गांधी आकृष्ट करते हैं। इनके तेवर और परिपक्वता का आने वाले वक्त में पता चलेगा, क्योंकि सत्ता से बाहर का मामला अलग होता है और सत्ता संभालने के बाद मुद्दे संभालना एकदम अलग।
दुख की बात यह है कि जम्मू कश्मीर के चुनाव विश्लेषण में कहीं भी लद्दाख के चुनावों का जिक्र नहीं हुआ-जिसका क्षेत्रफल घाटी और जम्मू से भी बड़ा है। यहां से चार विधायक चुने गए और आश्चर्यजनक रूप से लद्दाख के लिए केन्द्रशासित प्रदेश का दर्जा मांगने वाले मोर्चे के नेता थुप्तान छेवांग कांग्रेसी उम्मीदवार नवांग रिग्जिन से मात्र डेढ़ हजार मतों से हार गए। आरोप है कि कांग्रेस के पक्ष में मतदान के लिए मस्जिदों से फतवे जारी करवाये गए। इससे यहां बौद्व मुस्लिम दूरियां बढ़ने की आशंका होगी।
क्या उमर का श्रीनगर में सत्ता संभालना घाटी में भारत की प्रभुता और वर्चस्व के साथ-साथ शांति और हिन्दुओं की वापसी सुनिश्चित करेगा? या वे भी वक्त बिताने और सम्पदा कमाने का वही काम करेंगे जो उनसे पहले के मुख्यमंत्री करते आए? क्या उमर अब्दुल्ला को कश्मीर की भारत से पृथकता बनाए रखने में अपनी भारतीयता सार्थक होती दिखती है? क्या वे 22 फरवरी 1994 के दिन भारत की संसद के द्वारा पारित उस प्रस्ताव को अपने कमरे में लगाना उचित मानेंगे जिस प्रस्ताव में पाकिस्तानी कब्जे के कश्मीर को वापस लेने का संकल्प किया गया है? क्या उमर सिर्फ मुस्लिम पृथकतावादियों के सुर में सुर मिलाते हुए जैसे - उन्होंने अमरनाथ यात्रा के समय हिन्दुओं को एक इंच जमीन न देने के ऐलान के साथ किया था - कश्मीर में हिन्दु विहीन जम्हूरियत का जश्न मनाएंगे या जम्हूरियत के मायने सबको साथ लेकर देशभक्ति का पाठ सिखाना भी मानेंगे ? यदि उमर उब्दुल्ला मुख्यमंत्री बने तो उनकी गाड़ी, बंगले और विधानसभा पर दो झंडे फहराए जाएंगे - एक भारत का तिरंगा और दूसरा कश्मीर का हल के निशान वाला लाल झंडा। यदि भारत के दूसरे किसी भी राज्य को अपने पृथक झंडे की आवश्यकता नहीं है तो कश्मीर को क्यों है, यह बात कोई भारतीय कश्मीरी नहीं पूछेगा तो कौन पूछेगा?
ऐसी परिस्थिति में यह समय जम्मू कश्मीर में पुनः उनकी कठिन परीक्षा का है जो डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की याद में हर साल दो बार आयोजन करते हैं और जम्मू कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय के पक्षधर हैं। बीजेपी को 11 स्थान मिले, पर ज्यादा भी मिल सकते थे - अमरनाथ संघर्ष का ज्वार बहुत ऊंचाई तक पहुंचा था। उन्हें सोचना होगा कि पहली बार जम्मू क्षेत्र में पीडीपी का पदार्पण कैसे हुआ? बिस्नाह, डोडा जैसे घायल और नेशनल कांफ्रेंस-कांग्रेस की नीतियों से लहुलुहान क्षेत्र उनके हाथ से क्यों फिसले? राजनीति में बीजेपी सत्ता के लिए नहीं, सत्ता के राष्ट्रहित में उपयोग को सुनिश्चित करने के लिए है। उस पर जनता का भरोसा नेताओं की व्यक्तिगत छवि से बढ़कर विचारधारा और पूर्वकालीन नेताओं की शहादत के कारण है। यही साख व भरोसा बीजेपी की सबसे बड़ी पूंजी रही है। धर्म, वैभव और सत्ता का अहंकारी चरित्र बाकी दलों के कार्यकर्ताओं में शिकायतें या क्रोध पैदा नहीं करता क्योंकि उनसे सादगी और देशहित में सर्वस्व समर्पण की किसी को उम्मीद नहीं होती। इसलिए जम्मू के समर्थन को सरमाथे पर धरकर भाजपा को डॉ. मुखर्जी के लहू का स्मरण करते हुए ‘ किसी भी कीमत पर समझौता नहीं ’ वाली नीति के साथ श्रीनगर की रणभूमि में उतरना होगा। तभी कश्मीर घाटी में तिरंगे के रंग में रंगी भारतीयता का दर्शन सुलभ होने की दिशा में आगे बढ़ा जा सकेगा।
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