15 Dec 2008
रात सवा ग्यारह बजे फोन बजे तो वैसे ही घबराहट बढ़ जाती है। ‘ टिकट कन्फर्म है - शपथ ग्रहण में सुबह चलिएगा। ’ यूं लगा मानो आधी रात सैनिक को लड़ाई में आने का तार मिला हो। चलो , सूची में तो हैं अभी हम। माहौल ही ऐसा है। संसद में तुरही और रणसिंगे बजे। शपथ कौन सी ली जा रही है , मालूम नहीं , पर देश राजनेताओं के भरोसे ही चलाना है। वे पहले जनता का मूड भांपते हैं , फिर शब्द चुनते हैं। पहले भी जनभावनाओं को उभारकर एक से बढ़कर एक लहरें पैदा की गयी थीं। अब कहा गया , यह युद्ध है। तो फिर हमारे समारोहों के इर्द - गिर्द गोटा किनारी की चमक युद्धक हो , क्या यह अपेक्षा अनुचित होगी ?
बहस इस बात पर हो रही है कि जिन ने हमारे घर में घुसकर हमारे अपनों की हत्या की , बेवजह , नाहक और क्रूरता से , उनके साथ क्या व्यवहार किया जाए। पढ़े लिखे शांतिप्रिय सभ्य लोग ऐसी ही बहसों के बाद निर्णय लिया करते हैं। एक प्रश्नावली तैयार कर भाई लोगों को भेजी जाए। आपने ऐसा क्रूरकर्म किन कारणों से किया ? कृपया बताएं , ताकि हम उन कारणों का समाधान खोजें। तिहाड़ से अफजल भाई को भी इस बौद्धिक मीमांसा के कार्य में शामिल किया जा सकता है और शबाना जी को भी , जिनको मुसलमान होने के कारण मुम्बई में सर छुपाने के लिए कोई फ्लैट नहीं देता। मुझे लगता है कुछ दिन बाद मुम्बई जेल में बंद कसब की रिहाई के लिए भी सेकुलर पत्रकार - राजनेता मानवीयता के आधार पर मुक्ति समिति गठित करने की सोचेंगे। उसकी ससम्मान रिहाई से पाकिस्तान में भारत के लिए प्रेम और सहानुभूति बढ़ेगी। दोस्ती के रिश्ते मजबूत होंगे। वैसे भी जाने क्यों इन दिनों कुछ बैरौनकी का माहौल है - मानवाधिकारवादी चुप हैं। शायद इसलिए कि ताज होटल में जो मारे गए , वे पहाड़गंज , सरोजनीनगर की बस्ती वाले नहीं थे ? उनकी अंग्रेजी इन तीस्ताओं , हक्सरों से बेहतर थी।
सेकुलर अखबार , चैनल और लिक्खाड़ जलसा मना रहे हैं कि दिल्ली , मध्यप्रदेश , राजस्थान और छत्तीसगढ़ ने आतंक को मुद्दा माना ही नहीं। विकास की बात करो। आतंक को मुद्दा बनाने वाले हार गए , जहां केसरिया जीते भी वहां जीत चावल और सड़क , पानी , बिजली की हुई। धन्य हुए हम। साठ हजार तो अब तक वे मार गए। दो सौ की लाशों पर गृहमंत्री और मुख्यमंत्री बदलने पड़े। घर - घर सुरक्षा सैनिकों की तस्वीरें दिखीं। पर आतंक जनमन को छू रहा है , यह मानने से इसलिए इनकार किया जाएगा ताकि केसरिया पक्ष को धता बताया जा सके। क्या जिन्दा रहना अब वोट का मुद्दा माना जाएगा ? जो मोहन चन्द शर्मा की शहादत का अपमान करते रहे , उसके खिलाफ बयान और ज्ञापन देते रहे , उन्हें अचानक करकरे को सलाम करना इसलिए जरूरी लगा क्योंकि उससे केसरिया पर प्रहार का साधन मिलता था। जब देश कराह रहा हो , तब इनकी भाषा जिहादी आतंकवादियों के प्रति भले ही पिलपिली सी , माफीनामे के मानिन्द सीली हुई रहे , पर अपने हमवतनी इनकी ‘ बहादुरी ’ के निशाने बने रहते हैं।
एक इतिहासकार ऐक्टिविस्ट ने लिखा - ये हमले अमेरिका और यहां के हिन्दू परस्तों ने करवाए इसलिए आडवाणी को गोली मार देनी चाहिए। और यह वेबसाइट पर प्रसारित हुआ , उन लेखक के नाम व फोन नं. सहित जो आजकल मुस्लिम जमातों को बौद्धिक खुराक दे रहे हैं। एक बड़े कहे जाने वाले संपादक ने अपनी बाहों पर काले रिबन लगाना दम्भ के साथ प्रचारित करते हुए - बेवजह उस काल्पनिक हिन्दू वर्ग को अभद्र , ‘ न छपने योग्य ’ गालियों से नवाजा जो उनकी निगाह में हर मुसलमान पर आतंकवादी होने का लेबल चिपकाता है। कौन चिपकाता है ? इन हमलों के वक्त भी हिन्दुओं पर निशाना साधने के सेकुलर - कर्म हेतु मिथ्या - पोजीशन लेने की चतुराई क्यों ? यह छिपती है भला ?
इधर उर्दू के अखबार जो छाप रहे हैं वह जरूर जानना चाहिए। वे मुस्लिम मानस के एक वर्ग का प्रतिनिधित्व तो करते ही हैं। बजाय इसके कि वे आतंक के खिलाफ एकजुट मुकाबले की बात करें - हिन्दू मुस्लिम भेद से परे - वे अपने संपादकीयों में मुंबई पर हमले को भारत के ‘ हिन्दूवादियों की साजिश ’ करार दे रहे हैं। ‘ यह काम अमेरिकियों , यहूदियों और हिन्दुओं ने करवाया है ताकि मुसलमानों को बदनाम किया जा सकें ’ यह लाइन ली जा रही है। आतंकवादी पंजाबी और उर्दू नहीं , मराठी बोल रहे थे - यह भी एक खोजी उर्दू अखबार ने छापा और लिखा कि हेमंत करकरे की हत्या इन मराठी बोलने वाले आतंकवादियों ने की थी। एक और बड़े उर्दू दैनिक ने डक्कन मुजाहिदीन और इंडियन मुजाहिदीन के अस्तित्व से ही इनकार कर हिन्दू संगठनों पर इन आतंकवादी हमलों का आरोप मढ़ते हुए एक लेख छापा जिसमें नरेन्द्र मोदी और रतन टाटा की दोस्ती को ताज होटल में हुए हमले का सूत्रधार और वजह साबित कर दिया।
अब क्या करें , आपके काले रिबनों और फतवों
का , जिनका कोई अर्थ ही नहीं , जब तक लड़ाई एकजुट बनने की तरफ न बढ़े। सेकुलर और जिहादी एक ही सिक्के के दो पहलू हो गए हैं। एक दूसरे के रक्षा कवच। जनता का भावुक मन क्रुद्ध होकर जिहादी - तालिबानी - पाकिस्तानी तत्वों के विरूद्ध एकजुट न होने पाए , यह सुनिश्चित करने के लिए वे जन - आक्रोश के साथ चलते हुए दिखना तो चाहते हैं , पर उसे मोड़ने की कोशिश करते हैं देशभक्तों के सीनों की तरफ। ताकि लड़ाई ‘ वयं पंचाधिकम् शतम् ’ की पटरी से उतर कर खण्डन - विखण्डन में भ्रमित हो जाए और जिहादियों को राहत मिले।
जिसे भारतीय जनता कहा जाता है , तिरंगे वाली वह उद्विग्न है। उसका भारत कांग्रेस , बीजेपी , एसपी , बीएसपी वगैरह से बड़ा है और वह अपनी काया पर पिछले बीस सालों से अनवरत हो रहे जिहादी हमलों का हिसाब मांगना चाहती है , उसका भारतीय प्रत्युत्तर देना चाहती है जो निर्विकार भाव से निर्मम और निर्णायक हो। इसीलिए जब संसद में पक्ष - विपक्ष एक रंग , एकस्वर में बोलता दिखा तो इस भारतीय जनता ने उसका स्वागत किया। उसके मन में राजनेताओं के प्रति अविश्वास और आक्रोश कुछ ढला। यह लड़ाई भारत की है , हिन्दू या मुस्लिम लड़ाई नहीं। पर आधारभूत सत्य यह भी है कि यह मूलत : भारत के हिन्दूपन और उसकी प्रगति से चिढ़कर ओसामा का हमला है।
पाकिस्तान में वहां के हुक्मरानों पर इन जिहादियों के हमले इसलिए होते हैं क्येंकि वे समझते हैं कि वे हुक्मरान अमेरिका परस्त हैं , उन्होंने अमेरिकियों को पाकिस्तान की इस्लामी जमीं पर अड्डे बनाने दिए , तालिबान उनके हवाले किए , इसलिए उन्हें ‘ सुधारना ’ व ‘ सजा देना ’ जरूरी है। हमारे यहां वे लोकतंत्र , खुलेपन , वैचारिक स्वातंत्र्य और हिन्दू बहुल देश में फल रहे बहुलतावादी तंत्र से खफा हैं। यह लड़ाई बहुलतावाद की रक्षा के लिए , बहुलतावादी एकजुटता से ही की जा सकती है। ठीक है कि मुस्लिम समाज का एक वर्ग यह मानता और जीता है - पर उनमें जो नकारवादी तत्व हैं , वे किस पक्ष , किस रंग का सहारा बन बैठे हैं ? उससे क्या मुस्लिम समाज का लाभ हो रहा हैं ? या अजहर और अफजल का ?
साथ में चलना है , तो सुख दुख ही नहीं , शत्रुमित्र भी वैसे ही सांझे करने होंगे जैसे 1857 में किए थे। ‘62’, ‘65’, ‘71’ और कारगिल के वक्त किए थे। देवबंदी फतवों से कुछ नहीं होता। जो ताज में बम बारी कर गए उन्हें यकीन था कि उनके पीछे मजहब का सहारा है - वे सिद्धमना जिद्दी जुनूनी थे। अगर मौलाना उनसे मजहबी सहारा खींच लें तो उनकी जुनूनी ताकत का आधार ही खत्म हो जाएगा। वरना फतवे और काले रिबन सिर्फ हिन्दू बहुल समाज में जगह बनाए रखने का कच्चा बहाना मात्र बनेंगे - पुख्ता लड़ाई का चेहरा नहीं।
भारत की जनता - आस्था कोई भी हो - नस्ल जाति और पूर्वजों में तो सब एक हैं - वह न कभी युद्धोन्मादी रही है , न ही जुनूनी प्रतिशोधी। वरना 47 से आज तक न जाने कितने गृहयुद्ध होने के सबब आए थे। पर सच यह भी है कि धैर्य धरती का भी एक दिन चुकना चाहिए। अगर सरहद पार से जिहादी हमले होते हैं तो सरहद जमीन पर ही है , उसे नेस्तनाबूद करने में वक्त कितना लगता है ? अगर ये फन शनि या चन्द्र पर भी कुचलने जाने की जरूरत हो तो वहां जाना क्या बहस का मुद्दा होना चाहिए ? जो भारतीय इनकी बर्बरता का शिकार हुए उनका अपराध क्या यह बन जाना चाहिए कि हम सरहद पार के बर्बरों तक पहुंचने की ताकत या हिम्मत नहीं रखते और जो हमें थप्पड़ मारे , उसे सजा दिलाने की अर्जी अमरीकी दरबार में जमा करना हमारे प्रतिरोध का चरम है ?
युद्धक्षेत्र में शपथग्रहण शत्रुहनन की होनी चाहिए , सत्ता के संचालन का अब यही उद्देश्य बने। बीस साल गुणा तीन सौ पैंसठ दिन , थका नहीं यह देश अपने देशभक्तों की लाशें गिनते - गिनते ? अब यह काम शत्रुपक्ष को सौंपने के लिए कितनी और प्रतीक्षा , कितनी और बहसें बाकी हैं ?
बहस इस बात पर हो रही है कि जिन ने हमारे घर में घुसकर हमारे अपनों की हत्या की , बेवजह , नाहक और क्रूरता से , उनके साथ क्या व्यवहार किया जाए। पढ़े लिखे शांतिप्रिय सभ्य लोग ऐसी ही बहसों के बाद निर्णय लिया करते हैं। एक प्रश्नावली तैयार कर भाई लोगों को भेजी जाए। आपने ऐसा क्रूरकर्म किन कारणों से किया ? कृपया बताएं , ताकि हम उन कारणों का समाधान खोजें। तिहाड़ से अफजल भाई को भी इस बौद्धिक मीमांसा के कार्य में शामिल किया जा सकता है और शबाना जी को भी , जिनको मुसलमान होने के कारण मुम्बई में सर छुपाने के लिए कोई फ्लैट नहीं देता। मुझे लगता है कुछ दिन बाद मुम्बई जेल में बंद कसब की रिहाई के लिए भी सेकुलर पत्रकार - राजनेता मानवीयता के आधार पर मुक्ति समिति गठित करने की सोचेंगे। उसकी ससम्मान रिहाई से पाकिस्तान में भारत के लिए प्रेम और सहानुभूति बढ़ेगी। दोस्ती के रिश्ते मजबूत होंगे। वैसे भी जाने क्यों इन दिनों कुछ बैरौनकी का माहौल है - मानवाधिकारवादी चुप हैं। शायद इसलिए कि ताज होटल में जो मारे गए , वे पहाड़गंज , सरोजनीनगर की बस्ती वाले नहीं थे ? उनकी अंग्रेजी इन तीस्ताओं , हक्सरों से बेहतर थी।
सेकुलर अखबार , चैनल और लिक्खाड़ जलसा मना रहे हैं कि दिल्ली , मध्यप्रदेश , राजस्थान और छत्तीसगढ़ ने आतंक को मुद्दा माना ही नहीं। विकास की बात करो। आतंक को मुद्दा बनाने वाले हार गए , जहां केसरिया जीते भी वहां जीत चावल और सड़क , पानी , बिजली की हुई। धन्य हुए हम। साठ हजार तो अब तक वे मार गए। दो सौ की लाशों पर गृहमंत्री और मुख्यमंत्री बदलने पड़े। घर - घर सुरक्षा सैनिकों की तस्वीरें दिखीं। पर आतंक जनमन को छू रहा है , यह मानने से इसलिए इनकार किया जाएगा ताकि केसरिया पक्ष को धता बताया जा सके। क्या जिन्दा रहना अब वोट का मुद्दा माना जाएगा ? जो मोहन चन्द शर्मा की शहादत का अपमान करते रहे , उसके खिलाफ बयान और ज्ञापन देते रहे , उन्हें अचानक करकरे को सलाम करना इसलिए जरूरी लगा क्योंकि उससे केसरिया पर प्रहार का साधन मिलता था। जब देश कराह रहा हो , तब इनकी भाषा जिहादी आतंकवादियों के प्रति भले ही पिलपिली सी , माफीनामे के मानिन्द सीली हुई रहे , पर अपने हमवतनी इनकी ‘ बहादुरी ’ के निशाने बने रहते हैं।
एक इतिहासकार ऐक्टिविस्ट ने लिखा - ये हमले अमेरिका और यहां के हिन्दू परस्तों ने करवाए इसलिए आडवाणी को गोली मार देनी चाहिए। और यह वेबसाइट पर प्रसारित हुआ , उन लेखक के नाम व फोन नं. सहित जो आजकल मुस्लिम जमातों को बौद्धिक खुराक दे रहे हैं। एक बड़े कहे जाने वाले संपादक ने अपनी बाहों पर काले रिबन लगाना दम्भ के साथ प्रचारित करते हुए - बेवजह उस काल्पनिक हिन्दू वर्ग को अभद्र , ‘ न छपने योग्य ’ गालियों से नवाजा जो उनकी निगाह में हर मुसलमान पर आतंकवादी होने का लेबल चिपकाता है। कौन चिपकाता है ? इन हमलों के वक्त भी हिन्दुओं पर निशाना साधने के सेकुलर - कर्म हेतु मिथ्या - पोजीशन लेने की चतुराई क्यों ? यह छिपती है भला ?
इधर उर्दू के अखबार जो छाप रहे हैं वह जरूर जानना चाहिए। वे मुस्लिम मानस के एक वर्ग का प्रतिनिधित्व तो करते ही हैं। बजाय इसके कि वे आतंक के खिलाफ एकजुट मुकाबले की बात करें - हिन्दू मुस्लिम भेद से परे - वे अपने संपादकीयों में मुंबई पर हमले को भारत के ‘ हिन्दूवादियों की साजिश ’ करार दे रहे हैं। ‘ यह काम अमेरिकियों , यहूदियों और हिन्दुओं ने करवाया है ताकि मुसलमानों को बदनाम किया जा सकें ’ यह लाइन ली जा रही है। आतंकवादी पंजाबी और उर्दू नहीं , मराठी बोल रहे थे - यह भी एक खोजी उर्दू अखबार ने छापा और लिखा कि हेमंत करकरे की हत्या इन मराठी बोलने वाले आतंकवादियों ने की थी। एक और बड़े उर्दू दैनिक ने डक्कन मुजाहिदीन और इंडियन मुजाहिदीन के अस्तित्व से ही इनकार कर हिन्दू संगठनों पर इन आतंकवादी हमलों का आरोप मढ़ते हुए एक लेख छापा जिसमें नरेन्द्र मोदी और रतन टाटा की दोस्ती को ताज होटल में हुए हमले का सूत्रधार और वजह साबित कर दिया।
अब क्या करें , आपके काले रिबनों और फतवों
का , जिनका कोई अर्थ ही नहीं , जब तक लड़ाई एकजुट बनने की तरफ न बढ़े। सेकुलर और जिहादी एक ही सिक्के के दो पहलू हो गए हैं। एक दूसरे के रक्षा कवच। जनता का भावुक मन क्रुद्ध होकर जिहादी - तालिबानी - पाकिस्तानी तत्वों के विरूद्ध एकजुट न होने पाए , यह सुनिश्चित करने के लिए वे जन - आक्रोश के साथ चलते हुए दिखना तो चाहते हैं , पर उसे मोड़ने की कोशिश करते हैं देशभक्तों के सीनों की तरफ। ताकि लड़ाई ‘ वयं पंचाधिकम् शतम् ’ की पटरी से उतर कर खण्डन - विखण्डन में भ्रमित हो जाए और जिहादियों को राहत मिले।
जिसे भारतीय जनता कहा जाता है , तिरंगे वाली वह उद्विग्न है। उसका भारत कांग्रेस , बीजेपी , एसपी , बीएसपी वगैरह से बड़ा है और वह अपनी काया पर पिछले बीस सालों से अनवरत हो रहे जिहादी हमलों का हिसाब मांगना चाहती है , उसका भारतीय प्रत्युत्तर देना चाहती है जो निर्विकार भाव से निर्मम और निर्णायक हो। इसीलिए जब संसद में पक्ष - विपक्ष एक रंग , एकस्वर में बोलता दिखा तो इस भारतीय जनता ने उसका स्वागत किया। उसके मन में राजनेताओं के प्रति अविश्वास और आक्रोश कुछ ढला। यह लड़ाई भारत की है , हिन्दू या मुस्लिम लड़ाई नहीं। पर आधारभूत सत्य यह भी है कि यह मूलत : भारत के हिन्दूपन और उसकी प्रगति से चिढ़कर ओसामा का हमला है।
पाकिस्तान में वहां के हुक्मरानों पर इन जिहादियों के हमले इसलिए होते हैं क्येंकि वे समझते हैं कि वे हुक्मरान अमेरिका परस्त हैं , उन्होंने अमेरिकियों को पाकिस्तान की इस्लामी जमीं पर अड्डे बनाने दिए , तालिबान उनके हवाले किए , इसलिए उन्हें ‘ सुधारना ’ व ‘ सजा देना ’ जरूरी है। हमारे यहां वे लोकतंत्र , खुलेपन , वैचारिक स्वातंत्र्य और हिन्दू बहुल देश में फल रहे बहुलतावादी तंत्र से खफा हैं। यह लड़ाई बहुलतावाद की रक्षा के लिए , बहुलतावादी एकजुटता से ही की जा सकती है। ठीक है कि मुस्लिम समाज का एक वर्ग यह मानता और जीता है - पर उनमें जो नकारवादी तत्व हैं , वे किस पक्ष , किस रंग का सहारा बन बैठे हैं ? उससे क्या मुस्लिम समाज का लाभ हो रहा हैं ? या अजहर और अफजल का ?
साथ में चलना है , तो सुख दुख ही नहीं , शत्रुमित्र भी वैसे ही सांझे करने होंगे जैसे 1857 में किए थे। ‘62’, ‘65’, ‘71’ और कारगिल के वक्त किए थे। देवबंदी फतवों से कुछ नहीं होता। जो ताज में बम बारी कर गए उन्हें यकीन था कि उनके पीछे मजहब का सहारा है - वे सिद्धमना जिद्दी जुनूनी थे। अगर मौलाना उनसे मजहबी सहारा खींच लें तो उनकी जुनूनी ताकत का आधार ही खत्म हो जाएगा। वरना फतवे और काले रिबन सिर्फ हिन्दू बहुल समाज में जगह बनाए रखने का कच्चा बहाना मात्र बनेंगे - पुख्ता लड़ाई का चेहरा नहीं।
भारत की जनता - आस्था कोई भी हो - नस्ल जाति और पूर्वजों में तो सब एक हैं - वह न कभी युद्धोन्मादी रही है , न ही जुनूनी प्रतिशोधी। वरना 47 से आज तक न जाने कितने गृहयुद्ध होने के सबब आए थे। पर सच यह भी है कि धैर्य धरती का भी एक दिन चुकना चाहिए। अगर सरहद पार से जिहादी हमले होते हैं तो सरहद जमीन पर ही है , उसे नेस्तनाबूद करने में वक्त कितना लगता है ? अगर ये फन शनि या चन्द्र पर भी कुचलने जाने की जरूरत हो तो वहां जाना क्या बहस का मुद्दा होना चाहिए ? जो भारतीय इनकी बर्बरता का शिकार हुए उनका अपराध क्या यह बन जाना चाहिए कि हम सरहद पार के बर्बरों तक पहुंचने की ताकत या हिम्मत नहीं रखते और जो हमें थप्पड़ मारे , उसे सजा दिलाने की अर्जी अमरीकी दरबार में जमा करना हमारे प्रतिरोध का चरम है ?
युद्धक्षेत्र में शपथग्रहण शत्रुहनन की होनी चाहिए , सत्ता के संचालन का अब यही उद्देश्य बने। बीस साल गुणा तीन सौ पैंसठ दिन , थका नहीं यह देश अपने देशभक्तों की लाशें गिनते - गिनते ? अब यह काम शत्रुपक्ष को सौंपने के लिए कितनी और प्रतीक्षा , कितनी और बहसें बाकी हैं ?
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