Follow me on Twitter

Thursday, October 16, 2008

भूख हमारे किसी एजेंडे में नहीं है

Published on :-Navbharat Times.com, 12 Sep 2008,

कोसी ने हमारे तन और मन दोनों की गरीबी उघाड़ दी। जो मन से गरीब हैं वें देश के तन की गरीबी दूर करने की जिम्मेदारी ओढ़े हुए हैं। कुछ दिन पहले अरुणा लिमये शर्मा की किताब पर सईदा हामिद और जस्टिस राजेन्द्र बाबू के साथ हिस्सा लेने का मौका मिला था। देश के हर जिले को एक साल में 1200 करोड़ रुपये मिलते हैं। बाबुओं और अफसरों की तनख्वाह के बाद 1200 करोड़ रुपये। यानी पांच साल में 6 हजार करोड़ रुपये।

फिर भी गरीबी दूर नहीं होती। एक - एक कुंआ आठ - आठ सहायता ऐजन्सियों की ग्रांट पी जाता है। महिला कल्याण , बाल कल्याण , ग्रामीण रोजगार सबके लिए एक से अधिक सरकारी विभागों का समानान्तर काम रेगिस्तान में पानी की एक बूंद की तरह छह हजार करोड़ सोख जाता है। गरीबी कहां से दूर हो ?

एक कहानी सुनी। सच्ची खबर। बिहार मे एक मजदूर थका हारा घर लौटा तो जल्दी खाना मांगा , खाने में नमक नहीं था। गुस्से में पत्नी को पीट दिया , वह वहीं मर गई। कुछ देर बाद उसकी बेटी घर लौटी। हाथ में डेढ़ रुपया था। बोली मां ने नमक लेने भेजा था , दुकानदार बोला डेढ़ रुपये में नमक नहीं मिलता सो लौट आई।

देखें : बिहार में बाढ़

गरीबी का स्तर और उसे मापने के तरीके पर योजना आयोग से लेकर यूएनडीपी तक कसरतें होती हैं। पर उससे क्या ? दिल्ली में किसी भी सड़क पर किसी भी रात घूम आइये। फुटपाथ पर पलते परिवार , कचरा बीनकर खाते बच्चे , गंदे नालों के किनारे दिन रात बिताते लोग , तिरंगे का कौन सा रंग बनाते हैं ? वे जो रेल लाइनों से शताब्दी रेलगाड़ी के साहबों का जूठा खाना बटोरते हैं ? वे इतने भर से खुश हो रहें हैं कि उनके नाम पर एक गरीब रथ चल रहा है ? और वे जो खेती करते - करते इतना कर्जा कमा लेते हैं कि अपने छोटे छोटे बच्चों और पत्नी को अपने हाथों से जहर देकर खुद भी खा लेते हैं ? वे किस मित्तल या टाटा के बढ़ते चमकते भारत के नागरिक हैं ?

सिंगुर में ममता की राजनीति और सीपीएम के बाजारवाद से हमें क्या लेना। गरीब किसान न इधर का रहा न उधर का। उसे तो कभी टाटा की नैनो लेनी नहीं थी। एक एकड़ जमीन टाटा को देकर जो उसकी कम्पनी मे चैकीदार बना उसकी तरक्की को कैसे मापा जाए। यह प्रश्न नैनो से बड़ा है। जो जमीन का मालिक था वह कार कम्पनी का नौकर बन गया। औद्योगीकरण जो करना था।

गांव कोई नहीं जाता , न उसको जानना चाहता है। गांव - शहर की झुग्गी झोपड़ी बस्ती बन जाए बस इसी तरक्की की दौड़ में हम लगे हैं। हम गलत कहते हैं कि भूखे भजन न होए गोपाला। भूख हमारे किसी एजेंडे में है ही नहीं। मंदिर है , मस्जिद है , चर्च है और हैं उसके ' फसल कटाई अभियान ' पर मनुष्य गायब है। सावरकर में दम था , आत्मविष्वास और नवीनता थी। सो वो सब कह गए जो हम में अब न कहने की हिम्मत है न सुनने की। इसलिये बदलाव का अंगार वो लेकर चलेंगें जो चौखटों और पिंजरों से परे हैं।

कोसी ने भी उन्हीं को छुआ जिनके घर मिट्टी के थे। दिल्ली के बंगले तो बचे रह गए। वे जो अपने घटिया , गलीज चेहरे लिए देश से सबसे बड़ा धोखा करते रहे , अमेरिका की चापलूसी , संधि के कागजों पर स्याही ओर नोट बिखेरते रहे , मंडी में बिके अब उन पर जिम्मेदारी आई है कि वे कोसी की पीड़ा से जूझ रहे लोगों में राहत राषियां दें , सामग्रियां मुहैया करवाएं। कोसी , तुमने इनको छोड़ा , उनको लीला , यह क्या हुआ ?

जब बाढ़ आती है , बड़े नरसंहार होते हैं , लोग बेघर , दीन - हीन बस भीगे कागज के मानिंद कुछ भी न कर पाने लायक खाली पथराई आंखों से तका करें , तब देश देख पाता है , अपनी प्रजा का चेहरा। दो रोटी और आलू के पैकेट झपटने को मारामारी करते लोग । भीगी धोती में आंसू का खारापन समोए , एक हाथ से सहमे , भूखे बच्चे को थामे पानी से निकलती स्त्रियां। कल घर था , आज शून्य है। बच्चे नहीं , पति नहीं , सामान नहीं , उम्मीद नहीं। जीना कब मौत से बदतर बनता है , कोसी ने बता दिया।

जमीन जहर हो गई , पानी मौत बन आया। दिल्ली अमेरिका से संधि के छल से निकलने की जुगत में है। कोसी तुम दिल्ली क्यों नहीं आईं , जहां सिर्फ पैसा है और श्वेताम्बरी फलाहारियों के घटिया पाखंड। बस से कार का शीशा टूट जाए तो ड्राइवर की जान ले ली जाती है। कसाई खाने में काम कम हो तो लोग डॉक्टर बन जाते हैं। गरीब था तो इलाज भी नहीं किया। धूर्तता में डिग्री ले ली तो टिकट मिलना आसान हो गया। तब गरीबी दूर करने की जिम्मेदारी निभाई जा सकती है।

ऐसी स्थिति में लक्ष्मणानंद सरस्वती की रक्षा कौन करता ? सरकार ने पूरी ईमानदारी से सोचा होगा कि यह 84 साल का बूढ़ा संन्यासी पागल है जो हरिद्वार , ऋषिकेश में मठों के शोरूम न खोलते हुए कंधमाल की जनजातियों में जान खपाने आया है। अगर कोई पहुंचा हुआ साधु होता तो दिल्ली के नेता उसकी खोज खबर भी लेने आते। वैसे भी गरीब जनजातियों में साधुओं का क्या काम ? वहां तो डॉलर वाले पादरी ही आते हैं। साधु मर गया तो मरने दो। अब उनकी संगमरमर की प्रतिमाएं बनेंगी। विधायक निधि से दो चार सड़कों के नाम भी उनके नाम पर रख दिए जाएंगे। स्मारिकाएं , विज्ञापन। जब तक जिन्दा थे कुछ नहीं हुआ। अब सब कुछ करेंगे।


बस अगर इस देश की नियति ही कोसी , कंधमाल और कश्मीर हैं तो दिल्ली में वायसराय रहे या उसके बावर्ची। ऐश करेंगे ही। कोसी तुम दिल्ली क्यों नहीं बहीं ? एक बांध टूटता है तो कोसी का रास्ता बदलता है। वह बांध टूटने वाला ही था। पता भी था । एंजिनियर भी गए थे , ठेकेदार भी। उस दिन नेपाल के विदेश मंत्री उपेन्द्र यादव मिले। बोले - हमरा कोनो कसूर नहीं। ठिकेदार अउर इंजीनियरवा गइल रहिन। परन्तु कमीसन पर झगड़ा हो गया। आप तो जानते ही हैं। सो बिना काम किए लौट गए। कमीशन पर झगड़ा हो गया। लाखों बेघर हो गए , बरबाद हो गए।

कौन करेगा जांच ? जरूरत भी क्या है। उससे कुछ मिलना थोड़े ही है ? राहत राशि बांटो। पहले सुनते थे अच्छे कर्म करने वाले गरीब और अन्त्यज नहीं बनते। अगर अच्छे कर्म का मतलब है मंडी में बिककर वित्ताधिपति बनना, तो गरीब अग्निपति बनना मंजूर पर वैसे कर्म अच्छे मानना नहीं। बस अपुन तो ऐसे ही हैं।

No comments: