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Friday, January 30, 2009

सशक्त दिल्ली तो अशक्त आतंकिस्तान


सौ करोड़ वीर नागरिकों का देश मुट्ठी भर पिलपिले नेताओं के कारण लहूलुहान हो रहा है लेकिन आतंकवादियों के खिलाफ हमले का मन नहीं बना पा रहा है : तरूण विजय

पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद समाप्त करने के लिए जो लोग ‘युद्ध होना चाहिए या नहीं’ जैसी बहसों में उलझते हैं, वे विषय भ्रमित करते हैं। मूल मुद्दा पाकिस्तान से युद्ध नहीं बल्कि आतंकवाद समाप्त करने का है। दुनिया का कोई देश इस्लामी आतंकवाद का इतना अधिक शिकार नहीं हुआ है, जितना भारत हुआ है। केवल जम्मू कश्मीर में ही गत दस वर्षों में दस हजार भारतीय (अधिकांश हिन्दू) और शेष भारत की आतंकवाद पीड़ित संख्या भी मिलाएं तो यह आंकड़ा 60 हजार पार कर जाता है। कितने और भारतीय मरने चाहिए कि हम इस वीभत्स आतंकवाद के अंत हेतु कोई निर्णायक रणनीति बनाने व उस पर अमल करने का मन बनाएंगे?आतंकवादी कहीं भी हो, उसका अंत करने के लिए हमें मानसिक रूप से तैयार रहना चाहिए। सौ करोड़ वीर नागरिकों का देश मुठ्ठी भर पिलपिले व रीढ़हीन नेताओं के कारण लहूलुहान हो रहा है लेकिन आतंकवादियों पर हमले का मन नहीं बना पा रहा है। अंग्रेजी में कहावत है कि जो युद्ध से डरते हैं, युद्ध उनकी चौखट पर दस्तक देता है। भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान से भारत के चार युद्ध हुए हैं– चारों युद्ध न तो भारत ने मांगे, न हमारी उत्तेजक कार्रवाइयों का परिणाम थे। चारों बार युद्ध पाकिस्तान ने धोखे और छल से या तो हमारी भूमि हथियाने के लिए किए या फिर प्रतिशोध के लिए किए। पाक गत बीस वर्षों से कम सघनता का जो आतंकवादी युद्ध भारत के विरूद्ध छेड़े हुए है, उनकी संख्या चार युद्धों में वीरगति प्राप्त सैनिकों से भी अधिक है। हम अपने घर में ही दुश्मन से युद्ध लड़ते हुए अपनी वेदना का उचित समाधान ढ़ूंढ़ने में भी हिचक रहे हैं– इससे बढ़कर आत्मदैन्य एवं स्वयं की शक्ति पर अविश्वास और क्या होगा? इस आतंकवाद निर्मूलन युद्ध के दो आयाम होने चाहिए– एक बाहरी और दूसरा भीतरी। बाहरी आयाम में पाकिस्तान स्थित गढ़ों एवं उसकी शक्ति के स्रोतों को परोक्ष गुरिल्ला हमलों से समाप्त करना होगा। मुंबई में पकडा़ गया आतंकवादी कसाब फरीदकोट के जिस गांव से आया है– उस पूरे गांव को कसाब के कुकृत्य की सजा मिलनी चाहिए। इसके लिए अमेरिका पर निर्भर रहना मूर्खता होगी। इसके साथ ही भारत को पाकिस्तान से सिंध व पख्तूनिस्तान अलग करने के स्थानीय आंदोलनों को सहारा देना चाहिए। कमजोर एवं भीतरी द्वंद्वों में उलझा पाकिस्तान हमारी नीति का दीर्घकालिक अंग होना चाहिए। विश्व भर में इस्लामी आतंकवाद की घटनाओं से पीड़ित व्यक्ति की तथ्यात्मक सचित्र प्रदर्शनियां एवं उन पर बने वित्तचित्र प्रदर्शित किए जाने चाहिए ताकि विश्व जनमत हमारी वेदना को समझ कर हमारा साथ दे। यह मानना कि यदि हमने पाकिस्तान स्थित आतंकवादी गढा़ें पर हमला किया तो वह परमाणु बम छोड़ सकता है– कायरता की हद है। एक तो पाकिस्तान के परमाणु जखीरे पर अमरीकी नियंत्रण है, दूसरे वह जानता है कि ऐसे कदम का परिणाम पूरे पाकिस्तान का महाविनाश होगा। इसलिए पाकिस्तान के केवल ‘लो इन्टेन्सिटी वार’ यानी ‘कम सघनता के गुरिल्ला युद्ध’ की नीति से निबटा जाना चाहिए।इस नीति का दूसरा आयाम घरेलू आतंकवादी रक्षा कवचों को पूर्णत: निष्प्रभावी बनाने से जुडा़ है। ये आतंकवादी कहीं से भी आएं अथवा भारत के भीतर ही कुछ देशद्रोही पैदा करें, इनको स्थानीय मदद एवं शरण मिले बिना उनके षडयंत्र सफल नहीं हो सकते। बौद्धिक स्तर पर इन तत्वों को यह मदद यदि मतांध सेकुलर जमात अपने पत्रों व चैनलों द्वारा देती है तो संरचनात्मक मदद देने वाले केंद्र कट्टरपंथी जिहादी संगठनों द्वारा संचालित होते हैं। विडंबना यह है कि भारत पाकिस्तान को सूची सौंपकर अपराधी आतंकवादी सौंपने की मांग करता है लेकिन अपने ही घर में छुपे हुए जिहादी बर्बरों के विरूद्ध कार्यवाई करने से हिचकता है। यह एक छद्म एवं अभारतीय सेकुलरवाद के अराष्ट्रीय चरित्र के कारण होता है। दुनिया का सर्वाधिक आतंकवाद पीड़ित देश होने के बावजूद भारत के सेकुलर राजनेता और पत्रकार पांच करोड़ से अधिक बांग्लादेशी घुसपैठियों को अपने यहां मेहमान बनाए हुए हैं। अफजल को सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बावजूद फांसी में ढ़िलाई बरती जा रही है और प्रांतीय सरकारों जैसे गुजरात एवं पूर्ववर्ती राजस्थान सरकार को कड़े आतंकवाद निरोधक कानून बनाने की अनुमति नहीं दी गई। विश्व का ऐसा कौन सा देश होगा जो जिहादी मानसिकता के घोर घृणावादियों का शिकार पांच लाख देशभक्त नागरिकों को तम्बुओं में शरणार्थी के नाते रहते देखता रहे और बेचैन न हो? जब तक देश में ऐसे सेकुलरवाद का चलन रहेगा, आतंकवाद के निर्मूलन की कोई योजना सफल नहीं हो सकती।गत 26 नवंबर को मुंबई पर हमले के बाद पाकिस्तान के अखबारों ने लिखा कि इन हमलों के पीछे अमरीकी–यहूदी और हिंदू संगठनों का हाथ है ताकि पाकिस्तान और मुसलमानों को बदनाम किया जा सके। कराची से प्रकाशित अखबारों ने 27 नवंबर के दिन मुंबई पर जिहादी हमले की खबर देते हुए मुखपृष्ठ पर बाला साहेब ठाकरे और लालकृष्ण आडवाणी के चित्र छापे और उनके नीचे लिखा– ‘हिंदुस्तान के असली दहशतगर्द’। लेकिन जब ठीक ऐसी ही बातें भारत के सेकुलर अखबार और खासकर उर्दू दैनिक छापें तो आप इसे क्या कहेंगे? लखनऊ के उर्दू दैनिक ने छापा कि मुंबई में 26 नवंबर को जिन लोगों ने एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे को गोलियां मारीं, वे आपस में मराठी में बोल रहे थे। अब पाकिस्तान में तो मराठी बोली नहीं जाती, इसलिए जांच होनी चाहिए कि वे लोग कौन थे? एक लेखक ने तो मुंबई हमले के लिए आडवाणी को जिम्मेदार ठहरा दिया। इस प्रकार के तत्व ही अब्दुल रहमान अंतुले जैसे लोगों को कुछ भी बोलने का बल देते हैं। यही लोग बाटला हाउस में इंस्पेक्टर शर्मा की शहादत का अपमान करते हैं, मुबई हमलों की जांच में भ्रम पैदा करते हैं और पाकिस्तान का मनोबल बढा़ते हैं। ऐसे देशविरोधी सेकुलरवाद को निर्मूल करना भी उतना ही जरूरी है, जितना पाकिस्तान में छिपे आतंकी अड्डे नष्ट करना।

बदलना है भविष्य तो विद्रोह करो

28 Jan 2009


कभी कुछ न सहने और जो अभी तक जो कुछ मानते आए उसे कसौटी पर कसने और लगे तो नकारने, स्वीकारने का स्वभाव भी पालना चाहिए। जो ठीक न लगे उसे क्यों सहें? और जो मन न माने उसे भी जीने का सामान जुटाने की मजबूरी में क्यों मानते रहें? नेपाल में प्रचंड ने पशुपतिनाथ से छेड़छाड़ की तो जो अभी तक डरे सहमे सब कुछ चुपचाप सह रहे थे वे भी विद्रोह में उठ खड़े हुए, माओवादी अहंकार ढीला पड़ा। जो लोग तोलते हैं कि नुकसान क्या और कितना होगा, उसके बाद तय किया जाए कि बोलें या न बोलें, वे केंचुए के कबीले में रहते हैं। तेईस साल की उम्र में भगत सिंह निडर विद्रोह कर वह कमा गए जो करोड़पति रायबहादुर ब्रिटिश चाटुकार होकर छू भी न पाए थे। विवेकानंद तो पैंतीस के ही थे कि संसार छोड़ गए पर संसार उन्हें अब भी याद करता है -12 जनवरी को सरकारी स्तर पर नहीं, जनता के असरकारी स्तर पर विवेकानंद का जन्मदिन मनाया गया था। उनके जीवन का एक ही मूल परिचय था - आमि विद्रोही चिर अशांत। लीक पर नहीं चलना। जो गलत लगे उसे नहीं मानना, जो सही है उसके प्रसार के लिए गत्ते के डिब्बों में भी रात बितानी पड़े तो मंजूर। यानी जीएं भले ही थोड़ा, पर आग धधकती हो , रोशनी फैलाते हुए। धुएं की तरह सुलग-सुलग कर लंबे जीने से अच्छा है आत्महत्या कर लो , बोझ मत बनो।

पर आज यह बताना, विवेकानंद को याद करना खतरे से खाली नहीं। जरा कह कर देखिए कि ये मंदिर वाले अपने देव, आराध्य पूजने की जगहें इतनी गंदी क्यों रखते हैं। काशी विश्वनाथ मंदिर जाने की गली क्यों है कीचड़ भरी और ये पंडे, अपने जजमानों को इतने अभद्र और अमानवीय ढंग से क्यों लूटते हैं? वृंदावन में सिर घुटाए विधवाओं को देख कर हम क्यों मुंह फेर लेते हैं और उस समय राधे-राधे कह कर पलायनवादी अबूझी धार्मिकता का पाखंड औढ़ते हैं जब सारा हिंदू समाज युद्ध भूमि में आक्रमण झेल रहा हो ? क्या यह समय मंदिरों में घंटियां बजा-बजा कर अपने पाप शमन करने के जुगुप्साजनक कर्म का है या आनंदमठ के उस संन्यासी विद्रोह के तेवर फिर सुलगाने का जो धर्म को राष्ट्र से विलग कर देखता ही नहीं? देश बचेगा तो देवताओं के लिए भी जगह बचेगी। वरना तक्षशिला, रावलपिंडी, मुल्तान और कराची हो जाओगे - यह बताने अब कोई नहीं आता।

गंगा की पूजा-आरती करने वालों ने गंगा गंदला दी, पर खम यों ठोंकते हैं मानो युद्ध-सज्ज रणबांकुरे हों। जिसकी स्मृति ही लुप्त है और सीने में है संसद का बाजार, वह संस्कृति के उद्धार की, सभ्यता के संरक्षण की बात करे तो कौन गंभीरता से लेगा? ये उस देश के लोग हैं जहां दशरथ के वानप्रस्थी मन और जनक के वीतरागी स्वभाव पर मन मथने वाले व्याख्यान होते हैं और तब भी सत्ता राजनीति का खेल खेलते हैं। गो हाथ में जुंबिश नहीं, आंखों में तो दम है, रहने दो अभी सागरो मीना मेरे आगे। धन्य हैं आप। आपकी जीवन कथाएं, आचरण, शब्द शक्ति आने वाली पीढ़ियों को निस्संदेह ‘ प्रेरित ’ करेंगी।

थक रही आंखें विद्रोह का पोकरण देखना चाहती हैं। राजनीतिक मूर्ति पूजन के विरूद्ध कोई मूलशंकर पाखंड खंडिनी पताका लेकर आए या विवेकानंद का साहस सीने में समाए असंदिग्ध हिंदू निष्ठा को हिंद महासागर की उत्ताल तरंगे नापते हुए पुन : घोषित करे तो इन वोट भय से आक्रांत अंधेरे के टुकड़ों को जनता के अस्वीकार की परची थमाई जा सकेगी। भारत का नवीन कायाकल्प नूतन धर्मचेतना के उदय-पथ से ही होगा। जब ईश्वर चंद्र विद्यासागर, दयानंद हुए, या हेडगेवार ने वह कर दिखाने के लिए पांच सहयोगियों को लेकर संघ गढ़ा, जो पहले कभी हिंदू समाज ने देखा न था, तो वे भी अपने वक्त के विद्रोही, चिर अशांत थे। श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल, दोनों ही अकाल कालकवलित हुए, इसी विद्रोही, अशांत परम्परा के जाज्वल्यमान नक्षत्र थे।

जब विवेकानंद ने स्वदेश मंत्र दिया और कहा कि जिन्हें तुम नीच, चांडाल, अब्राह्मण कहते हुए दुत्कारते हो , वे सब तुम्हारे रक्त बंधु, तुम्हारे भाई हैं , जब उन्होंने बचपन, यौवन और वार्धक्य के अध्यात्म को भारत के रंग में रंगा, जब अरविंद ने देश को भवानी-भारती के रूप में स्थापित किया तो वे सब अपने समय की धारा को बदल रहे थे, सड़ चुकी परंपराओं के विरूद्ध चट्टान बने थे। बुझ चुके चिरागों के थके हुए दीपदान हमारा पथ आलोकित नहीं कर सकते। हिसाब मांगने का वक्त अब है। गांधी और दीनदयाल को पूजने की जरूरत नहीं, उनके नाम पर रास्ते, बगीचे, बाजार और इमारतें खड़ी करना, चलो ठीक होगा, पर उन्हें मानते हो तो उन्हें जियो , जीकर दिखाओ।

व्यक्ति नहीं रास्ता महत्वपूर्ण होता है। बचाता रास्ता है, व्यक्ति नहीं। रास्ता भूले तो फिर हमारी वाणी और व्यवहार प्रभाहीन हो जाते हैं। अब देखिए, कहीं गोहत्या बंद नहीं हुई। पर हम गोभक्त हैं। कही मतांतरण बंद नही हुआ, पर हम मतांतरण विरोधी हैं। कहीं हमारे हाथों भारतीय भाषाओं का सम्मान नहीं बढ़ा, पर हम भारतीयता के प्रहरी हैं। हम मंदिरों के रक्षक और सर्जक हैं, पर सरकारी नियंत्रण से कोई मंदिर बाहर निकाल नहीं पाए। हम देवी उपासक हैं, पर कन्या भ्रूण हत्या रोक पाते नहीं। हम राष्ट्र रक्षक हैं, पर कोई भी अपने चुनाव घोषणा पत्र में यह कसम खाने से डरता है कि सत्ता में आए तो हमारी जो एक लाख पच्चीस हजार वर्ग किलोमीटर जमीन चीन और पाकिस्तान ने हड़पी हुई है, उसे वापस लेने के संसद के सर्वसम्मत प्रस्ताव को हम क्रियान्वित करेंगे।

हम बगल के गांव जाते हैं तो अर्धचंद्राकार टोपी पहन कर अस्सलामवालेकुम कहते हैं। तुम्हारे गांव आते हैं तो सिर पर गोंद से शिखा चिपका कर रामनामी औढ़ लेते हैं। अब हमें न वोट दीजिएगा तो किसे दीजिएगा? हम जातितोड़क समरसता के सम्मेलन से दफ्तर लौटते हैं तो जाति के सर्टिफिकेट जांच कर चुनाव के टिकट बांटते हैं। वोट के हकदार हम ही तो हुए फिर। हम बहुत कुछ हैं, पर हम कुछ भी नहीं हैं। प्लीज हमें वोट दो ना? यह सेक्युलर चलन या असेक्युलर भ्रम तोड़ने के लिए विवेकानंद के घनप्रहार की ही प्रतीक्षा है। डरोगे तो मरोगे, मरने का डर न होगा, तभी पाओगे। अमरनाथ से पशुपतिनाथ के प्रसंग यही बताते हैं। पर यह स्थिति बहुत कम परिणाम में दिखती है। हम अजर, अमर, अविनाशी आत्मा वाले, जो कहते हैं कि चोला ही बदलता है, आत्मा नहीं, कितना डरते हैं खड़े होकर इनकार के स्वर गुंजाने में।

इसलिए विवेकानंद, हेडगेवार को याद करने, जीने की जरूत है। ठहराए हुए पानी में काई बहुत जमी है। उसे साफ करने के लिए तो कुदाली, घन और पत्थरों की ही जरूरत होगी। हर आंदोलन अपनी नई भाषा गढ़ता है, भारत भी नई भाषा गढ़े - उषा के साथ उन्मीलित होते सरोज की नाई। इस उषा काल में अगर नए भारत के अग्रणी भिन्न भाषा और मुहावरे भी बोल रहे हैं तो गंभीरता का तकाजा है उन्हें आगे बढ़ते देख मुदित हुआ जाए। हर कोई सिर्फ हमारी भाषा, हमारे सोच, हमारे शब्द - संसार के चर्च से बपतिस्मा लिए हो तभी हम उसे अपना कहेंगे, लेकिन यह चर्चीकरण करते हुए भी खुद को उस परंपरा का ध्वजवाहक कहेंगे जो चार्वाक के मतवैभिन्य को सम्मान देती है और किसी गैलीलियो को सजा नहीं देती - तो यह दोहरापन चलेगा नहीं। आकाश में सूराख हो सकता है, जरूरत सिर्फ तबीयत के साथ एक पत्थर उछालने की होती है। दुष्यंत कुमार ने वही कहा जो सच उन्होंने देखा था। इसलिए भक्ति से स्पंदित पशुपतिनाथ के आराधकों के लिए विद्रोह की अर्चना कर नवीन पाशुपातास्त्र के उपयोग की सिद्धता चाहिए। यह सिद्धता संसद मार्ग से नहीं आनंदमठ के स्वयं स्वीकृत कंटकाकीर्ण संघ पथ से मिलेगी।

काठमांडू में माओवादी गजनी

8 Jan 2009


हालांकि नेपाल के प्रधानमंत्री प्रचंड ने पशुपतिनाथ मंदिर में स्थिति पूर्ववत बहाल करने का आदेश दिया है लेकिन यह कम्युनिस्टों की उस सामरिक रणनीति का ही हिस्सा है जिसके अंतर्गत वे ‘ दो कदम आगे एक कदम पीछे ’ चलते हैं। यह माओत्से तुंग की लम्बी छलांग में दी गयी नीति का ही द्योतक है। पशुपतिनाथ मंदिर दिल्ली के जनपथ या काठमांडू के दरबार मार्ग के फुटपाथ पर बना कोई छोटा मोटा एवं स्थानीय नगर पालिका कर्मचारियों की दया पर निर्भर पूजाघर नहीं है जहां आते-जाते लोग मंगल या शनि का प्रसाद चढ़ाते हैं।

आदि शंकराचार्य द्वारा एक हजार वर्ष से भी पूर्व स्थापित यह मंदिर नेपाल राष्ट्र की मुख्य पहचान का वैसा ही प्रतीक है जैसा भारत की संसद या गंगा और हिमालय। न तो भारत के सेकुलर जो आदतन हिन्दू प्रतीकों से घृणा करते हैं और न ही नेपाल के नास्तिक माओवादी इस गहन श्रद्धा का सम्मान करना चाहते हैं। इसलिए नेपाल के माओवादिओं ने पहले नेपाल की राष्ट्रीयता की प्रतीक उन मूल संस्थाओं को तोड़ना प्रारंभ किया जो नास्तिक माओवादिओं के विरोध में आस्थावान धार्मिक राष्ट्रवादी नेपालियों को संगठित कर सकती थीं। इनमें नेपाल की राष्ट्रीय सेना, राष्ट्रीय प्रहरी (पुलिस), न्यायपालिका और प्रशासन प्रथम निशाने पर रहे जहां उन्होंने काफी अधिक माओवादियों की घुसपैठ कर दी है। उसके बाद नेपाली आस्थावानों की श्रद्धा तोड़ने के लिए पशुपतिनाथ मंदिर की मर्यादा भंग करने का प्रयास नेपाली-भारतीय नागरिकता का मुद्दा उछाल कर किया गया।


वास्तव में लोग यह जानते ही नहीं कि पशुपतिनाथ मंदिर की पुजारी व्यवस्था में भारत-नेपाल नागरिकता का कोई प्रश्न ही नहीं आता। आदि शंकराचार्य ने उस समय पशुपतिनाथ मंदिर में पाशुपत तंत्र विद्या में निष्णात संस्कृत के विद्वानों की पुजारी परम्परा प्रारम्भ करवाई थी जब नेपाल बौद्ध मत के अतिशय प्रभाव में वैदिक पंडितों से रहित हो गया था। नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर का निर्माण राजा भोज ने करवाया था और पहले कर्नाटक और बाद में पेशवाओं के प्रभाव के कारण महाराष्ट्र से भी वैदिक पंडित पशुपतिनाथ मंदिर की सेवाओं के लिए बुलाये गये। नेपाल के राजाओं और राणाओं का मूल स्थान राजस्थान रहा है। उस समय भारत व नेपाल के बीच इस प्रकार की सरहदों के आधार पर बंटवारा मान्य ही नहीं था। आज भी नेपाल व भारत के समाजों के बीच रोटी-बेटी के प्रगाढ़ संबंध है। इन संबंधो को तोड़ने के लिए श्रद्धा खंडित करना जरूरी है इसलिए माओवादिओं ने पशुपतिनाथ मंदिर की मर्यादा का हनन कर भारत से पूर्णतः सांस्कृतिक संबंधरहित नेपाल बनाने की दिशा में कदम उठाया जिसके पीछे चीन की दीर्घकालिक रणनीति के खेल का हाथ भी हो सकता है।

नेपाल में माओवादी शासन हिन्दू संवेदनाओ पर आघात का पर्याय बनता जा रहा है। गत सप्ताह विश्व प्रसिद्ध पशुपतिनाथ मंदिर पर माओवादियों के संगठन यंग कम्युनिस्ट लीग (वाईसीएल) जिसे कुछ समय पूर्व गिरिजा प्रसाद कोईराला ने यंग क्रिमिनल लीग कहा था) के कार्यकर्ताओं ने हमला किया, मुख्य पुजारी जिन्हें मूल भट्ट कहा जाता है, से जबरन इस्तीफा लिया और एक स्थानीय नेपाली ब्राह्मण विष्णु प्रसाद दहल को मुख्य पुजारी नियुक्त करने की घोषणा कर दी। यह सब प्रधानमंत्री प्रचंड उर्फ पुष्प कमल दहल की स्वीकृति से हुआ जो प्रधानमंत्री होने के नाते पशुपतिनाथ मंदिर की प्रबन्ध महासमिति के संरक्षक हो गए हैं। पहले यह दायित्व राजा ज्ञानेन्द्र के पास था।

इन पंक्तियों के लिखे जाने तक, तीन दिन से मंदिर में पूजा बंद है। मंदिर के चार द्वारों में से केवल पूर्व द्वार ही खुला है और दुनिया भर से आने वाले भक्त अत्यन्त क्षुब्ध और स्तब्ध होकर मंदिर के बाहर से ही या प्रांगण में जाकर भक्ति पूजा से ही संतोष कर रहे हैं। माओवादी कम्युनिस्ट विचार धारा को मानते हैं। अत: उनकी ईश्वर या धर्म में कोई आस्था नहीं होती। वे घोषित तौर पर नास्तिक होते हैं। नेपाल में गत बारह वर्ष से लगातार हिंसक आन्दोलन के माध्यम से सत्ता में आये माओवादियों पर दस हजार नेपालियों की हत्या का आरोप सरकार के अधिकृत सूत्रों द्वारा लगाया गया है। माओवादियों की गुरिल्ला फौज चीन की तर्ज पर बनी है, जिसका नाम है पीपल्स लिब्रेशन आर्मी। उसके सभी आघातों का निशाना केवल हिन्दू और उनके प्रतीक रहे हैं। उन्होंने अपने प्रभाव क्षेत्रों में संस्कृत पाठशालाएं बन्द करवाई, संस्कारो की शिक्षा कटवाई, अपने गुरिल्लाओं में गौ मांस संरक्षण का चलन किया और लोकतात्रिक पद्धति का सहारा लेकर जब सत्ता में आए तो पहला काम नेपाल के हिन्दू रासू वाली संवैधानिक स्थिति से समाप्त करने का किया।

माओवादियों के तथा कथित सेकुलर व सुधारवादी निशाने पर केवल हिन्दू ही क्यों हैं और वे नेपाल में लगातार बढ़ रहे ईसाई चर्च एवं उनके प्रचारक पादरियों के बारे में क्यों चुप्पी साधे हुए हैं, इसका उत्तर माओवादी नहीं देते। हां, नेपाल स्थित विश्व हिन्दू महासंघ के अधिकारियों का करना है कि उन्हें शक हैं कि प्रचंड ईसाई हो चुके हैं।

बहरहाल, नेपाल राष्ट्र की मुख्य पहचान पशुपति नाथ मन्दिर में गत तीन सौ साल से दक्षिण भारतीय पुजारी ही समस्त पूजन कार्य करवाते आ रहे थे। वे क्रमश : आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक एवं तमिलनाडु से नेपाल के शासक द्वारा आमंत्रित किए जाते रहे। कांची पीठ के शंकराचार्य पूज्य जयेन्द्र सरस्वती जी भी नेपाल कई बार गए एवं शुद्ध वैदिक रीति से पूजा पाठ की सुचारू व्यवस्था में उन्होंने राजा के माध्यम से सहयोग दिया। नेपाली सूत्रों के अनुसार भारत से पुजारी लाने के पीछे एक व्यवहारिक कारण यह भी रहा कि नेपाल के ब्राह्मणों में भारत के अनेक प्रातों के ब्राह्मणों की भांति मांसाहार का परम्परागत चलन रहा, अत: युद्ध शाकाहारी भट्ट, नम्बूदरी ब्राह्मणों को भारत से लाए जाने एवं भारत में सुरक्षित शास्त्रगत वैदिक प्रणाली से पूजा किए जाने को प्रोत्साहन दिया गया।

नेपाल के नास्तिक कम्युनिस्टों ने सत्ता संभालते ही नेपाल की मुख्य पहचान से अपनी लाल क्रांति करने की कुचेष्टा में धर्म पर भीषण आघात करने की भूल कर दी है। धार्मिक कार्य राष्ट्रीय नागरिकता पहचान पत्रों से नहीं बल्कि शास्त्रगत विधिविधान का पालन करने वाले योग्य पुजारियों एवं धर्म-मार्ग दर्शकों द्वारा ही सम्पन्न किए जा सकते हैं। परन्तु नेपाल के माओवादी सत्तामद में इतने अच्छे हो गए कि तीन सौ साल पुरानी परम्परा को खण्डित करने में उन्होंने कोई संकोच नहीं किया और मंदिर पर सैंकड़ों कम्युनिस्ट गुंडों ने दरवाजे तोड़कर हमला कर दिया। अब वहां ऐसा कोई पुजारी नहीं हैं जो विधिविधान से हिन्दुओं की भावना के अनुरूप प्रतिदिन चलने वाले अभिषेक एवं विभिन्न कालखण्डों की अत्यंत विशिष्ट पूजा करवा सके।

उल्लेखनीय है कि पशुपतिनाथ मंदिर हिन्दुओं के लिए परमविशिष्ट एवं अत्युच्च देव मंदिर है जिसे द्वाश ज्योतिर्लिन्गों में अत्यन्त प्रमुख स्थान प्राप्त है। दुनिया भर के हिन्दुओं की तीर्थ यात्रा का चक्र पशुपतिनाथ दर्शन किये बिना पूरा नहीं होता। यहां से होने वाली आय पशुपतिनाथ विकास बोर्ड के माध्यम से शिक्षा, स्वाथ्य, सड़क निर्माण, गौशाला, संस्कृत पाठशाला, बालिका शिक्षा आदि योजनाओं पर खर्च होती है। सवाल उठता है कि स्वयं को नास्तिक रहने वाले शासन को किसी धर्म की आस्था में दखल देने का हक है।

क्या नास्तिक कम्युनिस्ट शासन केवल और केवल हिन्दुओं की आस्था को अपना निशाना बनाने का विशेषाधिकार रखते हैं। क्या वो तथाकथित सुधार व हिन्दुओं के श्रद्धा स्थानों पर लागू करना चाहते हैं, वैसे ही कथित नवयुगीन सेकुलर सुधार के इस्लाम या ईसाईयत के क्षेत्रों में करने का साहस दिखा सकते हैं। क्या प्रचंड और उनके यंग क्रिमनल लीग के हिंसक मवालियों में गोरे पादरियों को नेपाल से यह कहते हुए निकल जाने की आज्ञा देने का साहस है कि नेपाल के चर्चों और मस्जिदों में सिर्फ नेपाल का नागरिक पहचान पत्र प्राप्त ईसाई या मुसलमान ही कार्य कर सकतें हैं? यदि उनकी गैर हिन्दुओं में वे कार्य ले जाने की हिम्मत नहीं हैं जो वे हिन्दू क्षेत्रों में रहने का दुस्साहस दिखा रहे हैं, तो इसका स्पष्ट अर्थ है कि वे हिन्दुओं के विरूद्ध सामुदायिक विद्वेष के साथ काम कर रहे हैं।

दूसरा पक्ष यह भी हैं कि हिन्दू अपने धर्म पर हो रहे आघात का हिंसक उत्तर नहीं देता। हिन्दू देवी देवताओं के नग्न चित्र बनाने वाले चित्रकार हुसैन को आज भी राज्य सत्ता व न्यायपालिका अभिव्क्ति की स्वतंत्रता के नाम पर संरक्षण देते हैं। हिन्दू संगठन ज्यादातर कर्मकांड और आपसी लड़ाईयों में ही उलझे रहते हैं। हिन्दू राजनेता सिर्फ वोट राजनीति के तराजू पर मुद्दों को तौलकर अक्सर अपना रूख तय करते हैं।

क्या यह विडम्बना नहीं कि भारत के हिन्दू राजनेताओं में केवल भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह उद्वेलित हुएऔर उन्होंने पशुपतिनाथ में पुजारी बदलने के नाम पर हुए हमले के विरोध में नेपाल के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति से बातचीत की। क्या सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह भारत के हिन्दुओं की व्यथा और वेदना का प्रतिनिधित्व नहीं करते? कभी सोनिया गांधी को पशुपतिनाथ मंदिर में आहुति के जाते नियमानुसार प्रवेश नहीं दिया गया था तो कहा जाता है कि उसके प्रतिशोध स्वरूप राजीव गांधी ने अपने प्रधानमत्रित्व काल में नेपाल की नाकबन्दी कर दी थी। आज करोड़ों हिन्दुओं का इतना भीषण अपमान हुआ है। ये सभी राजनेता आखिरकार बहुसंख्यक हिन्दुओं के मतो से चुनकर राजसी वैभव प्राप्त करते है जो विभिन्न पार्टियों में बटे हुए हैं। क्या इन राजनेताओं का हिन्दू धर्म सिर्फ वोट बैंक तक सीमित है?

यदि पशुपतिनाथ मंदिर के भारतीय मूल के पुजारी बदलने ही थे तो क्या उसकी पद्धति इस प्रकार गुण्डागर्दी की स्वीकार्य होना चाहिए? महत्वपूर्ण नागरिकता है या धार्मिक विधिविधान से पूजा सम्पन्न करवाना? क्या नेपाली पुजारियों को पद्धति और विधि में साल दो साल पूर्व पारंगत कर यह स्थानांतरण नहीं किया जा सकता है? वस्तुतः भारत के सेकुलरवाद ने समस्त दक्षिण एशिया का जो वातावरण बनाया है, काठमांडू में पशुपतिनाथ मंदिर पर कम्युनिस्टों का हमला, उसी का परिणाम है। इसकी प्रतिक्रिया में हिन्दू समाज बाध्य होकर तीव्र प्रत्युत्तर दे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

कश्मीर में किस भारत का चेहरा दिखा?

कश्मीर में किस भारत का चेहरा दिखा?
31 Dec 2008

लोकतंत्र की विडंबना देखिए कि जिस प्रान्त से पांच लाख हिन्दुओं को प्रताड़ित कर निकाल दिया गया और 1947 में मुजफ्फराबाद से बेघर हुए शरणार्थियों को अभी तक मतदान का अधिकार नहीं दिया गया, वहां सिर्फ इसलिए लोकतंत्र की जीत के नारे बुलंद हो रहे हैं क्योंकि भारत से अलग होने की मांग करने वाले गिलानी और उनकी हुर्रियत की अपील पर लोगों ने ध्यान नहीं दिया। असली सवाल तो यह उठता है कि इन चुनावों में जो जीते वे किन मुद्दों पर सफल हुए और उनका भारत की एकता पर क्या दूरगामी परिणाम होगा। क्या नैशनल कांफ्रेंस और पीडीपी की जीत से कश्मीर घाटी को शेष देश से समरस बनाने की इच्छा रखने वाले भारतीयों का बढ़ेगा क्योंकि उमर और महबूबा ही पिछली सरकार को गिराने के लिए जिम्मेदार रहे थे जिनकी तात्कालिक राजनीति का एक ही नारा था - ‘ अमरनाथ के हिन्दू यात्रियों हेतु श्राइनबोर्ड को एक इंच जमीन नहीं देंगे ' ।

जम्मू के अभूतपूर्व सत्याग्रह ने उनकी जिद पलटवा दी और वहां से बीजेपी के ग्यारह विधायकों की जीत ने जम्मू-कश्मीर की राजनीति में केसरिया पक्ष को पुन महत्वपूर्ण सिद्ध कर दिया। वास्तव में दिल्ली में शीला दीक्षित की तीसरी बार विजय से ज्यादा महत्वपूर्ण है जम्मू में बीजेपी का गत चुनावों की तुलना में ग्यारह गुना ज्यादा बलशाली होकर लौटना। हांलाकि जम्मू में इस महत्वपूण जीत को सेकुलर मीडिया हल्का करके बता रहा है और कुछ ने तो इसे चिन्ताजनक भी कहा है। परन्तु रोचक तथ्य यह है कि जो मीडिया विश्लेषक बीजेपी की जीत बहुत चिन्ताजनक बता रहे हैं वे जम्मू क्षेत्र में पहली बार मुफ्ती की अलगाववाद समर्थक पार्टी पीडीपी के दो विधायक चुने जाने पर खामोश हैं। उल्लेखनीय है कि अमरनाथ सत्याग्रह के समय महबूबा मुफ्ती और उमर अबदुल्ला एक दूसरे के खिलाफ होते हुए भी हिन्दुओं के प्रति एक जैसा रुख अपनाए हुए थे। उमर ने लोकसभा में एक ‘ मुसलमान ’ के नाते भाषण देकर सनसनी फैला दी थी और महबूबा मुफ्ती अलगाववादियों का साथ देने वाली ‘ आग्नेय राजनेता ’ के नाते पहचान बना रही थीं। इसलिए यह कहना गलत होगा कि इन चुनावों में अलगाववादी पूरी तरह हारे हैं। वास्तव में अलगाववादी दलों के थके हुए नेताओं से समर्थकों को मायूसी मिल रही थी और अब उनकी जगह महबूबा और मुफ्ती सईद जैसे नेताओं ने ले ली है जो बेहतर एवं प्रभावी ढंग से अलगाववादियों को बचा सकते हैं।

सत्ता राजनीति के समीकरणों में हिस्सेदारी से उनका दिल्ली की सरकार पर भी प्रभाव ज्यादा रहता है। जहां तक कश्मीर में आतंकवाद के अंत का प्रश्न है, उसमें इन राजनेताओं की कोई खास दिलचस्पी नहीं है, बल्कि वे आतंकवाद के परिणामों का राजनीतिक इस्तेमाल करने के लिए आतुर रहते हैं। वर्ना दहशतगर्दी के खिलाफ कश्मीर के राजनीतिक दल क्यों चुप रहते? सिवाय बीजेपी के, किसी भी राजनीतिक दल ने अपने चुनाव प्रचार या घोषणा पत्र में आतंकवाद खत्म करने का जिक्र तक नहीं किया। विडम्बना यह है कि हर क्षेत्र में जम्मू से घनघोर भेदभाव बनाए रखने वालीं पार्टियों को ही जम्मू क्षेत्र में भी बहुमत मिला है। यहां की 37 सीटों पर सिर्फ 11 ही उस बीजेपी की झोली में आयी हैं जो भेदभाव के खिलाफ खुलकर सड़क पर उतरी थी। जिसके पूर्व अवतार भारतीय जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की रहस्यमय मृत्यु (जिसे श्री अटल बिहारी वाजपेयी तथा श्री लालकृष्ण आडवाणी ने हत्या कहा था) के पीछे भी जम्मू कश्मीर के शेष भारत के साथ समानता के आधार पर विलय की मांग थी। डॉ. मुखर्जी का बलिदान इस कारण हुआ कि जम्मू कश्मीर में तिरंगे की शान बनी रहे और वहां भिन्न विधान, प्रधान व झंडे की जगह सिर्फ तिरंगा फहरे, दो अलग अलग कानून न रहे तथा जम्मू के साथ कश्मीर के घाटी के बहुसंख्यक मुस्लिम भेदभाव न करें। पर शेख अब्दुल्ला ने उन्हें जम्मू में प्रवेश करते ही गिरफ्तार करवा कर श्रीनगर के निशांतबाग के पास एक बगलानुमा मकान में नजरबंदी करवा दिया। उनके पोते उमर अब्दुल्ला उन लोगों के साथ पांच साल सत्ता में रहे जो डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को अपना आदर्श मानते हैं।

वक्त जब बदलता है तो राजनीति का चेहरा भी नया बनता है। आज उमर अब्दुल्ला की अनेक कारणों से मीडिया में प्रशंसा की जा रही है। वे युवा है, तेजतर्रार राजनीति के नए चेहरे हैं, कश्मीरी मुश्लिम हैं और भारतीय एकता के बारे में असंदिग्ध विचार रखते आ रहे हैं। उनका व्यक्तित्व करिश्माई है और हालांकि अमेरिका के साथ परमाणु संधि पर संसद में अपने भाषण के तीखे मुस्लिम तेवरों के कारण उनकी विवादास्पद चर्चा हुई, फिर भी उन्हें महबूबा की तरह अलगाववादी नहीं कहा जा सकता। उमर टीवी चैनलों पर तर्कपूर्ण जोरदार ढंग से अपनी बात रखते हैं और कांग्रेस की नई उभरती पीढ़ी के साथ हम कदम नए जोश और नए ताजगी भरे भविष्य का संकेत देते हैं। जिस पीढ़ी में सचिन पायलट (उल्लेखनीय तथ्य यह है कि सचिन पायलट का विवाह उमर की सगी बहन सारा से हुआ है और इस विवाह का उमर तथा उनके पिता फारूख ने विरोध व बहिष्कार किया था), ज्योतिरादित्य सिंधिया , मिलिंद देवड़ा और निस्संदेह इन सबके नेता राहुल गांधी आकृष्ट करते हैं। इनके तेवर और परिपक्वता का आने वाले वक्त में पता चलेगा, क्योंकि सत्ता से बाहर का मामला अलग होता है और सत्ता संभालने के बाद मुद्दे संभालना एकदम अलग।

दुख की बात यह है कि जम्मू कश्मीर के चुनाव विश्लेषण में कहीं भी लद्दाख के चुनावों का जिक्र नहीं हुआ-जिसका क्षेत्रफल घाटी और जम्मू से भी बड़ा है। यहां से चार विधायक चुने गए और आश्चर्यजनक रूप से लद्दाख के लिए केन्द्रशासित प्रदेश का दर्जा मांगने वाले मोर्चे के नेता थुप्तान छेवांग कांग्रेसी उम्मीदवार नवांग रिग्जिन से मात्र डेढ़ हजार मतों से हार गए। आरोप है कि कांग्रेस के पक्ष में मतदान के लिए मस्जिदों से फतवे जारी करवाये गए। इससे यहां बौद्व मुस्लिम दूरियां बढ़ने की आशंका होगी।

क्या उमर का श्रीनगर में सत्ता संभालना घाटी में भारत की प्रभुता और वर्चस्व के साथ-साथ शांति और हिन्दुओं की वापसी सुनिश्चित करेगा? या वे भी वक्त बिताने और सम्पदा कमाने का वही काम करेंगे जो उनसे पहले के मुख्यमंत्री करते आए? क्या उमर अब्दुल्ला को कश्मीर की भारत से पृथकता बनाए रखने में अपनी भारतीयता सार्थक होती दिखती है? क्या वे 22 फरवरी 1994 के दिन भारत की संसद के द्वारा पारित उस प्रस्ताव को अपने कमरे में लगाना उचित मानेंगे जिस प्रस्ताव में पाकिस्तानी कब्जे के कश्मीर को वापस लेने का संकल्प किया गया है? क्या उमर सिर्फ मुस्लिम पृथकतावादियों के सुर में सुर मिलाते हुए जैसे - उन्होंने अमरनाथ यात्रा के समय हिन्दुओं को एक इंच जमीन न देने के ऐलान के साथ किया था - कश्मीर में हिन्दु विहीन जम्हूरियत का जश्न मनाएंगे या जम्हूरियत के मायने सबको साथ लेकर देशभक्ति का पाठ सिखाना भी मानेंगे ? यदि उमर उब्दुल्ला मुख्यमंत्री बने तो उनकी गाड़ी, बंगले और विधानसभा पर दो झंडे फहराए जाएंगे - एक भारत का तिरंगा और दूसरा कश्मीर का हल के निशान वाला लाल झंडा। यदि भारत के दूसरे किसी भी राज्य को अपने पृथक झंडे की आवश्यकता नहीं है तो कश्मीर को क्यों है, यह बात कोई भारतीय कश्मीरी नहीं पूछेगा तो कौन पूछेगा?

ऐसी परिस्थिति में यह समय जम्मू कश्मीर में पुनः उनकी कठिन परीक्षा का है जो डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की याद में हर साल दो बार आयोजन करते हैं और जम्मू कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय के पक्षधर हैं। बीजेपी को 11 स्थान मिले, पर ज्यादा भी मिल सकते थे - अमरनाथ संघर्ष का ज्वार बहुत ऊंचाई तक पहुंचा था। उन्हें सोचना होगा कि पहली बार जम्मू क्षेत्र में पीडीपी का पदार्पण कैसे हुआ? बिस्नाह, डोडा जैसे घायल और नेशनल कांफ्रेंस-कांग्रेस की नीतियों से लहुलुहान क्षेत्र उनके हाथ से क्यों फिसले? राजनीति में बीजेपी सत्ता के लिए नहीं, सत्ता के राष्ट्रहित में उपयोग को सुनिश्चित करने के लिए है। उस पर जनता का भरोसा नेताओं की व्यक्तिगत छवि से बढ़कर विचारधारा और पूर्वकालीन नेताओं की शहादत के कारण है। यही साख व भरोसा बीजेपी की सबसे बड़ी पूंजी रही है। धर्म, वैभव और सत्ता का अहंकारी चरित्र बाकी दलों के कार्यकर्ताओं में शिकायतें या क्रोध पैदा नहीं करता क्योंकि उनसे सादगी और देशहित में सर्वस्व समर्पण की किसी को उम्मीद नहीं होती। इसलिए जम्मू के समर्थन को सरमाथे पर धरकर भाजपा को डॉ. मुखर्जी के लहू का स्मरण करते हुए ‘ किसी भी कीमत पर समझौता नहीं ’ वाली नीति के साथ श्रीनगर की रणभूमि में उतरना होगा। तभी कश्मीर घाटी में तिरंगे के रंग में रंगी भारतीयता का दर्शन सुलभ होने की दिशा में आगे बढ़ा जा सकेगा।

युद्धभूमि में शपथ ग्रहण

युद्धभूमि में शपथ ग्रहण
15 Dec 2008

रात सवा ग्यारह बजे फोन बजे तो वैसे ही घबराहट बढ़ जाती है। ‘ टिकट कन्फर्म है - शपथ ग्रहण में सुबह चलिएगा। ’ यूं लगा मानो आधी रात सैनिक को लड़ाई में आने का तार मिला हो। चलो , सूची में तो हैं अभी हम। माहौल ही ऐसा है। संसद में तुरही और रणसिंगे बजे। शपथ कौन सी ली जा रही है , मालूम नहीं , पर देश राजनेताओं के भरोसे ही चलाना है। वे पहले जनता का मूड भांपते हैं , फिर शब्द चुनते हैं। पहले भी जनभावनाओं को उभारकर एक से बढ़कर एक लहरें पैदा की गयी थीं। अब कहा गया , यह युद्ध है। तो फिर हमारे समारोहों के इर्द - गिर्द गोटा किनारी की चमक युद्धक हो , क्या यह अपेक्षा अनुचित होगी ?

बहस इस बात पर हो रही है कि जिन ने हमारे घर में घुसकर हमारे अपनों की हत्या की , बेवजह , नाहक और क्रूरता से , उनके साथ क्या व्यवहार किया जाए। पढ़े लिखे शांतिप्रिय सभ्य लोग ऐसी ही बहसों के बाद निर्णय लिया करते हैं। एक प्रश्नावली तैयार कर भाई लोगों को भेजी जाए। आपने ऐसा क्रूरकर्म किन कारणों से किया ? कृपया बताएं , ताकि हम उन कारणों का समाधान खोजें। तिहाड़ से अफजल भाई को भी इस बौद्धिक मीमांसा के कार्य में शामिल किया जा सकता है और शबाना जी को भी , जिनको मुसलमान होने के कारण मुम्बई में सर छुपाने के लिए कोई फ्लैट नहीं देता। मुझे लगता है कुछ दिन बाद मुम्बई जेल में बंद कसब की रिहाई के लिए भी सेकुलर पत्रकार - राजनेता मानवीयता के आधार पर मुक्ति समिति गठित करने की सोचेंगे। उसकी ससम्मान रिहाई से पाकिस्तान में भारत के लिए प्रेम और सहानुभूति बढ़ेगी। दोस्ती के रिश्ते मजबूत होंगे। वैसे भी जाने क्यों इन दिनों कुछ बैरौनकी का माहौल है - मानवाधिकारवादी चुप हैं। शायद इसलिए कि ताज होटल में जो मारे गए , वे पहाड़गंज , सरोजनीनगर की बस्ती वाले नहीं थे ? उनकी अंग्रेजी इन तीस्ताओं , हक्सरों से बेहतर थी।

सेकुलर अखबार , चैनल और लिक्खाड़ जलसा मना रहे हैं कि दिल्ली , मध्यप्रदेश , राजस्थान और छत्तीसगढ़ ने आतंक को मुद्दा माना ही नहीं। विकास की बात करो। आतंक को मुद्दा बनाने वाले हार गए , जहां केसरिया जीते भी वहां जीत चावल और सड़क , पानी , बिजली की हुई। धन्य हुए हम। साठ हजार तो अब तक वे मार गए। दो सौ की लाशों पर गृहमंत्री और मुख्यमंत्री बदलने पड़े। घर - घर सुरक्षा सैनिकों की तस्वीरें दिखीं। पर आतंक जनमन को छू रहा है , यह मानने से इसलिए इनकार किया जाएगा ताकि केसरिया पक्ष को धता बताया जा सके। क्या जिन्दा रहना अब वोट का मुद्दा माना जाएगा ? जो मोहन चन्द शर्मा की शहादत का अपमान करते रहे , उसके खिलाफ बयान और ज्ञापन देते रहे , उन्हें अचानक करकरे को सलाम करना इसलिए जरूरी लगा क्योंकि उससे केसरिया पर प्रहार का साधन मिलता था। जब देश कराह रहा हो , तब इनकी भाषा जिहादी आतंकवादियों के प्रति भले ही पिलपिली सी , माफीनामे के मानिन्द सीली हुई रहे , पर अपने हमवतनी इनकी ‘ बहादुरी ’ के निशाने बने रहते हैं।

एक इतिहासकार ऐक्टिविस्ट ने लिखा - ये हमले अमेरिका और यहां के हिन्दू परस्तों ने करवाए इसलिए आडवाणी को गोली मार देनी चाहिए। और यह वेबसाइट पर प्रसारित हुआ , उन लेखक के नाम व फोन नं. सहित जो आजकल मुस्लिम जमातों को बौद्धिक खुराक दे रहे हैं। एक बड़े कहे जाने वाले संपादक ने अपनी बाहों पर काले रिबन लगाना दम्भ के साथ प्रचारित करते हुए - बेवजह उस काल्पनिक हिन्दू वर्ग को अभद्र , ‘ न छपने योग्य ’ गालियों से नवाजा जो उनकी निगाह में हर मुसलमान पर आतंकवादी होने का लेबल चिपकाता है। कौन चिपकाता है ? इन हमलों के वक्त भी हिन्दुओं पर निशाना साधने के सेकुलर - कर्म हेतु मिथ्या - पोजीशन लेने की चतुराई क्यों ? यह छिपती है भला ?


इधर उर्दू के अखबार जो छाप रहे हैं वह जरूर जानना चाहिए। वे मुस्लिम मानस के एक वर्ग का प्रतिनिधित्व तो करते ही हैं। बजाय इसके कि वे आतंक के खिलाफ एकजुट मुकाबले की बात करें - हिन्दू मुस्लिम भेद से परे - वे अपने संपादकीयों में मुंबई पर हमले को भारत के ‘ हिन्दूवादियों की साजिश ’ करार दे रहे हैं। ‘ यह काम अमेरिकियों , यहूदियों और हिन्दुओं ने करवाया है ताकि मुसलमानों को बदनाम किया जा सकें ’ यह लाइन ली जा रही है। आतंकवादी पंजाबी और उर्दू नहीं , मराठी बोल रहे थे - यह भी एक खोजी उर्दू अखबार ने छापा और लिखा कि हेमंत करकरे की हत्या इन मराठी बोलने वाले आतंकवादियों ने की थी। एक और बड़े उर्दू दैनिक ने डक्कन मुजाहिदीन और इंडियन मुजाहिदीन के अस्तित्व से ही इनकार कर हिन्दू संगठनों पर इन आतंकवादी हमलों का आरोप मढ़ते हुए एक लेख छापा जिसमें नरेन्द्र मोदी और रतन टाटा की दोस्ती को ताज होटल में हुए हमले का सूत्रधार और वजह साबित कर दिया।


अब क्या करें , आपके काले रिबनों और फतवों
का , जिनका कोई अर्थ ही नहीं , जब तक लड़ाई एकजुट बनने की तरफ न बढ़े। सेकुलर और जिहादी एक ही सिक्के के दो पहलू हो गए हैं। एक दूसरे के रक्षा कवच। जनता का भावुक मन क्रुद्ध होकर जिहादी - तालिबानी - पाकिस्तानी तत्वों के विरूद्ध एकजुट न होने पाए , यह सुनिश्चित करने के लिए वे जन - आक्रोश के साथ चलते हुए दिखना तो चाहते हैं , पर उसे मोड़ने की कोशिश करते हैं देशभक्तों के सीनों की तरफ। ताकि लड़ाई ‘ वयं पंचाधिकम् शतम् ’ की पटरी से उतर कर खण्डन - विखण्डन में भ्रमित हो जाए और जिहादियों को राहत मिले।

जिसे भारतीय जनता कहा जाता है , तिरंगे वाली वह उद्विग्न है। उसका भारत कांग्रेस , बीजेपी , एसपी , बीएसपी वगैरह से बड़ा है और वह अपनी काया पर पिछले बीस सालों से अनवरत हो रहे जिहादी हमलों का हिसाब मांगना चाहती है , उसका भारतीय प्रत्युत्तर देना चाहती है जो निर्विकार भाव से निर्मम और निर्णायक हो। इसीलिए जब संसद में पक्ष - विपक्ष एक रंग , एकस्वर में बोलता दिखा तो इस भारतीय जनता ने उसका स्वागत किया। उसके मन में राजनेताओं के प्रति अविश्वास और आक्रोश कुछ ढला। यह लड़ाई भारत की है , हिन्दू या मुस्लिम लड़ाई नहीं। पर आधारभूत सत्य यह भी है कि यह मूलत : भारत के हिन्दूपन और उसकी प्रगति से चिढ़कर ओसामा का हमला है।

पाकिस्तान में वहां के हुक्मरानों पर इन जिहादियों के हमले इसलिए होते हैं क्येंकि वे समझते हैं कि वे हुक्मरान अमेरिका परस्त हैं , उन्होंने अमेरिकियों को पाकिस्तान की इस्लामी जमीं पर अड्डे बनाने दिए , तालिबान उनके हवाले किए , इसलिए उन्हें ‘ सुधारना ’ व ‘ सजा देना ’ जरूरी है। हमारे यहां वे लोकतंत्र , खुलेपन , वैचारिक स्वातंत्र्य और हिन्दू बहुल देश में फल रहे बहुलतावादी तंत्र से खफा हैं। यह लड़ाई बहुलतावाद की रक्षा के लिए , बहुलतावादी एकजुटता से ही की जा सकती है। ठीक है कि मुस्लिम समाज का एक वर्ग यह मानता और जीता है - पर उनमें जो नकारवादी तत्व हैं , वे किस पक्ष , किस रंग का सहारा बन बैठे हैं ? उससे क्या मुस्लिम समाज का लाभ हो रहा हैं ? या अजहर और अफजल का ?

साथ में चलना है , तो सुख दुख ही नहीं , शत्रुमित्र भी वैसे ही सांझे करने होंगे जैसे 1857 में किए थे। ‘62’, ‘65’, ‘71’ और कारगिल के वक्त किए थे। देवबंदी फतवों से कुछ नहीं होता। जो ताज में बम बारी कर गए उन्हें यकीन था कि उनके पीछे मजहब का सहारा है - वे सिद्धमना जिद्दी जुनूनी थे। अगर मौलाना उनसे मजहबी सहारा खींच लें तो उनकी जुनूनी ताकत का आधार ही खत्म हो जाएगा। वरना फतवे और काले रिबन सिर्फ हिन्दू बहुल समाज में जगह बनाए रखने का कच्चा बहाना मात्र बनेंगे - पुख्ता लड़ाई का चेहरा नहीं।


भारत की जनता - आस्था कोई भी हो - नस्ल जाति और पूर्वजों में तो सब एक हैं - वह न कभी युद्धोन्मादी रही है , न ही जुनूनी प्रतिशोधी। वरना 47 से आज तक न जाने कितने गृहयुद्ध होने के सबब आए थे। पर सच यह भी है कि धैर्य धरती का भी एक दिन चुकना चाहिए। अगर सरहद पार से जिहादी हमले होते हैं तो सरहद जमीन पर ही है , उसे नेस्तनाबूद करने में वक्त कितना लगता है ? अगर ये फन शनि या चन्द्र पर भी कुचलने जाने की जरूरत हो तो वहां जाना क्या बहस का मुद्दा होना चाहिए ? जो भारतीय इनकी बर्बरता का शिकार हुए उनका अपराध क्या यह बन जाना चाहिए कि हम सरहद पार के बर्बरों तक पहुंचने की ताकत या हिम्मत नहीं रखते और जो हमें थप्पड़ मारे , उसे सजा दिलाने की अर्जी अमरीकी दरबार में जमा करना हमारे प्रतिरोध का चरम है ?


युद्धक्षेत्र में शपथग्रहण शत्रुहनन की होनी चाहिए , सत्ता के संचालन का अब यही उद्देश्य बने। बीस साल गुणा तीन सौ पैंसठ दिन , थका नहीं यह देश अपने देशभक्तों की लाशें गिनते - गिनते ? अब यह काम शत्रुपक्ष को सौंपने के लिए कितनी और प्रतीक्षा , कितनी और बहसें बाकी हैं ?

मुंबईः किस ताकत के बल पर शत्रु से निबटेंगे?

मुंबईः किस ताकत के बल पर शत्रु से निबटेंगे?
1 Dec 2008

शिवराज पाटिल और चिदम्बरम एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। हां अगर प्रणव मुखर्जी को गृहमंत्री बनाया जाता तो बात कुछ और थी परंतु सोनिया गांधी प्रणव मुखर्जी को महत्व नहीं देना चाहती , इसलिए उनको प्रधानमंत्री भी नहीं बनने दिया था।

मुम्बई के जिहादी आक्रमण के संदर्भ में चॉकलेटी चर्चाओं का फैशनेबल दौर जारी है। लेकिन कहीं भी इस समस्या के मूल पर चोट नहीं की जा रही है। जिसे देखकर आश्चर्य होता है। यह आक्रमण अलकायदा की ओर से घोषित इस्लामी आक्रमण था। ओसामा बिन लादेन और अल जवाहरी ने अगस्त 2006 में विश्व भर में प्रसारित अपने भाषण में स्पष्ट रूप से भारत पर हमला करने की घोषणा की थी।

इसके बाद अमेरिकी दूतावास ने इस चेतावनी को सब ओर प्रसारित भी किया था। अगस्त 2007 में गृह मंत्रालय में इस बात पर विशेष बैठक भी हुई थी। लेकिन उस समय मुस्लिम वोट बैंक को नाराज न करने के भय से मामले को ज्यादा महत्व नहीं दिया गया। गृह मंत्रालय के पास इस बात की पूरी सूचनाएं थी कि समुद्री मार्ग से भी आतंकवादी हमला कर सकते हैं । फिर भी कोई कार्यवाही नहीं की गई। नौसेना , तटरक्षक और तटीय पुलिस इन तीनों स्तरों की चौकसी को लांघकर आतंकवादी मुंबई तक पहुंचे कैसे ? मुंबई मछुआरा संघ के अध्यक्ष ने आर.आर. पाटिल को संदिग्ध नौकाओं के बारे में जानकारी दी थी । फिर भी कोई कार्यवाही नहीं की गई। इसलिए इस परिदृश्य में अपना वैचारिक प्रतिरोध सशक्त किए बिना अलकायदा के इस्लामी आक्रमण का मुकाबला नहीं किया जा सकता। इसमें देशभक्त समाज एकजुट होना होगा- हिन्दू , मुस्लिम सभी।

पर मूलतः यह हमला हमारे हिन्दू स्वरूप के कारण है , पर वैचारिक भ्रम के कारण भारत के सेकुलर बने हुए हैं। इस्लामी जिहाद को झेलते-झेलते हमें तीस साल से ज्यादा हो गए हैं पर क्या भारत में एक भी ऐसा बौद्धिक केन्द्र है जो इस घृणा के हमले का बौद्धिक विश्लेषण कर रहा हो ? इस आक्रमण के विभिन्न वैचारिक पहलू क्या है ? उनके प्रति भारत सरकार और गैर राजनीतिक संगठनों की नीति क्या है ? क्या हिन्दू संगठनों की भी आतंकवाद के प्रति कोई सुविचारित नीति बनी है ? हर आतंकवादी घटना पर तात्कालिक प्रतिक्रिया देना और उसके 24 घंटे बाद ही ‘ नच बलिए ’ की धुन पर पुलिस तथा सैनिक बलों का मनोबल गिराना हमारी आदत में शुमार हो गया है। सच यह है कि चार-चार बड़े युद्ध लड़ने और विजय पाने के बावजूद आज तक किसी सैनिक को भारत रत्न नहीं दिया गया।

दिल्ली में एक भी भव्य सैन्य विजय स्मारक नहीं है। सेना वेतन वृद्धि की मांग करते हुए थक जाती है। कारगिल विजय दिवस और भारत विजय दिवस (16 दिसंबर) मनाने बंद कर दिए गए हैं। सेना में अफसरों की कमी है। फिर हम किस ताकत के बल और सहारे पर शत्रु से निबटेंगे ? किसी तीसरे के विरुद्ध हम ‘ वयं पंचाधिकम शतम् ’ के भाव से ही खड़े रहें- यह बात मुंबई आक्रमण के संदर्भ में सभी दलों और विचार धाराओं के नेताओं को उठानी होगी।

जनता सेकुलरों की घृणा और दुर्भावना पर आधारित नीतियों व कार्यक्रमों से भी चिढ़ गई है। ये सेकुलर भारत और भारतीयता के सबसे बड़े शत्रु बनकर उभरे हैं जो हर आतंकी हमले को केवल सांप्रदायिक चश्मे से देखते हैं। तभी सर्वत्र यह भाव फैलता है कि ‘ भगवा के विरूद्ध जो पुलिस बोले यह वेद वाक्य समान विश्वस्त माना जाए और यदि बाकी के विरुद्ध पर्याप्त प्रमाण भी मिलें , तो उन पर शक किया जाए। इशरत जहां का मामला याद रखना चाहिए। उसके विरूद्ध गुजरात पुलिस ने कार्यवाही की तो तुरंत मीडिया में शोर मचा दिया गया कि एक बेगुनाह मुस्लिम महिला को गुजरात के दरिन्दों ने मार दिया। एक चैनल ने तो इशरतजहां के जनाजे का लाइव प्रसारण किया। जब लश्करे तोएबा ने स्वयं अपनी वेबसाइट पर इशरत को अपना कार्यकर्ता बताकर श्रद्धांजलि दी , तब सेकुलर मीडिया चुप हुई।

दूसरा उदाहरण कोयम्बटूर बम धमाके का है जिसमें 60 से ज्यादा लोग मारे गए थे और 250 घायल हुए थे। उसके मुख्य अभियुक्त अब्दुल नसीर मदनी को जेल में पांच सितारा सुविधाएं उपलब्ध कराई गईं। केरल की सेकुलर वाममोर्चा सरकार ने बकायदा विधानसभा में मदनी को निर्दोष बताते हुए उसकी रिहाई के लिए प्रस्ताव पारित किया। निचली अदालत ने मदनी पर लगे आरोप प्रमाणित पाते हुए उसे अभियुक्त ठहराया , पर सरकार ने आगे कार्यवाही ही नहीं की और ढीली प्रस्तुति के कारण तकनीकी कारणों से जब मदनी को हाई कोर्ट ने रिहा किया तो केरल का समूचा मंत्रिमण्डल उसके सार्वजनिक स्वागत के लिए सड़क पर था।

जिस प्रकार से पिछले दिनों माले गांव की एक घटना को लेकर सरकार और मीडिया में सेकुलर जश्न मनाया जा रहा था , उससे जिहादी तत्वों का ही हौसला बढ़ा। जो हिन्दू गत तीन दशकों से लगातार जिहादी आतंक का शिकार होते आए और जिन्होंने कभी भी प्रतिकार व प्रतिशोध के स्वर नहीं उठाए , उन्हें सिर्फ मुस्लिम वोट बैंक रिझाने के लिए ‘ आतंकवादी ’ घोषित कर दिया गया।

हर ओर जिस हिन्दू समाज और सभ्यता को वसुधैव कुटुम्बकम का संदेश वाहक , प्रामाणिक एवं श्रेष्ठ बुद्धिमान माना जाता था , उस हिन्दू को इस सरकार और सेकुलर तंत्र ने जिहादी अलकायदा वालों के समकक्ष खड़ा कर क्या हासिल किया ? यह देश हिन्दू बहुसंख्यक होने के कारण ही इतना सहिष्णु , उदार और सर्वपंथ समादर की भावना वाला है। वरना यहां भी पड़ोस के इस्लामी देशों की तरह अल्पसंख्यक विरोधी मतांध सरकार होती। यदि भारत के इस हिन्दू चरित्र को आहत किया गया और वह विवश होकर प्रतिक्रिया में अपने जवाब जिहादी-रूप से देना उचित मानने लगा तो वह दिन भारत के लिए ही नहीं , विश्व-बहुलतावाद के लिए अत्यंत अमांगलिक होगा। मुंबई के जिहादी आक्रमण के परिप्रेक्ष्य में वैचारिक , पांथिक एवं राजनीतिक भेदाभेद से ऊपर उठते हुए एकजुटता प्रकट करने की तीव्र आवश्यकता है। पुनः कारगिल-युद्ध के समय प्रकट हुई असाधारण देशभक्ति की लहर के बल पर ही जिहादी तत्वों को परास्त किया जा सकता है। पर उसके लिए आवश्यक होगा कि वोट बैंक की राजनीति का दाम न छोड़ा जाए।

बाटला हाउस प्रकरण में जिस प्रकार बहादुर पुलिस इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा को उनकी शहादत के बाद भी जलील किया गया , वह सुरक्षा सैनिकों का मनोबल गिराने वाला ही कहा जाएगा। मुंबई में एटीएस प्रमुख हेमन्त करकरे , विजय सलस्कर और अशोक कामटे की शहादत ने हर देशभक्त की आंखे नम कर दीं और सम्मान से सर झुका दिया। अगर इन्हें शहादत के बावजूद सेकुलरों के शक और आघातों का शिकार होना है तो कोई भला क्यों सुरक्षा बलों में जाएगा ? पुलिस ही हों , किसी भी क्षेत्र में नौकरी के साथ-साथ प्रतिष्ठा का भी महत्व होता है।

सेकुलर तत्व नक्सली-माओवादियों के मानवाधिकारों के लिए तो आवाज़ उठाते हैं , पर कभी उन्होंने ‘ कम वेतन और अधिकतम जोखिम ’ की जिन्दगी जीने वाले पुलिसकर्मियों के मानवाधिकारों को कोई महत्व नहीं दिया । क्यो ? इस सेकुलर तंत्र में भारत में सुरक्षाकर्मी सर्वाधिक आहत और अपमानित हुए हैं। फलतः जिहादी बर्बरता क्यों न फले-फूलेगी ? 13 दिसंबर के हमले में शहीद सुरक्षाकर्मियों के परिवारजन ने वीरता के अलंकरण सरकार को लौटा दिए , अफजल की फांसी टालने के मामले पर सरकार कठघरे में खड़ी हुई , कांची के शंकराचार्य को दीवाली की रात गिरफ्तार किया गया , केरल के मजिस्ट्रेट का दिल्ली के इमाम के खिलाफ गैर जमानती वारंट तामील नहीं किया गया , कृष्ण जन्माष्टमी के दिन कंधमाल में स्वामी लक्ष्मणानंद जी की हत्या की गयी , जम्मू के रघुनाथ मंदिर , काशी के संकटमोचन मंदिर तथा गांधीनगर के अक्षरधाम मंदिर पर आतंकवादी जिहादी हमले हुए , फिर भी सरकार वे सेकुलरों की सहानुभूति कभी हिन्दुओं को नहीं मिली।

अब समय है कि देश जिहादी आक्रमण के विरूद्ध एकजुट स्वर में बोले। हमारे देवता और विचारधाराएं भारत से बड़ी नहीं हो सकतीं। सेकुलरवाद का हिन्दू विरोधी चरित्र राष्ट्रीय एकता और सुरक्षा के लिए घातक है। आतंकवाद के विरुद्ध मुंबई धमाके राष्ट्रीय एकता का भाव जाग्रत करने वाले सिद्ध होने चाहिए।

चुनाव के अंधेरे में उपजते हथियार

चुनाव के अंधेरे में उपजते हथियार
20 Nov 2008

अदालत में दिए गए साध्वी प्रज्ञा के बयान ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। क्या एक महिला होने के नाते साध्वी प्रज्ञा को पुलिस हिरासत में अपने सम्मान की सुरक्षा का कोई अधिकार नहीं था। जेल में साध्वी पर भीषण अत्याचार किए गए। उनसे पूछा गया कि ‘‘ क्या वे कुंवारी ‘ हैं ?’’ उन्हें पीटा गया। उनके पांव , तलवे , हथेलियों व तलवों पर चोटें दी गईं। उन्हें नारको टेस्ट से गुजारा गया। साध्वी ने अपने बयान में कहा कि कई बार उनके मन में आया कि वे आत्महत्या कर लें।

इस घटना पर राष्ट्रीय महिला आयोग चुप रहा। यह वही महिला आयोग है जो राखी सावंत जैसी आइटम गर्ल के लिए तुरंत सक्रिय हुआ था। राखी सावंत के साथ महिला आयोग की अधिकारियों ने फोटो खिंचवाई थी और इन सबसे आइटम गर्ल का काम - काज ही बढ़ा।

कश्मीर में आशिया अंदरावी कट्टर इस्लामी संगठन दुख्तराने मिल्लत की अध्यक्ष हैं। उन पर अमेरिका ने आरोप लगाया था कि श्रीनगर के एक बम धमाके में उनके संगठन का हाथ था। जिसमें एक पत्रकार मारा गया था। भारतीय गुप्तचर एजंसियों ने उन पर हवाला से पैसा लेकर जिहादी आतंकवादियों को देने का आरोप लगाया और पोटा के अंतर्गत जेल में डाला। देश के खिलाफ और आतंकवादियों के समर्थन में काम करने वाली इस महिला को जेल में सब सुविधाएं दी गईं और बाद में छोड़ भी दिया गया।

साध्वी प्रज्ञा पर अभी तक कोई भी आरोप सिद्ध नहीं हुआ है। वह देश के खिलाफ काम नहीं करतीं। साध्वी धार्मिक महिला हैं। फिर भी उन पर इतना अत्याचार क्यों ?

हिन्दू समाज स्वभावतः कभी धर्म के आधार पर आतंकवाद करने वाली गतिविधियों का समर्थन नहीं कर सकता। नाथू राम गोडसे ने हिन्दू समाज का जितना अहित किया उसका कोई लेखा - जोखा नहीं कर सका है। पर गांधी विश्व वन्द्यः माने गए , आज वे दुनिया में भारत की श्रेष्ठतम पहचान हैं और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लाखों स्वयंसेवक प्रतिदिन पढ़े जाने वाले प्रातः स्मरण में सुबह गांधी जी का नाम लेते हैं। जिन इस्लामी देशों में आतंकवाद पनप रहा है वहां की दुर्दशा हिन्दू समाज देखता व समझता है। आज दुनिया भर में हिन्दू उद्योग , व्यापार , प्रौद्योगिकी विज्ञान कम्यूटर इंजीनियरिंग आदि क्षेत्रों में शिखर पर दिखते हैं।


यह विचार स्वातंत्र्य , सर्व पंथ समभाव , मैत्री व
करूणा के स्वभाव से पैदा वातावरण में ही संभव हो सकता था। अजीम प्रेम जी व शाहरुख खान भी अगर शिखर पर हैं तो उसका कारण बहुसंख्यक हिन्दुओं के औदार्य और सर्वसमावेशी सभ्यता के प्रवाह से पैदा वातावरण है। जहां उपासना पद्धति के आधार पर भेदभाव मान्य नहीं। पाकिस्तान जैसे कट्टरपंथी आतंकवाद समर्थक समाज में अब्दुल कादिर खान जैसे ही लोग हो सकते हैं जिन पर परमाणु चोरी का आरोप लगता है। इस्लामी देश सद्दाम हुसैन जैसे तानाशाह , सऊदी शाह जैसे विलासी या ओसामा जैसे आतंकवादी ही पैदा कर रहे हैं।

लेकिन जब चारों ओर से हिन्दू निराश और हताश होकर कोने में धकेला हुआ महसूस करने लगे और पिछले 3 दशकों में हो रहे जिहादी हमलों के साथ - साथ सेकुलर मीडिया और सरकार के एक तरफा द्वेषपूर्ण हमले भी जुड़ जाएं तो यह बहुत अस्वाभाविक नहीं माना जाना चाहिए कि कुछ ऐसे योजक तो जरूर पैदा होंगे जो अपने समाज की रक्षा के लिए प्रतिक्रिया में विस्फोटक काम कर बैठें। जब तक सेकुलर और जिहादी अन्याय व अंधा दमन हिन्दुओं पर होगा तब तक ऐसे तत्वों को रोका जाना असंभव है। समाज के इन तत्वों पर किसी संगठन का अंकुश नहीं रहता। ‘ ए वेडनस्डे ’ फिल्म में नसीरुद्दीन शाह कानूनी काम नहीं करते , पर जनता और देशभक्त पुलिसकर्मियों की सहानुभूति जरूर हासिल कर लेते हैं। क्यों ? असफल सरकार जनता को कानून हाथ में लेने पर बाध्य करती है।

गृह मंत्रालय के सूत्रों के अनुसार कश्मीर घाटी से कोयम्बटूर तक इस्लामी जिहादियों के विभिन्न हमलों में 60,000 से अधिक भारतीय मारे गए जिनमें से अंधिकांशतः हिन्दू थे। राजौरी , पुंछ व डोडा जैसे इलाकों में बसों से यात्रियों को उतारकर हिन्दुओं को अलग खड़ा होने के लिए कहा गया फिर उन्हें गोली मार दी गई। घाटी से 3,50,000 से अधिक हिन्दुओं को बेघर होकर अपने ही देश के शरणार्थी बनने पर विवश किया गया। घर बाग - बगीचे छोड़कर अपने परिवार की स्त्रियों की इज्जत गंवाकर ढाई - ढाई साल के बच्चों को जिहादियों द्वारा अपनी आंखों के सामने मारे जाते देखने के बाद शरणार्थी बनना क्या होता है यह सिर्फ शरणार्थी बनकर ही समझा जा सकता है। मामला यही तक नहीं थमा। रघुनाथ मंदिर , संकट मोचन मंदिर , अक्षरधाम मंदिर जैसे भयानक विस्फोट भी हुए और फिर जयपुर , दिल्ली इत्यादि के बम धमाके।


इस जिहाद के स्पष्टतः घोषित तौर पर हिन्दू केन्द्रित आघातों के बावजूद पिछले 30 वर्षों के एक तरफा जिहादी युद्ध की प्रतिक्रिया में एक भी हिन्दू आतंकवादी पैदा नहीं हुआ जो यह कहता कि इन कायर और मतांध जिहादियों को हम अपनी ताकत से ठीक करेंगे। इसका एक कारण यह भी है कि हिन्दू भारत को सिर्फ नदियों , पहाड़ों व नागरिकों का समुच्च नहीं। बल्कि साक्षात जगत जननी माता मानकर इस देश पर और यहां की जमीन पर अपना स्वाभाविक अधिकार मानता है। वह आमने - सामने की उस लड़ाई में धर्म से लड़ते हुए तो विजय प्राप्त कर सकता है जैसे 16 दिसंबर 1971 में ढाका में या कारगिल युद्ध जीतकर उसने दिखा दिया। लेकिन उसका स्वभाव उस जिहादी या नक्सली युद्ध को वीरता नहीं मानता जो यहां विदेशों से आयातित हुआ है। इस सैन्य परंपरा के वीरभाव में हर देशभक्त मुसलमान , ईसाई व सिख भी शामिल है। रात के अंधेरे में दरवाजा खुलवाकर निर्दोष स्त्रियों और बच्चों को मारना और फिर उसे धर्म की विजय घोषित करना भारत के स्वभाव का कभी हिस्सा नहीं रहा। वह भगत सिंह की परंपरा का समर्थक है जिसने आतंकवाद का सहारा नहीं लिया था बल्कि विदेशी जुल्मी विचारधारा के अन्याय के खिलाफ युद्ध घोषित कर सैन्य कार्यवाही द्वारा मारे जाने की अपील की थी। वह भागा नहीं। उसने बचने की कोशिश नहीं की।

केवल चुनावी वोट बैंक संतुलन और जिहादी तुष्टीकरण के लिए वर्तमान सरकार ने इस हजारों साल पुरानी परंपरा पर हिन्दू आतंकवाद शब्द प्रचलित कर धब्बा लगाने की जो कोशिश की है वह अक्षम्य और गर्हित है। सेकुलर वर्ग अपनी चुनावी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए इस हद तक गिर जाएगा यह अभी तक उस हिन्दू के लिए अकल्पनीय था , जिसने जन्म से मृत्यु तक के कर्मकाण्ड वाले मंत्रों में ‘ सर्व भवन्तु सुखिनः ’ और ‘ सर्व मंगल मांगल्ये ’ की कामना कर स्वयं को पृथ्वी पर सबसे विशिष्ट जीवन पद्धति सिद्ध किया। जो यह मानकर चलता है कि कोई भी , किसी भी पथ का अनुगामी होकर अपने ईश्वर को प्राप्त कर सकता है। यही विश्वास हमें सामी पंथों से भिन्न और विशिष्ट बनाता है।

जिन जिहादी संगठनों ने हजारों स्वदेशी बांधवों को कुरान की आयतें उद्धृत करते हुए तथा अपने संगठनों के नाम ‘ लश्कर ए तैयबा ’, ‘ जैश ए मोहम्मद ’ और ‘ हिज्बुल मुजाहिदीन ’ रखते हुए मार डाला उनके बारे में उल्लेख करते समय सेकुलर मीडिया व सरकार कहती है कि इन्हें इस्लामी आतंकवादी मत कहो। लेकिन सेकुलर मीडिया व सरकार इतनी गहनता से हिन्दू विद्वेष रखती है कि एक साध्वी की गिरफ्तारी होते ही बहुत उत्साह व उत्सवी उद्वेग के साथ ‘ हिन्दू आतंकवादी ’, ‘ भगवा जिहादी ’, ‘ सेफरेन टेररिज़म ’ जैसे शब्द शीर्षकों से लेकर समाचार कथ्यों और संपादकीयों तक इस्तेमाल किए गए , फलस्वरूप आतंकवादियों को तुरंत राहत मिली। क्योंकि जिस समय बाटला हाउस और जामिया के जिहादियों को दिए जा रहे सेकुलर कवच पर जनता में गुस्सा फैल रहा था , गुवाहाटी से लेकर कश्मीर तक हो रहे बम विस्फोटों से केन्द्र सरकार और उसका बहादुर गृहमंत्रालय , हिन्दू संगठनों एवं केसरिया पार्टियों के तीव्र निशाने पर आह्त हो रहा था , उस समय अचानक सरकार ‘ हिन्दू आतंकवादियों ’ के खिलाफ रण में उतर आने की बहादुरी दिखाने लगी तो बाकी सारे मामले सुर्खियों से गायब हो गए।

हुआ क्या ? बिना कोई सिद्ध किए जा सकने वाले प्रमाण के बावजूद एक हिन्दू संन्यासिनी की गिरफ्तारी की जाती है , जम्मू के एक अन्य संन्यासी को पुलिस के निशाने पर लिया जाता है , बीजेपी नेताओं के निर्दोष चित्रों को अपराध कर्म में लिप्त प्रमाण के रूप में छापा जाता है और एक भी प्रमाण दिए बिना हिन्दू संगठनों पर प्रतिबंध की आवाजें उठाई जाती हैं तो परिणाम स्वरूप सरकार को लगता है कि उसने एक ही साथ आक्रामक हिन्दू परिवार को रक्षात्मक बनाकर आरोप लगाने की स्थिति से स्पष्टीकरण देने वाली स्थिति में ला खड़ा किया है। जिहादी हमलों की खबरें भी चर्चा से बाहर हो गयीं।

चुनाव सिर पर हों , सरकार आतंकवादी हमलों से त्रस्त हो , चारों ओर सरकार पर शहीद मोहन चन्द शर्मा जैसे पुलिस अधिकारियों के अपमान के तीव्र आरोप लग रहे हों ऐसी स्थिति में डूबते को जहाज के सहारे के समान ‘ हिन्दू आतंकवाद ’ का शोशा हाथ में लग जाए तो रक्षात्मक सरकार के लिए इससे बढ़कर और क्या सहारा हो सकता है ?
साध्वी प्रज्ञा नारको परीक्षा में भी निर्दोष निकली हैं। आम हिन्दुओं में साध्वी के लिए उपजा सम्मान व समर्थन उन सेकुलरों के लिए खतरे की घंटी है जो जिहादी तुष्टीकरण व वोट बैंक के लिए हिन्दुओं को अपना स्वभाव बदलने पर विवश कर रहे हैं। अंधेरे की लड़ाई अंधेरे से नहीं लड़ी जा सकती। हिन्दुओं पर आतंकवादी लेबल चिपकाकर सिर्फ ओसामा बिन लादेन की मदद हो सकती है भारत की रक्षा नहीं।

राज ठाकरे और अफज़ल में कोई फर्क नहीं

राज ठाकरे और अफज़ल में कोई फर्क नहीं
30 Oct 2008

भारत अपना पता भूल
गया है। हर कोई अपने मोहल्ले , जाति और मजहब को ही अपना देश मान बैठा है और जो वास्तविक देश है , जो हमारी राष्ट्रीयता , पहचान और अस्तित्व का आधार है , जिसके कारण हमारा मोहल्ला , जाति या मजहब सुरक्षित रहते हैं , फलते - फूलते हैं , उस देश को भूलकर हम अपने मोहल्ले , जाति , मजहब को बढ़ाने में जुट गए हैं। देश सिकुड़ता जा रहा है और हमारे छोटेपन के झंडे बड़े होते जा रहे हैं। मुझे तब तक इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि मैं जिस हिन्दुत्व पक्ष का अनुगामी हू ¡ उसका कोई प्रबल विरोधी है या नहीं , जब तक कि वह भारत का और भारतीयता के तिरंगे को मजबूत बनाने में जुटा रहे और मोहल्ले जाति व मजहब की सेवा करते हुए भी देश को धिक्कारने वाला न बने।

आज ठीक इसका उलट हो रहा है। राज ठाकरे से लेकर जावेद अख्तर तक अपने - अपने मोहल्लों को देश मानने की भूल कर बैठे हैं। राज ठाकरे उसी कांग्रेस द्वारा बढ़ाए गए हैं , जिसने कभी भिंडरावाला को बढ़ाया था। उस समय भी चुनाव जीतना था और आज भी। कसरत चुनाव जीतने की है। जिस तरह से लोगों में वैमनस्य और हिंसक विद्वेष भड़का दिया गया है , वह न कांग्रेस को लाभ देगा न देश को। मगर सामाजिक समरसता का भाव इससे भस्म हो जाएगा।

राज ठाकरे को , महाराष्ट्र के लोगों द्वारा ही अस्वीकार कर दिया जाना चाहिए। वह हर उस तत्व , विचार और गौरव के विरूद्ध है , जिससे महाराष्ट्र परिभाषित होता आया है। अगर अफजल को संसद पर हमला करने के आरोप में फांसी की सजा सुनाई गई तो राज ठाकरे भी राष्ट्रीय एकता पर हमला करने के आरोप में अफजल से कम गुनहगार नहीं माने जाने चाहिए। पर जब शिखंडियों के हाथ में राजनीति हो तो राज ठाकरे पर लगाम कौन कसेगा ? राजस्थान के कवि जागेश्वर गर्ग की ये पंक्तियां आज के माहौल पर सटीक टिप्पणी करती हैं -

मौन शंकर , मौन चंडी , देश में
हो रहे हावी शिखण्डी देश में
अपना बौनापन छुपाने के लिए
बो रहे हैं वो अरण्डी देश में
भाव की पर्ची लगी हर भाल पर
हर गली , बाज़ार - मण्डी देश में

इसी रेखा में जावेद अख्तर भी जुड़ गए ह
ैं। ये भी ठीक और वो भी ठीक कहने में दोनों गलत हो जाते हैं। हर रंग और सरकार से पुरस्कार बटोरने के बाद अब उन्हें लगने लगा है कि भारत में मुसलमानों के साथ न्याय नहीं होता। उन्होंने हाल ही में एक साक्षात्कार दिया है , जिसमें उनके द्वारा कहे गए कुछ वाक्य वास्तव में अभी तक यह सब न जानने वाले मुसलमानों के लिए काफी चौंकाने वाली ` ब्रेकिंग न्यूज ´ होगी। वे कहते हैं कि निश्चित रूप से मुसलमान प्रशासन और कानून लागू करने वाली एजेंसियों से खुद को जुदा महसूस कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि उनके खिलाफ एक पूर्वाग्रह है। जब भी वे मारे जाते हैं , उनसे बलात्कार होता है , या उन्हें जिंदा जला दिया जाता है या उनकी सम्पति नष्ट कर दी जाती है तो इसके बाद उन्हें सिर्फ एक ऐसा आयोग मिलता है जो इन मामलों पर बरसों बैठा रहता है और अंतत : एक रपट थमा देता है।

रपट में कुछ लोगों को दोषी ठहराया जाता होगा। लेकिन अंतत : वह कूड़ेदान में ही पहुंचती है। वे इस बात से बहुत खफा थे कि एक टीवी चैनल पर उद्घोषक ने किसी अतिथि वक्ता से पूछा कि ' क्या ऐसा वक्त नहीं आ गया है जब मुसलमानों को आत्ममंथन करना चाहिए ?' जावेद अख्तर साहब ने कहा कि इस सवाल से संकेत मिलता है कि आतंकवादी कार्यवाहियों के लिए मुस्लिम समाज ही जिम्मेदार है। जब कनॉट प्लेस में बम विस्फोट हुआ और बेगुनाह लोग मारे गए , या डोडा , किश्तवाड़ और पुंछ में ढाई - ढाई साल के बच्चों सहित स्त्रियों व बूढ़ों को इस्लामी जिहाद का परचम लहराने वालों ने बेरहमी से मारा तो जावेद साहब कुछ नहीं बोले।

शायद इसलिए कि उन्हें लगता होगा कि अपनी कौम की पहचान बताने पर शबाना और जावेद जैसी शख्सियतों को जब मुंबई जैसे सेकुलर शहर तक में मकान नहीं मिलता तो इससे गुस्सा तो उपजेगा ही और वह गुस्सा अगर विशुद्ध इस्लाम की परंपरा के नाम धराने वाले संगठनों में किसी में प्रकट हो तो उस पर चुप रहना ठीक है। बाकी समाज के साथ चलन के लिए बोलना पड़े तो यह जरूरी हो जाता है कि उनके साथ एकाध हिन्दू संगठनों के नाम जरूर जोड़ दिए जाएं , वरना सेकुलर संतुलन खो बैठेगा। प्रमाण न हो तो भी बजरंग दल पर प्रतिबंध की मांग उठाई जाए और ट्रक भरकर प्रमाण मिलें तो भी अफजल की फांसी को माफी में बदलने की मुहिम चलाई जाए। बस इतना भर रह गया है आज सेकुलर होने का अर्थ। इस अन्याय के खिलाफ बोलें तो गांधी सधे।

जावेद भाई अब 47 से पहले की तर्ज पर शिकायतें न करें तो हिन्दुस्तानियत के रिश्ते दरकें नहीं। वरना ऐसे ही लोग हिन्दू पानी और मुस्लिम पानी की जमाते मजबूरन पैदा करते हैं।

' जमा बारूद तुमने रखा है जो मेरी ख़ातिर
उसे अपने - पराये की नहीं पहचान कुछ होती '

वे जितनी तल्ख और घटिया राजनीति के मुलम्मे
को ओढे बोले हैं वह सिर्फ दहशतगर्दी को ही मुस्कुराहटें दे गया। अगर वे हिन्दुस्तानियत से जुडे थे तो दर्द में मजहब की दीवारें क्यों खड़ी करने लगे ? क्या मुस्लिम मां के आंसू का खारापन किसी हिन्दू मां की आंख के आंसू से जुदा होता है ?

ठीक ऐसे माहौल में देश के लाखों गरीबों की बात करने वाला कोई नहीं रहता जो आज भयानक दुर्दशा के शिकार हैं। शोर के बाजार में आम आदमी का दर्द कहीं खो गया है। देश के हर बड़े नगर और महानगर में अथाह गरीबी के अत्यन्त दारूण दृश्य दिखते हैं - फुटपाथों पर जानवरों की तरह सोते और जिन्दगी बिताते लोग , गन्दे नालों , रेल की पटरियों , सार्वजनिक शौचालयों के पीछे टाट के कपड़े बांध ' घर ' बना कर रहते लोग , सार्वजनिक कूड़ेदानों , होटलों के बाहर और रेलगाड़ियों से जूठन व खाद्यकण बटोरते बच्चे व स्त्रियां , रिक्शा , ठेला , चलाकर भरी दुपहरी या घनघोर वर्षा में भी काम करते मजदूर। ये सब भारतीय ही तो हैं। कभी रांची या बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों से पंजाब , हरियाणा , जम्मू जाने वाली रेलगाड़ियां देखी हैं आपने ?

गठरियों में जीने का सामान बांधे वे लोग डिब्बों में ठूंसे हुए और छत पर चढ़े हुए बेहतर जीवन की आस में घर परिवार छोड़कर जाने पर क्यों विवश होते हैं ? अपमान , तिरस्कार , कम पगार और संवेदनहीन प्रशासन युक्त वातावरण में काम करने पर राजी हो जाते हैं - इस बेबसी का कोई आंकलन कर सकता है ? इन राज्यों में जबसे मध्यमवर्ग समृद्ध हुआ है , वहां के सामान्य व छोटे कहे जाने वाले कामों के लिए स्थानीय मजदूर नहीं मिलते। श्रीनगर में देशविरोधी हुर्रियत के नेताओं के घर बनाने के लिए भी बिहार व झारखण्ड से गए मजदूर काम आए थे। यहां तक कि चुशूल तक , ठेठ चीन सीमा पर मैंने स्वयं सड़कों पर काम करते बिहारी श्रमिक देखे हैं।

आधे पेट सोने वाले , भूखे उठकर काम पर जाने वाले , मेहनतकश असंगठित भारतीयों की संख्या बढ़ रही है। इनमें शहरी गरीब और ग्रामीण किसान दोनों सिम्मलित हैं। जिस देश में सरकारी आंकड़ों के अनुसार 70 हजार से अधिक किसान एक साल में निराशा , गरीबी व बदहाली से तंग आकर परिवार सहित आत्महत्याएं करने पर विवश हों , वहां चांद पर उपग्रह छोड़ने या जामिया के आतंकवादी संबंधों पर गुस्से भरी बहसें कितना अर्थ रखती हैं ?

राजनीति और मीडिया में सनसनी और शोर का राज चल रहा है। जो जितना जोर से बोले , वह उतना बड़ा सत्यवान और महारथी जान लिया जाता है। जिन दिनों स्वीकार्य चलन हो कि बिकेगी तो सिर्फ नफरत ही - राष्ट्रीय एकता परिषद से मीडिया तक - तब गांधी का यह वाक्य मन बड़ा संभालता है -' तुम्हारे पास एक है और शैतान के पास करोड़ , तो क्या तुम शैतान से डर जाओ ?' कभी नहीं। ओस की एक बूंद ही रेगिस्तान के अथाह विस्तार को चुनौती दे जाती है - जितनी देर जिएगी , जिएगी , पर सारी रेत उस एक बूंद का सामना कर सकी है कभी ?

प्रांतीयता , जातिवाद और मजहबी संकीर्णता के विरूद्ध खड़ा होना ही आज भारत के खोए हुए पते को वापिस ढूंढ़ लाने जैसा होगा। क्या आप तैयार हैं ?

हिन्दू क्यों बदल रहे हैं?

हिन्दू क्यों बदल रहे हैं?
15 Oct 2008

क्या भारत के ईसाइयों के लिए यह उचित था कि वे उस स्थिति में, जबकि देश में एक ईसाई नेता के नेतृत्व में बहुसंख्यक हिन्दुओं ने सत्ता राजनीति को स्वीकार किया है, विदेशी ईसाई सरकारों से अपनी ही सरकार को डपटवाकर खुश होते? पश्चिमी देशों की सरकारों ने सिर्फ ईसाई होने के नाते भारत के ईसाइयों के बारे में आवाज उठाई। उसके पीछे सिर्फ एक कारण था - वे अपने मजहबी विस्तारवाद को निष्कंटक बनाने के लिए चिन्तित थे। क्या भारत के ईसाइयों को लगता है कि अगर उनके बारे में विदेशी ईसाई सरकारें आवाज उठाती हैं तो यह उनके लिए गौरव की बात है और क्या इससे उनकी वेदना दूर हो जाएगी?

जिन हिन्दुओं ने भारत में कभी उपासना पद्धति और संप्रदाय के आधार पर कभी किसी से कोई भेदभाव नहीं किया, जिन्होंने ईसाई, मुस्लिम, पारसी, यहूदी आदि सभी बाहर से आने वाले मजहबों को यहां फलने-फूलने दिया और अरब, तुर्क, मुगल, ईसाई, ब्रिटिश और पुर्तगालियों के बर्बर हमलों के बावजूद उनके मजहबी उत्तराधिकारियों से कभी घृणा नहीं की, बल्कि राष्ट्रपति, गृहमंत्री, गृहसचिव, कैबिनेट सचिव, वायु सेना अध्यक्ष, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, विदेश सचिव जैसे पदों पर ही नहीं बल्कि मीडिया, फिल्म और खेल जगत में मजहबी भेद भूलकर मुस्लिम और ईसाइयों को दिल से स्थापित होने के रास्ते खोले, उन्हें सम्मानित किया तथा उनके प्रशंसक और अनुयायी बनने में कोई संकोच नहीं किया, ऐसे हिन्दू से मित्रता और उनकी भावनाओं का सम्मान करने के बजाय उनकी संख्या कम करने के लिए विदेशी मदद लेना क्या दर्शाता है?

जब सर्वपंथ समभावी हिन्दू कट्टर जिहादी मुस्लिमों और देश तोड़ने वाले आक्रामक ईसाइयों की नफरत का शिकार बनाए जाते हैं तो हिन्दुओं की सदाशयता और उदार हृदयता में अपराधी कायरता दिखने लगती है। वे सोचते हैं संभवतः इस सेकुलर धर्मिता के आवरण में उनकी सर्वपंथ समभाव की भावना को तिरस्कृत किया जा रहा है। तब उनका क्रोध सीमा उल्लंघन करना ही उचित मानता है।

यह वह हिन्दू है जो उन श्रीराम की उपासना करता है, जिन्होंने पहले शत्रु को समझाने की बहुत कोशिश की, लेकिन जब वह नहीं माना तो फिर उसके संहार के लिए जनशक्ति का एकत्रीकरण कर विजय प्राप्त की।

राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक मजहबी ध्रुवीकरण में बंटी दिखी जिसमें सेकुलर कहे जाने वाले दलों ने आतंकवाद के विरूद्ध एकजुट सामूहिक अभियान का वातावरण बनाने के बजाए उन तत्वों के संरक्षण का परचम निर्लज्जता से लहराया जो भारत के खिलाफ युद्ध के अपराधी हैं। किसी भी सेकुलर नेता ने हिन्दू और मुस्लिमों की सांझी लड़ाई की बात नहीं की। बल्कि छोटे-छोटे मुद्दों पर अखबारों में सुर्खियां हासिल करने का बचपना दिखाने की कोशिश में वे एकता परिषद को सिमी और बजरंग दल के दो पालों में ध्रुवीकृत कर गए। राष्ट्रीय एकता परिषद का उद्देश्य सब लोगों को साथ में लेकर राष्ट्र हित में एक ऐसा वातावरण सृजित करना कहा जाता है, जो घृणा, विद्वेष तथा राजनीतिक अस्पृश्यता से परे हो। लेकिन हुआ ठीक वही जो अपेक्षित नहीं था।

वास्तविकता में स्वयं को सेकुलर कहने वालों का हिन्दू विद्वेष देश में भयानक मजहबी ध्रुवीकरण पैदा कर रहा है, जो विभाजन पूर्व की राजनीति का कटु यथार्थ स्मरण दिलाता है।

कहीं भी किसी भारतीय पर कोई आघात हो तो उसके विरूद्ध राज्य, राजनीति और प्रजा के चिंतकों का सामूहिक उद्वेलन और प्रतिरोध सर्वपंथ समभाव पर आधारित सेकुलरवाद का स्वाभाविक चरित्र होना चाहिए। लेकिन जिस प्रकार आज सेकुलरवाद का व्यवहार किया जा रहा है, वह केवल अहिन्दुओं के प्रति ही संवेदनशील है। इस बारे में असम का उदाहरण ताजा है।

असम के दारंग और होजाई क्षेत्रों में इन दिनों भयंकर हिंसा चल रही है। 60,000 से अधिक लोग सरकारी शिविरों में शरण लेने के लिए बाध्य हो गए हैं। बोडो हिन्दू जनजातियों के 40 गांव जला दिए गए हैं। उदालगुडी के पास एक गांव के प्रमुख (गांव बूढ़ा) उनकी मां और बहन को मुस्लिमों ने जिंदा जला दिया। 40 से अधिक जनजातीय बोडो हिन्दुओं की हत्या की जा चुकी है। लेकिन दिल्ली में इस बारे में शायद ही कोई आवाज उठी। गांव उजड़ गए, परिवार जिंदा जला दिए गए, फिर भी राजनीति और सेकुलर मीडिया में सन्नाटा छाया रहा। क्या इसकी वजह यह है कि जिनके गांव ध्वस्त हुए और जो जिंदा जलाए गए, वे हिन्दू थे? कंधमाल पर हमने केवल एक मजहब की पीड़ा पर वैटिकन से वॉशिंगटन और पैरिस तक शोर सुना। सवाल है कि हिन्दुओं की वेदना पर कौन बोलेगा?

आक्रामक ईसाई नेता इस बात का विरोध करते हैं कि वे अंग्रेजों या पुर्तगालियों के साए तले भारत में ईसाइयत का प्रचार करने आए। लेकिन सच यही है। हाल ही में मुझे एक पुस्तक पढ़ने को मिली जिसका विषय राजस्थान में ईसाई मिशन का विस्तार था। यह पुस्तक ईसाई मिशन के प्रति अत्यंत सहानुभूति रखते हुए उनके प्रति आत्मीय प्रशंसा भाव के साथ राजस्थान विश्वविद्यालय के प्रो. श्यामलाल ने लिखी है और विश्वविद्यालय के तत्कालीन उपकुलपति श्री हरि मोहन माथुर ने इस पुस्तक को एक महत्वपूर्ण शोध बताकर इसके पठन-पाठन हेतु संस्तुति की है।

पुस्तक के लेखक ने अनेक चर्चों और मिशन के कार्य से जुड़े ईसाई जनजातीय व्यक्तियों एवं चर्च अधिकारियों के प्रति हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त की है। इसमें उदयपुर क्षेत्र में प्रसिद्ध भील जनजातीय स्वातंत्र्य आंदोलन के नेता गोविंद गुरू के 1,500 से अधिक भील अनुयायियों के मानगढ़ की पहाड़ी पर किए गए नरसंहार का विवरण है। यह नरसंहार मेजर हैमिलटन के नेतृत्व में किया गया था। भीलों के पास केवल तीर धनुष थे और ब्रिटिश मेजर हैमिल्टन की फौज के पास बंदूकें थीं। उस रात 1500 से अधिक भील हैमिल्टन की फौज ने मारे। इसे राजस्थान का जलियांवाला बाग कहा जाता है।

इस हत्याकांड के बाद मेजर हैमिल्टन ने नीमच स्थित प्रैसबिटेरियन मिशन के पादरी रेवरेन्ड डी. जी. कॉक को चिट्ठी लिखकर भील जनजातियों के बीच चर्च स्थापित करवाया। अर्थात् पहले हिन्दू जनजातियों का नरसंहार कर उनमें भय और आतंक पैदा किया, उसके बाद चर्च की स्थापना कर उनका धर्म समाप्त करने का अभियान छेड़ा। अस्पताल, स्कूल इत्यादि ईसाई विस्तारवादी अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करने के साधन हैं, केवल सेवा के निर्मल उद्देश्य से प्रारंभ किए जाने वाले कार्य नहीं। यदि ऐसा होता तो देश के 2500 ईसाई विद्यालय, जिनमें ज्यादातर हिन्दू विद्यार्थी ही पढ़ते हैं, केवल ईसाई वेदना पर बंद किए जाने के बजाय आतंकवादियों द्वारा चलाए जा रहे जिहाद के खिलाफ भी कभी बंद किए जाते। परन्तु ऐसा कभी नहीं किया गया। ये आक्रामक ईसाई कभी सामान्य भारतीय के दुख दर्द में शामिल नहीं होते। बल्कि जैसे पहले उन्होंने अंग्रेजों की मदद ली थी वैसे ही आज अमरीका, वैटिकन और फ्रांस जैसे ईसाई देशों की मदद लेने में संकोच नहीं करते।

परन्तु जैसे सारे मुसलमान जिहादी नहीं, वैसे सारे ईसाई आक्रामक या हिन्दुओं के प्रति नफरत रखने वाले नहीं होते। परन्तु जैसे भारत के विरूद्ध उठने वाली हर आवाज का मजहब और भाषा के भेद से परे उठते हुए विरोध किया ही जाता है, उसी तरह से हिन्दू विरोधी सेकुलर आवाजों का विरोध क्यों नहीं किया जाता? एक पत्रिका ने हाल ही में हिन्दुओं की निंदा करने के लिए त्रिशूल के चित्र पर ईसा मसीह को सलीब की तरह टंगा हुआ दिखाया। यह चित्र वस्तुतः हिन्दुओं को उड़ीसा के संदर्भ में बर्बर और आतंकवादी दिखाने के लिए छापा गया। क्या आज तक आपने किसी नागालैण्ड के ईसाई आतंकवादी या इस्लामी जिहादी के हिन्दू विरोधी प्रतीकात्मक चित्र पर हिन्दुओं की मृत्यु का अंकन देखा है? हिन्दू के विरूद्ध यह एकांतिक और अन्यायपूर्ण सेकुलर हमला उन्हें अपने तौर-तरीके और जवाब बदलने पर मजबूर कर रहा है। वे देखते हैं कि बिना प्रमाण के जो लोग बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने की मांग करते हैं, ये वही लोग होते हैं, जो प्रमाण के आधार पर अफजल को दी गई फांसी की सजा माफी में बदलना चाहते हैं और सिमी से प्रतिबंध हटाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में हिन्दू इस सेकुलर तालिबानी हमले के विरूद्ध क्रुद्ध न हों तो क्या करें?

हिन्दू पाखंड से लड़ेंगे तो धर्म बचेगा

हिन्दू पाखंड से लड़ेंगे तो धर्म बचेगा

6 Oct 2008

उड़ीसा में जो कुछ भी ईसाई चर्च और ननों पर आक्रमण के रूप में दिख रहा है उससे वे सामान्य हिन्दू भी दुखी हैं जो अन्यथा ईसाइयों के छल, बल और कपट से किए जाने वाले धर्मान्तरण के विरोध में तीक्ष्ण मत प्रकट करते हैं।

हिन्दू धर्म विश्व में सर्वाधिक शालीन, भद्र, सभ्य और ‘ वसुधैव कुटुम्बकम् ’ की भावना प्रसारित करने वाली जीवन पद्धति है जो किसी संप्रदाय या पंथ से व्याख्यायित नहीं हो सकती। सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपने हिन्दुत्व संबंधी फैसले में स्पष्ट कहा कि हिन्दू धर्म सम्प्रदाय नहीं बल्कि संपूर्ण वैश्विक दृष्टि रखने वाली जीवन पद्धति है। इस जीवन पद्धति के आधुनिक उद्गाता महापुरुषों में स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद सरस्वती, शाहू जी महाराज, लाला लाजपत राय, बालगंगाधर तिलक, श्री अरविंद, महात्मा गांधी, डॉ. हेडगेवार, वीर सावरकर प्रभृति जननायक हुए। उन्होंने उस समय हिन्दू समाज की दुर्बलताओं, असंगठन और पाखण्ड पर चोट की। तेजस्वी-ओजस्वी वीर एवं पराक्रमी हिन्दू को खड़ा करने की कोशिश की।

उन महापुरुषों को आज के नेताओं से छोटा या कम बुद्धिमान नहीं कहा जा सकता। महात्मा गांधी ने दुनिया में एक आदर्श हिन्दू का ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया कि आज सारी दुनिया भारत को महात्मा गांधी के देश के नाम से जानती है। डॉ. हेडगेवार ने भारत के हज़ारों साल के इतिहास में पहली बार क्रांतिधर्मा समाज परिवर्तन की ऐसी प्रचारक परम्परा प्रारम्भ की जिसने देश के मूल चरित्र और स्वभाव की रक्षा हेतु अभूतपूर्व सैन्य भावयुक्त नागरिक शक्ति खड़ी कर दी। इनमें से किसी भी महानायक ने नकारात्मक पद्धति को नहीं चुना। सकारात्मक विचार ही उनकी शक्ति का आधार रहा।

स्वामी दयानंद सरस्वती ने पाखंड खंडनी पताका के माध्यम से हिन्दू समाज को शिथिलता से मुक्त किया और ईसाई पादरियों के पापमय, झूठे प्रचार के आघातों से हिन्दू समाज को बचाते हुए शुद्धि आंदोलन की नींव डाली। जिसके परिणामस्वरूप हिन्दू समाज की रक्षा हो पाई। स्वामी विवेकानंद और स्वामी रामतीर्थ ने विश्वभर में हिन्दू धर्म के श्रेष्ठतम स्वरूप का परिचय देते हुए ईसाई और मुस्लिम आक्रमणों के कारण हतबल दिख रहे हिन्दू समाज में नूतन प्राण का संचार करते हुए समाज का सामूहिक मनोबल बढ़ाया।

विडंबना यह है कि आज हिन्दू समाज अपनी ही दुर्बलताओं और आपसी फूट का शिकार होकर कुंठा और क्रोध की अभिव्यक्ति कर रहा है। उस पर चारों ओर से हमले आज भी जारी है। जिस भारत को अपने हिन्दू होने पर सर्वाधिक गर्व करना चाहिए था, उस भारत को अपने हिन्दुत्व पर शर्म करने के पाठ सिखाए जाने लगे तो इसका सामाजिक तनाव और राजनीतिक ध्रुवीकरण के रूप में जो परिणाम होना था वह हुआ ही।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हिन्दू आग्रह और हिन्दू नवोन्मेष को भारतीय धर्म की सात्विक और सकारात्मक धारा के रूप में मान्य करने के बजाय उसे दो बार प्रतिबंधित किया गया। सेकुलर प्रहार से हिन्दू स्वर साइबेरिया और गुलाग जैसे श्रम शिविरों की स्थिति में धकेल दिया गया है। किसी भी तथाकथित मुख्य धारा के समाचार-पत्र, चैनल या मंच पर उस हिन्दू का स्वर वर्जित और प्रतिबंधित है, जिस हिन्दू स्वर ने केन्द्रित सत्ता में भी आने का जनादेश, का ही सही किंतु प्राप्त कर दिखाया था और जो आज देश के विभिन्न प्रांतों किसी भी सेकुलर राजनीतिक व्यवस्था से ज़्यादा प्रभावी एवं महत्वपूर्ण स्थिति प्राप्त कर चुके हैं।

राजनीति में यह वैचारिक अस्पृश्यता और घृणा जनित आक्रमण हिन्दू को एवं प्रतिशोधक आक्रामकता के तेवर अपनाने की ओर धकेल रहा है। यह न देश के लिए ठीक है न उन सेकुलरों के लिए जिनका स्वर जिहादी घृणा का स्वरूप प्रकट करता है और असंदिग्ध रूप से वह हिन्दू समाज के व्यापक हितों को तो पूरा ही नहीं करता।

हिन्दू बहुसंख्यक देश में 5 लाख हिन्दुओं का शरणार्थी के रूप में निर्वासन पूरे भारत के लिए कलंक और शर्म की बात है। हिन्दुओं का मतांतरण बहुत ही तीव्र गति से जारी है और इसके लिए अमेरिका तथा यूरोप से प्रतिवर्ष अरबों डॉलर चर्च संगठनों को दिए जा रहे हैं। केन्द्रीय सत्ता में एक ऐसे सेक्युलर राजनीतिक गठबंधन का शासन है जो हिन्दू संवेदनाओं पर प्रहार करना अपने सेक्युलर पंथ की पहली पहचान मानता है। इसके राज्य में हिन्दुओं पर हमले बढ़े हैं। हिन्दू संवेदनाओं का अपमान सामान्य राजकीय पद्धति का अंग मान लिया गया है। रामसेतु तोड़ने और राम के अस्तित्व को नकारने जैसी घटनाओं, मज़हब के आधार पर मुस्लिम आरक्षण तथा आतंकवाद के विरूद्ध मुहिम में मुस्लिम तुष्टिकरण के कारण ढिलाई जैसे घटनाक्रमों ने हिन्दू मन को बेहद आहत किया।

यदि वास्तव में हिन्दू संगठनों और राजनीतिक हिन्दू नेताओं की बेहतर साख होती तो हिन्दुओं का क्रोध हिंसक रूप नहीं लेता जैसा कि उड़ीसा और मंगलौर में दिखा। हिन्दुओं के इस रूप की निन्दा कर सेक्युलर भाषा बोलने से भी समाधान नहीं निकलेगा। आज हिन्दुओं को चारों ओर से घेर दिया गया है। हिन्दू संत की हत्या पर न अमेरिका में आवाज उठती है न वेटिकन में और दिल्ली के राजनेता वोट बैंक के भय से सन्नाटा ओढ़े रहते हैं। क्या कोई बता सकता है कि देश भर में हिन्दुओं के कितने विद्यालय कंधमाल में स्वामी जी की हत्या के विरोध में बंद रहे? ईसाइयों ने देशभर के 2500 विद्यालय हिन्दुओं के विरोध में बंद करने का साहस दिखाया जबकि अधिकांश विद्यालयों में हिन्दू विद्यार्थी ही पढ़ते हैं। यानि हिन्दू विद्यार्थियों का इस्तेमाल हिन्दुओं को ही आक्रामक सिद्ध करते हुए उन्हें बदनाम करने के लिए किया गया ।

यह स्थिति हिन्दुओं के असंगठन से पैदा होती है। हिन्दुओं के बड़े नेता प्रभावशाली उद्योगपति और समाज के अग्रणी शिक्षाविद् हिन्दू संवेदना पर चोट के समय खामोश रहते हैं। जब मैं वनवासी कल्याण आश्रम में प्रचारक था तो जिन उद्योगपतियों से 1500 रुपये की सहायता लेने के लिए मुझे 2-2 घंटे उनका कमरे के बाहर प्रतीक्षा करनी पड़ती थी, वही उद्योगपति मदर टेरेसा के घर जाकर लाखों रूपये दे आते थे जबकि वह पैसा हिन्दुओं के धर्मान्तरण के लिए ही खर्च होता था।

अगर हिन्दुओं को भारत वर्ष में अपनी धर्म संस्कृति और सभ्यता बचाने का हक नहीं होगा तो क्या यह काम वह सऊदी अरब में कर सकेंगे? सैकड़ों सालों से भारत में जन्मे पंथों पर विदेशी आक्रमण हुए। इन पंथों में वैदिक सनातनी सिख, जैन, बौद्ध आदि शामिल हैं। परन्तु आज़ादी के बाद इन्हीं पंथों पर जिहादी और ईसाई मतांतरण के आक्रमण बढ़ते गए। क्या हमें अपना धर्म बचाने का हक नहीं? यह हक अपने समाज के भीतर व्याप्त पाखण्ड को दूर करते हुए तथा पंडों, पुजारियों और ऊंची जात का अहंकार रखने वाले लोगों से धर्म को वंचित तथा वनवासी समाज के लिए समान रूप से ले जाने पर ही मिल सकता है।

दुर्गा की पूजा करना और फिर कन्या भ्रूण हत्या करना, देवी से धन, विद्या, शक्ति मांगना फिर दहेज न लाने पर उसी देवी को जलाकर मार डालना तीर्थ और मंदिर गंदे रखना तथा हिन्दू द्वारा ही हिन्दुओं के विरोध में खड़ा होना आज के हिन्दु-समाज की समस्याएं हैं। अगर हम इकट्ठा हो गए तो न जिहाद जीत सकता है और न ही मतांतरण की शक्तियां ।

यही समय की आवश्यकता है न कि चर्च पर हमले।

Thursday, January 29, 2009

जिज्ञासु और विद्रोही संन्यासी थे स्वामी विवेकानंद







युद्ध हथियारों से नहीं मन से जीते जाते है : तरुण विजय


जनता नहीं, नेता दोषी : विजय


हिंदू दर्शन के साक्षात् प्रतिमूर्ति थे विवेकानंद : तरुण विजय




Stone in stilled waters

Published on :- Times Of India.com
16 January, 2009

The world is fast changing. And so are we. Narendra Modi being endorsed and hailed by India Inc is stuff proverbs are made of. What a carnival of
investment flow and future glow Gujarat saw during the Makar Sankranti festival, a day of transition when Shiva wakes up after a long night and the weather changes. Modi turned it into an occasion for the Vibrant Gujarat summit and his sparkles bedazzled the nation. He will have all the virtues and vices of a winner. He has become more popular and credible than the present Prime Minister. A precarious milestone indeed. He has earned his place in history but will he be able to balance and cool off to take stock and walk with his tribe to earn extra miles? Whatever happens to him, it's incumbent upon his mentors to help him handle criticism and stay afloat. There is not much time left. It depends on the Right movement to use this opportunity created by his persona to consolidate and expand wings.

A number of RSS swayamsewaks have made the most extraordinary economic and developmental history in post-partition India. Turning villages into reservoirs of wealth and wisdom, that's Nanaji Deshmukh; rekindling the fire of spiritual nationalism atop Shripad Shila in Kanyakumari, that was Eknath Ranade, who sent hundreds of young men and women to the northeast spreading education and empowerment to earn; shaping a gigantic labour movement, that was Datto Pant Thengadi, the creator of India's largest labour organization, Bharatiya Mazdoor Sangh; and the creation of students' saffron power in the shape of ABVP, that was Yashwantrao Kelkar. In later years, we had a most talked about and praised Prime Minister Atal Bihari Vajpayee – with superhighways, telecom revolution and high growth rate.

That's India, not necessarily a political one, yet invincible and walking with the times, weaving a future that makes us all glow with hope. And should it matter if a couple of them belong to different parties? Shouldn't any Indian of any hue charting new a growth channel make us raise our hands and say "bravo, move ahead"? That's what I call as a Deendayal spirit. Whoever runs for India must get our salute.

Team India has rulers like Shiv Raj Singh Chauhan and Raman Singh. Both fought anti-incumbency and won. Young, decent (unlike most politicians) and deliverers. We have Nitish and Gehlot, who surprisingly enjoy good a reputation among their worst rivals. I wish political parties decided to put up new and young faces for the Lok Sabha elections.

Hence I welcome Omar's ascendancy in Srinagar. He is more transparent and candid and acceptable than Congress and PDP put together. At 38, he finds the company of the likes of Sachin Pilot, his brother-in-law, and Jyotiraditya Scindia. It makes for a terrific tribe. When I say "welcome Omar", it's not because we share the zodiac sign or I have converted, but because I want a rival who will equal my standards of ideological battle. He doesn't hide what he is. Better than those who wear a mask for every occasion.

Omar belongs to the future of India. Trust him, even if he chose to speak as a "Muslim" in the Lok Sabha and opposed land to Amarnath yatris.

India is a bigger issue than a plot of land, which eventually we won through our strength and increased our number power 11 times. I believe the entire India is a replica of Amarnath. Just have the guts to assert.

You may have different expectations from them. I would like Omar to end terrorism and religious bigotry enveloped in divisive demands and ensure safe and honourable return of the Hindus to the valley.

When I look around, I find exciting new, powerful faces running and shaping the globe. Putin remains my all-time favourite, with Obama in Washington, Hu in Beijing, Chavez in Venezuala and Lulla in Brazil. We may have a thousand issues to settle with China. So what? How those who preceded out generation dealt with these issues? The creators of a new Indian order will certainly do it better. Have power, will win.
That's the key to success. India is struggling hard, is bleeding and yet showing winner's traits. This inner strength is essentially the civilizational gift, which runs into our veins. Call it Hindu or anything else. It is the defining life force of all of us. Those who defy, like the seculars, may rule this land of the pious for some time but would evaporate in ignominy like many small-time operators in the past.

Eliminating terrorism ruthlessly, recapturing land lost to the enemy neighbours, rejuvenating the economy and infusing new blood into our educational and agricultural sector are the new markers of our unstoppable journey to power-peak. Jealousy, fratricide, pocketing mediamen to kill brothers in arms, stored moneybags have never helped, will never help, in the long run. They die double death. Those who have the courage and conviction to stand on the burning deck like Casabianca and fight their own flesh and blood like Arjuna alone win the earth.

Oh! Asin

Published on :- Times Of India.com
6 January, 2009

I was about to title this column "Ghaznis in Kathmandu". The holiest shrine of the Hindus, the Shiva temple of Lord Pashupatinath in the former
Hindu state of Nepal was stormed and desecrated. The chief priest was manhandled and forced to resign just because he happened to be of Indian origin.

In Nepal, there was a time when any sense of belonging to India brought glory and respect. Now, anyone with an Indian tag is insulted and humiliated. And look who is directing this hooliganism? Mr Pushpa Kamal Dahal alias Prachanda, the darling of South Block who got a red-carpet welcome from the Hindus of the right, left and centre varieties. People in Delhi who know that he "butchered" 15,000 Nepalese Hindus in the last decade of his Maoist revolution were dying to have a handshake with him. We are like this only.

So the "butcher" got all the accolades, spoke sweet one-liners, like "our relations are Ayodhya-to-Janakpur-Dham-kind, cordial and civilizational", meaning Ram (Ayodhya)-Sita (Janakpur) bonds exist between India and Nepal. Wow!

And then he smiled in his Kathmandu office. Being the patron of the Pashupatinath Temple board by virtue of his post, he ordered that the chief priest must be of Nepali origin. His army of rogues, Young Communist league, stormed the temple, broke open its main gates, humiliated the chief priest, anointed the newly brought Mr Bishnu Dahal as chief priest, and hurrah! A revolution had just begun!

It's been three days since puja was conducted at the age-old temple, which has been synonymous with the identity of Nepal. Three gates out of four have been closed. I spoke to the ousted chief priest, Mahabaleshwar Bhatt. He seemed to be terrified in his home as if under house arrest. "No sir, " he said, "I have resigned on my own, I was not feeling physically fit to perform the onerous duties of chief priest. Everything will be right, I am sure, I trust in Shiva." And he hung up. Then I spoke to the Kanchi Shankaracharya. He was sad and anguished. He said that if a new priest had to be appointed, care should have been taken not to disrupt the puja and the new priest should have been well versed in performing the duties in the service of the lord.

Hindus of this Hindustan couldn't save the honour of our revered Shankaracharya. How can we expect them to save the honour of Pashupatinath in the neighbouring country?

The media and the channels sought to play down the episode. Just imagine, if the atheist Communists had stormed the Vatican or if Mecca was sought to be cleansed of "alien elements" by the anti-Saudi king elements, what would have been the reaction the world over?

This has happened in Nepal in spite of a Supreme Court stay against changing the priest. When the World Hindu Federation (Vishwa Hindu Mahasangh) people tried to hold a press conference in protest, it was attacked by the same Young Communist League elements. It was left to Rajnath Singh, BJP president, to speak to the president and the prime minister of Nepal conveying deep anguish of Hindus over the storming of the Pashupatinath Temple. But there are other Hindus too and they have a right to ask the PM and the super PM why they were silent. Would they have ignored an assault on a dilapidated mosque in Nepal? Or, to refresh everyone's memory, would they have remained silent if something of a similar nature had happened to non-Hindus in Denmark?

So I turned to Ghajini, the inexplicable name of a person whose last name is Dharmatma. The film is a beautiful remake of Memento. The hero, Sanjay, played by Aamir Khan, is deeply hurt and anguished because Ghajini Dharmatma, the bad, ugly villain, kills his beloved, Kalpana, played by a sparklingly charming Asin. And he takes revenge in a decisive manner, though he suffers from short-term memory loss, medically explained as '"anterograde amnesia". A handsome, wealthy, successful entrepreneur, who loves life and doesn't interfere in any other person's business, is turned into a highly disabled guy, for no fault of his. He becomes a loner and a dejected man who is left with nothing in this cruel world that would attract him. He is hurt. Hence he decides to take revenge on the person who killed his beloved.

Asin, I mean Kalpana in the movie, trusts everyone, tries to help every distressed person, and she dies, longing to be united with his love. Sanjay suffers brutalities, yet survives with a memory loss. He even forgets who his enemy is and starts following the enemy's instructions. But he is taken to the right path by a friend, takes revenge and wins public applause.

It has taught me a lesson. We, the Hindus, suffer pathetically from short-term memory loss. We forget that the leaders we trust take us nowhere. Yet we vote for them year after year. A Pashupatinath stormed makes small news. A Shankaracharya arrested and humiliated turns into secular celebration. Temples bombed are easily forgotten and patriots turned into refugees become an accepted norm of democratic compulsions. No revenge. We have been brutalized and humiliated for centuries. Yet we love our assailants. Short-term memory loss? Revenge? That's only for movies. Good guys like us must show large-heartedness and tolerance. Tolerance, even if Kalpana is killed.

In times like this, Asin's charm helps us to keep our cool and have some hope in future. The anguish has to be reserved for the polling day.

Thou shalt rise again

Published on :- Times Of India.com
24 December, 2008

The reopening of Taj brought emotions of a victor to the fore. I am not one of those who frequented Taj or met their girlfriends there or spent
evenings at Leopold's. Yet Taj on December 21 gave me joy and filled me with confidence. It was a revenge on the cowards of November 26 – like a second Somnath.

Parsis would know better. They were never able to get back to their ancestral homes in Iran or to rebuild what the same hateful lot who bombed Taj had destroyed centuries ago.

That is what they did to Bamiyan Buddha. And to Hampi. And to the temple cities of Ayodhya, Mathura and Kashi. And only recently, they attacked Raghunath temple, Sankat Mochan and the grand Akshardham. What has changed except the faces and the dates?

Taj reopened is resistance emerging victorious.

We rebuilt Somnath. We reopened Taj. Does it matter one was a religious place and the other a fine symbol of our hospitality? Both the attacks were on India. And in both the cases, we rose like the mythical phoenix.

Ratan Tata belongs to the finest in India, gives his best to his motherland and earns more respect than money can buy. It's not because of his billions or global takeovers. It's because he exhibits a confident, invincible spirit of an Indian.

The Ghaznis and the marauders of Aurangzeb destroyed Somnath several times. Yet the invincible spirit of Somnath rose again and again defeating hate and barbarism. "With the dawn of a new era the new temple has risen like the phoenix from its own ashes," wrote KM Munshi in 1950.

Somnath raised was synonymous with India raised. The same spirit must guide us again.

Mumbai's fearless face and Taj's reopening symbolize that resolve. We have to take the war to its logical conclusion.

Those who feel elated with the chairman of the US military's joint chief of staff, Admiral Mike Mullen, visiting Islamabad as if that's going to help us or those who look at Pranab Mukherjee's warnings with some hope would be in for disappointment soon. Americans wouldn't like us to get seriously engaged in a war like situation. So that they would do is to address the current aggressive mood in India to pretend "something is being done" so that time passes till we get into election mode. Pranabda has been given the task of warming up the pitch for the Lok Sabha elections. The Pakistan issue, a strike here or there, may help to some extent. But the purpose is not to punish Pakistan or to teach it a lasting lesson.

Nauseating as it may look – and I pray I am proved wrong – this is how defence experts and Pakistan watchers see the hot air build-up in Delhi. The challenge in the present circumstances is to evolve a genuine, long-term Pakistan policy that is immune from the intermittent skirmishes or small-time love affairs on public diplomacy front. We are not dealing with one entity that is known collectively as Pakistan. India's Pakistan policy has to address the Sindh, Balochistan and Pakhtun factors as significantly as the Punjabi aggressiveness and deep hate for anything us.

So far every PM in South Block has tried to devise a new framework, which is often America-centric. With a regime change, the policy too takes a break. Pakistan must be dealt with an India-centric policy nursing our long-term goals. There are pundits on Pakistan affairs who feel that unless Sindh and Balochistan's aspirations to become independent countries are not supported by Delhi, we won't have peace on the Khyber side. New Delhi must tame Islamabad on its own prowess – without leaning on US shoulders, which in any case would never be available to us. Washington is bound to serve only US interests in Islamabad. The ideological refuges of the jihadi terror modules and their Arab connection are the real sources of their strength. Pakistan remains just a platform like any other piece of land.

And we can’t afford to ignore the homegrown shields to the jihadis. What Antulay said was a repeat of what Zardari said in Islamabad. The other day I was on a TV channel diagnosing Antulay's diarrhoea of doubt regarding Karkare's martyrdom. I was surprised that except Shabana Azmi, none of the Muslim participants condemned or distanced themselves from what Antulay said. And these leaders belonged to various parties including the Congress, which had earlier distanced itself from Antulay's statement. I am sure if Shabana and Antulay contest an election from a Muslim majority constituency, Antulay would win hands down. Why should Muslims be led to entertain a doubt on anything that targets the jihadis?

Unfortunately this tendency is gaining ground like a fire. Instead of coming closer to the mainstream of those who condemn any act of terror unitedly, many Muslims are being misled into believing that the actions are orchestrated by Hindu-Jewish-American lobby. I was in an Urdu poetry night at Indore, attended by some of the top luminaries of Urdu poetry. They spoke of the Gujarat riots and the Mumbai terror attack, praised the journalist who threw a shoe at Bush and challenged fiercely all those who, in their opinion, brand every Muslim a "terrorist". Fine enough. But why were the incidents of attacks on Kashmiri Hindus in the valley simply absent from their radar of literary concerns? There were poems condemning the "followers of Ram" who destroyed the "mosque" at Ayodhya. But not a single line was uttered about the blasts at Raghunath temple, Sankat Mochan temple and Akshardham by those who quoted their holy scriptures while doing so. Why?

They complained why did America let off Modi with a small "punishment" like denial of visa? I asked the greatest poet among them all, Nida Fazli (of Kabhi kisi ko mukammal jahan nahin milta fame), a simple question while sharing the lunch table with him. “Have you ever written about the plight of five lakh Kashmiri Hindus who were ousted from their homes after a series of unparalleled brutal attacks? When you condemn Gujarat, do you also feel and write in the same way about Godhra?” He had no answer. Such littérateurs have no qualms accepting top honours from a BJP government, as Nida saheb has done in Bhopal. But would refrain from giving voice to their fellow citizen belonging to a different faith.

It must go to the credit of some of the young Muslim firebrand poets who recited great poetry challenging terrorists and enthralled the 7,000-plus audience with their patriotic fervour. Salaam to them. But to ignore the undercurrents of a mindset Antulay and Nida Fazli represent would exhibit only a self-defeating naivety.

Antulay reminds me of a debate on Jinnah and Maulana Abul Kalam Azad. Antulay represents a segment not exactly known for theological scholarship or a merit in exemplary devotion to his faith or doing service for the good of the faithful. Maulana Wahiduddin Khan is respected worldwide for his deep knowledge of Islam and its true meaning. His books are prescribed at the Mecca University. But Antulay would get votes and not the sober, patriotic elements. Why? There was a vast difference between Jinnah and Abul Kalam Azad as far as Islamic scholarship goes. The former had hardly anything to do with Islam, while the latter was an epitome of deep knowledge about it and his personality too exuberated doctrines of his faith. He stood for an undivided India. He lost leadership of his community to Jinnah. Why?

The greatest hope is that 2008 is not 1947.

If not now, when?

Published on :- Times Of India.com
13 December, 2008

We forget too soon and forgive even before forgiveness is asked for. Our tolerance has brought more and more marauders and murderers. Our virtues
have been taken as a mark of cowardice. Remember December 13, the day our Parliament was attacked. Everyone said it was an attack on India. What happened later? Afzal, the terrorist accused of waging war against the Indian state, has found patrons in Delhi.

Let’s not forget our fellow citizens who have been victims of brutal terrorist attacks. On the eve of December 16, when the arrogant Pakistani marauders surrendered before our armed forces in Dhaka in 1971, let’s revive the spirit of victory and firmness to punish the Pakistani terrorists, even if it means bombarding their hideouts.
Sometimes to take revenge becomes a pious duty, synonymous with righteousness. Sometimes to be intolerant to the barbaric attacker is the path of virtue.

Sometimes using constitutional instruments for silencing the homegrown shields of the terrorists masquerading as secular human rights advocates and apologists for the Batla House module is the only way to protect the meek and plundered classes.

It’s our politicians’ deeds or misdeeds that brought us this day. As guardians of the state and its people, it was their duty to strengthen the security and keep assaulters away. Surrounded as we are by failed states, which are exporting jihad and Marxist terrorism, it was the first and foremost duty of the rulers in Delhi to make the nation's security their first priority, no matter which party they belonged to.

They failed us collectively and became spineless chroniclers of a nation's misfortune. Or the registrars of the unending agony of a people. They would simply present reports every year — banned terrorist organizations, number of citizens killed, number of security persons killed, number of bombs and rifles unearthed or captured, number of infiltrators estimated to have sneaked into our territory, number of terrorists eliminated, number ...

What a game they played.

And now they are talking tough.

They used the same language whenever there was a terror attack. Gauge the mood of the people and speak what they want to hear. Soon everything will be normal. Public memory is always short.

I am sure the way Kasab, one of the perpetrators of the Mumbai mayhem is being presented in the media, soon there would be committees demanding his release, for the sake of India-Pakistan relations. Or his trial may be delayed to another decade, or maybe he is exchanged in a deal. That's what our past has been. How can we have a different future unless we have a different set of rulers?

We are all familiar with the denial mode for the invasions we bore in the past: Aurangzeb didn't demolish Kashi temple, Babar didn't build mosque over Rama's birth place in Ayodhya, Kashmiri Hindus were not driven out by jihadis but were pushed to leave their home and hearth by Jagmohan, the Godhra train was not set blaze by Muslim terrorists but by Hindus themselves, there are no Bangladeshi infiltrators.

This attitude isn't going to help anyone — neither the "bigots" nor the Muslims nor the nation. Rather it will increase the bitterness and reinforce divides. So how does the black ribbons help Hindus, the principal targets and the victims of a pogrom that pronouncedly bears the identity of a religion? Or Deoband's ambiguous fatwa against terrorism? They look, unfortunately, more of an effort to buy a civil space in a Hindu majority country than a serious attempt to make jihadis desist from doing what they are doing quoting religious books.

Protect plurality, fight unitedly

This can be successfully carried on only if every Indian joins it irrespective of his faith. The naked truth is that the last two decades have seen a terrorism which is called Islamic in its contours by the very perpetrators and is powered by Pakistan's military agencies including the ISI. It needs an Indian response, ruthless and decisive.
Time to wake up and wave your tricoulour against the marauders. Show a profound solidarity for soldiers. And remember, every single person, whether in olive green or in khaki, fighting the terrorists is a soldier in times like this.

Defeat the homegrown shields of terror

Phrases like "zero tolerance" mean nothing. The state must be intolerant to the terrorist and merciless in its dealings with those who shelter them and provide a workspace or a kind of legitimacy through religious covers and secular columns.

Now, how to combat this situation?

Rise united as Indians forgetting parochial, religious, ideological and language fault lines. Those who raise such issues to garner votes must be treated on a par with these terrorists and handed over to the ATS. Any party or organization raking up or assaulting religiously sensitive issues must be discarded and condemned. This can be done through non-political organizations and leadership. The temples, churches and the mosques can't be bigger than the nation, all gods need a space to be identified and worshipped. The nation is the space that counts more than anything else. The Lok Sabha elections are fast nearing. Prepare the entire democratic arsenal for that and choose young fresh faces on the basis of their patriotism and brilliance. Hanif or Hari, doesn't matter, what matters is that they are ready to take on terrorism head on.