Published on :-Navbharat Times, 3 May 2008,
इस देश में एक ऐसा धनाढ्य और प्रभावी वर्ग उभर आया है जिसे राष्ट्रीय-मन को आहत करना अपना पावन सेक्युलर फर्ज प्रतीत होता है। चियर लीडर्स का प्रश्न न तो भारतीय संस्कृति से जुड़ा है और न ही खेल भावना से। जैसे अमेरिका की कसीनो संस्कृति भारत की भागवत कथाओं पर आरोपित की जाए, वैसे ही क्रिकेट के खेल पर कायिक विलास का बाजार थोप कर स्त्री देह को सामान में तब्दील किया जा रहा है। सवाल उठता है कि अगर क्रिकेट के खेल में रोमांच पैदा करने के लिए अर्द्धनग्न विदेशी बालाओं का कायिक-भौंडापन जरूरी है तो फिर क्रिकेट ही जरूरी क्यों? जिन तथाकथित बड़े लोगों ने खुली नीलामी में बोली लगाकर खिलाड़ी 'खरीदे' या अनुबंधित किए, क्या ऐसा करते समय उनके मन में भारत में खेल भावना को प्रोत्साहन देने का 'मिशन' था या पैसा फेंककर और पैसा कमाने की ललक? ये वे लोग हैं जिनके हाथों में समाज का गैर-राजनीतिक नेतृत्व भी है क्योंकि इनकी प्रसिद्धि, लोकप्रियता और मीडिया-उपस्थिति का सामान्य जन के व्यवहार, शैली और आचरण पर असर पड़ता है। जिस देश में 27 फीसदी से ज्यादा लोग गरीबी रेखा से नीचे हों, 35 फीसदी अभी भी साक्षर न बन पाएं हों, जहां 17,400 किसान एक साल में आत्महत्या कर चुके हों, वहां क्रिकेट के करोड़पति, खेल के मैदान को विशाल बार बनाने जैसा कर्म कर रहे हैं। यह प्रसंग इस बात को भी सिद्ध करता है कि धनपतियों से किसी भले उद्देश्य के लिए काम करने की उम्मीद नहीं की जा सकती। ये लोग देश के पासपोर्ट का इस्तेमाल करने वाले वैश्विक खिलाड़ी होते हैं- इन्हें कभी भी आप बुन्देलखण्ड के किसानों की मदद करते हुए, करगिल या पूर्वान्चल में देश की रक्षा में शहीद होने वाले जवानों के परिवारों की सहायता में मैच आयोजित करते हुए, अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए कोई अभिनय प्रशिक्षण केंद्र या वित्त प्रबंधन विद्यालय खोलते हुए नहीं देखेंगे। तो फिर भारत को सिर्फ पैसा कमाने का प्लेटफॉर्म मानने वाले ये लोग किस मातृभूमि की संतान हैं? निजी तौर पर अपनी जिन्दगी कैसे जीनी है, इन्हें यह तय करने का हक जरूर है। जैसे मर्जी जिएं। पर अपनी अपसांस्कृतिक विलासिता का विकार पूरे समाज में फैलाने का इन्हें हक नहीं दिया जा सकता। दुर्भाग्य से मीडिया का एक वर्ग इन बातों को नैतिक-पुलिसियापन के आत्मदैन्यग्रस्त शब्द के प्रयोग द्वारा बढ़ावा देता है। जो कुछ भी भारत का मन व्याख्यायित करता है- उसके विरोध में ये लोग आधुनिकता का विदेशीपन ढूंढ़ते हैं। पहले कुछ लोग गंगा को वोल्गा बनाने चले थे और विवेकानंद, गांधी व सुभाष बोस को नकारकर माओ, स्टालिन व लेनिन के पुतले पूजने लगे, तो अब ये नवधनाढ्य जुगुप्साजनक सार्वजनिक व्यवहार को सेक्युलर स्वातंत्र्य का पर्याय बनाना चाहते हैं। औपनिवेशिक दास मानस किस प्रकार भारतीय होकर भी अभारतीयता का प्रसारक हो सकता है, चियर-लीडर प्रकरण उसका एक उदाहरण है। क्रिकेट या ऐसे किसी भी खेल के मेले में कुछ अतिरिक्त रंग भरने के और भी उपाय हो सकते थे - क्या पंजाब का भांगड़ा और गिद्दा यूरोपीय बालाओं के प्रदर्शन से बुरा है? और क्या क्रिकेट का खेल हमारा राष्ट्रीय रंग बन गया है? इतना कि देश के वैज्ञानिकों द्वारा अन्तरिक्ष में 10 उपग्रह सफलतापूर्वक प्रक्षेपित करने का समाचार क्रिकेट खिलाड़ियों द्वारा थप्पड़ मारने की घटना की तुलना में कम महत्व का बना दिया गया? अब इस क्रिकेट में खेल नहीं दिखता। खेल मैदान के अंत पर हमें शोक व्यक्त करना होगा।
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