क्या भारत के ईसाइयों के लिए यह उचित था कि वे उस स्थिति में, जबकि देश में एक ईसाई नेता के नेतृत्व में बहुसंख्यक हिन्दुओं ने सत्ता राजनीति को स्वीकार किया है, विदेशी ईसाई सरकारों से अपनी ही सरकार को डपटवाकर खुश होते? पश्चिमी देशों की सरकारों ने सिर्फ ईसाई होने के नाते भारत के ईसाइयों के बारे में आवाज उठाई। उसके पीछे सिर्फ एक कारण था - वे अपने मजहबी विस्तारवाद को निष्कंटक बनाने के लिए चिन्तित थे। क्या भारत के ईसाइयों को लगता है कि अगर उनके बारे में विदेशी ईसाई सरकारें आवाज उठाती हैं तो यह उनके लिए गौरव की बात है और क्या इससे उनकी वेदना दूर हो जाएगी?
जिन हिन्दुओं ने भारत में कभी उपासना पद्धति और संप्रदाय के आधार पर कभी किसी से कोई भेदभाव नहीं किया, जिन्होंने ईसाई, मुस्लिम, पारसी, यहूदी आदि सभी बाहर से आने वाले मजहबों को यहां फलने-फूलने दिया और अरब, तुर्क, मुगल, ईसाई, ब्रिटिश और पुर्तगालियों के बर्बर हमलों के बावजूद उनके मजहबी उत्तराधिकारियों से कभी घृणा नहीं की, बल्कि राष्ट्रपति, गृहमंत्री, गृहसचिव, कैबिनेट सचिव, वायु सेना अध्यक्ष, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, विदेश सचिव जैसे पदों पर ही नहीं बल्कि मीडिया, फिल्म और खेल जगत में मजहबी भेद भूलकर मुस्लिम और ईसाइयों को दिल से स्थापित होने के रास्ते खोले, उन्हें सम्मानित किया तथा उनके प्रशंसक और अनुयायी बनने में कोई संकोच नहीं किया, ऐसे हिन्दू से मित्रता और उनकी भावनाओं का सम्मान करने के बजाय उनकी संख्या कम करने के लिए विदेशी मदद लेना क्या दर्शाता है?
जब सर्वपंथ समभावी हिन्दू कट्टर जिहादी मुस्लिमों और देश तोड़ने वाले आक्रामक ईसाइयों की नफरत का शिकार बनाए जाते हैं तो हिन्दुओं की सदाशयता और उदार हृदयता में अपराधी कायरता दिखने लगती है। वे सोचते हैं संभवतः इस सेकुलर धर्मिता के आवरण में उनकी सर्वपंथ समभाव की भावना को तिरस्कृत किया जा रहा है। तब उनका क्रोध सीमा उल्लंघन करना ही उचित मानता है।
यह वह हिन्दू है जो उन श्रीराम की उपासना करता है, जिन्होंने पहले शत्रु को समझाने की बहुत कोशिश की, लेकिन जब वह नहीं माना तो फिर उसके संहार के लिए जनशक्ति का एकत्रीकरण कर विजय प्राप्त की।
राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक मजहबी ध्रुवीकरण में बंटी दिखी जिसमें सेकुलर कहे जाने वाले दलों ने आतंकवाद के विरूद्ध एकजुट सामूहिक अभियान का वातावरण बनाने के बजाए उन तत्वों के संरक्षण का परचम निर्लज्जता से लहराया जो भारत के खिलाफ युद्ध के अपराधी हैं। किसी भी सेकुलर नेता ने हिन्दू और मुस्लिमों की सांझी लड़ाई की बात नहीं की। बल्कि छोटे-छोटे मुद्दों पर अखबारों में सुर्खियां हासिल करने का बचपना दिखाने की कोशिश में वे एकता परिषद को सिमी और बजरंग दल के दो पालों में ध्रुवीकृत कर गए। राष्ट्रीय एकता परिषद का उद्देश्य सब लोगों को साथ में लेकर राष्ट्र हित में एक ऐसा वातावरण सृजित करना कहा जाता है, जो घृणा, विद्वेष तथा राजनीतिक अस्पृश्यता से परे हो। लेकिन हुआ ठीक वही जो अपेक्षित नहीं था।
वास्तविकता में स्वयं को सेकुलर कहने वालों का हिन्दू विद्वेष देश में भयानक मजहबी ध्रुवीकरण पैदा कर रहा है, जो विभाजन पूर्व की राजनीति का कटु यथार्थ स्मरण दिलाता है।
कहीं भी किसी भारतीय पर कोई आघात हो तो उसके विरूद्ध राज्य, राजनीति और प्रजा के चिंतकों का सामूहिक उद्वेलन और प्रतिरोध सर्वपंथ समभाव पर आधारित सेकुलरवाद का स्वाभाविक चरित्र होना चाहिए। लेकिन जिस प्रकार आज सेकुलरवाद का व्यवहार किया जा रहा है, वह केवल अहिन्दुओं के प्रति ही संवेदनशील है। इस बारे में असम का उदाहरण ताजा है।
असम के दारंग और होजाई क्षेत्रों में इन दिनों भयंकर हिंसा चल रही है। 60,000 से अधिक लोग सरकारी शिविरों में शरण लेने के लिए बाध्य हो गए हैं। बोडो हिन्दू जनजातियों के 40 गांव जला दिए गए हैं। उदालगुडी के पास एक गांव के प्रमुख (गांव बूढ़ा) उनकी मां और बहन को मुस्लिमों ने जिंदा जला दिया। 40 से अधिक जनजातीय बोडो हिन्दुओं की हत्या की जा चुकी है। लेकिन दिल्ली में इस बारे में शायद ही कोई आवाज उठी। गांव उजड़ गए, परिवार जिंदा जला दिए गए, फिर भी राजनीति और सेकुलर मीडिया में सन्नाटा छाया रहा। क्या इसकी वजह यह है कि जिनके गांव ध्वस्त हुए और जो जिंदा जलाए गए, वे हिन्दू थे? कंधमाल पर हमने केवल एक मजहब की पीड़ा पर वैटिकन से वॉशिंगटन और पैरिस तक शोर सुना। सवाल है कि हिन्दुओं की वेदना पर कौन बोलेगा?
आक्रामक ईसाई नेता इस बात का विरोध करते हैं कि वे अंग्रेजों या पुर्तगालियों के साए तले भारत में ईसाइयत का प्रचार करने आए। लेकिन सच यही है। हाल ही में मुझे एक पुस्तक पढ़ने को मिली जिसका विषय राजस्थान में ईसाई मिशन का विस्तार था। यह पुस्तक ईसाई मिशन के प्रति अत्यंत सहानुभूति रखते हुए उनके प्रति आत्मीय प्रशंसा भाव के साथ राजस्थान विश्वविद्यालय के प्रो. श्यामलाल ने लिखी है और विश्वविद्यालय के तत्कालीन उपकुलपति श्री हरि मोहन माथुर ने इस पुस्तक को एक महत्वपूर्ण शोध बताकर इसके पठन-पाठन हेतु संस्तुति की है।
पुस्तक के लेखक ने अनेक चर्चों और मिशन के कार्य से जुड़े ईसाई जनजातीय व्यक्तियों एवं चर्च अधिकारियों के प्रति हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त की है। इसमें उदयपुर क्षेत्र में प्रसिद्ध भील जनजातीय स्वातंत्र्य आंदोलन के नेता गोविंद गुरू के 1,500 से अधिक भील अनुयायियों के मानगढ़ की पहाड़ी पर किए गए नरसंहार का विवरण है। यह नरसंहार मेजर हैमिलटन के नेतृत्व में किया गया था। भीलों के पास केवल तीर धनुष थे और ब्रिटिश मेजर हैमिल्टन की फौज के पास बंदूकें थीं। उस रात 1500 से अधिक भील हैमिल्टन की फौज ने मारे। इसे राजस्थान का जलियांवाला बाग कहा जाता है।
इस हत्याकांड के बाद मेजर हैमिल्टन ने नीमच स्थित प्रैसबिटेरियन मिशन के पादरी रेवरेन्ड डी. जी. कॉक को चिट्ठी लिखकर भील जनजातियों के बीच चर्च स्थापित करवाया। अर्थात् पहले हिन्दू जनजातियों का नरसंहार कर उनमें भय और आतंक पैदा किया, उसके बाद चर्च की स्थापना कर उनका धर्म समाप्त करने का अभियान छेड़ा। अस्पताल, स्कूल इत्यादि ईसाई विस्तारवादी अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करने के साधन हैं, केवल सेवा के निर्मल उद्देश्य से प्रारंभ किए जाने वाले कार्य नहीं। यदि ऐसा होता तो देश के 2500 ईसाई विद्यालय, जिनमें ज्यादातर हिन्दू विद्यार्थी ही पढ़ते हैं, केवल ईसाई वेदना पर बंद किए जाने के बजाय आतंकवादियों द्वारा चलाए जा रहे जिहाद के खिलाफ भी कभी बंद किए जाते। परन्तु ऐसा कभी नहीं किया गया। ये आक्रामक ईसाई कभी सामान्य भारतीय के दुख दर्द में शामिल नहीं होते। बल्कि जैसे पहले उन्होंने अंग्रेजों की मदद ली थी वैसे ही आज अमरीका, वैटिकन और फ्रांस जैसे ईसाई देशों की मदद लेने में संकोच नहीं करते।
परन्तु जैसे सारे मुसलमान जिहादी नहीं, वैसे सारे ईसाई आक्रामक या हिन्दुओं के प्रति नफरत रखने वाले नहीं होते। परन्तु जैसे भारत के विरूद्ध उठने वाली हर आवाज का मजहब और भाषा के भेद से परे उठते हुए विरोध किया ही जाता है, उसी तरह से हिन्दू विरोधी सेकुलर आवाजों का विरोध क्यों नहीं किया जाता? एक पत्रिका ने हाल ही में हिन्दुओं की निंदा करने के लिए त्रिशूल के चित्र पर ईसा मसीह को सलीब की तरह टंगा हुआ दिखाया। यह चित्र वस्तुतः हिन्दुओं को उड़ीसा के संदर्भ में बर्बर और आतंकवादी दिखाने के लिए छापा गया। क्या आज तक आपने किसी नागालैण्ड के ईसाई आतंकवादी या इस्लामी जिहादी के हिन्दू विरोधी प्रतीकात्मक चित्र पर हिन्दुओं की मृत्यु का अंकन देखा है? हिन्दू के विरूद्ध यह एकांतिक और अन्यायपूर्ण सेकुलर हमला उन्हें अपने तौर-तरीके और जवाब बदलने पर मजबूर कर रहा है। वे देखते हैं कि बिना प्रमाण के जो लोग बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने की मांग करते हैं, ये वही लोग होते हैं, जो प्रमाण के आधार पर अफजल को दी गई फांसी की सजा माफी में बदलना चाहते हैं और सिमी से प्रतिबंध हटाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में हिन्दू इस सेकुलर तालिबानी हमले के विरूद्ध क्रुद्ध न हों तो क्या करें?
7 comments:
vishrut, Banglore का कहना है :I agree with Mr Tarun. till what extent Hindus will keep bearing the pressure. Earlier in ancient time, India was a place of Hindus but opened to all and later mughals attacked on it and then came the Britishers who ruled india for 100 years. Its hindus who welcomed all religion's people and there culture but later things have gone worse with all religions. In hindus they had cast system, poor people were converted to different religions for the sake of there progress but it could be done with out converting there religions also. People from different religions done malpractices for there selfishness and whole communities are bearing the impact of these malpractices. I am 100% agree with Tarun for his thoughts but a few other things are also there which we should keep in mind.
तरुण जी के इस लेख के लिए हम उनका धन्यवाद करते हैं! निसंदेह आपकी लेखनी से हिंदूवाद के साथ साथ हिंदुओं के भीतर की धर्मनिरपेक्षता भी दिखती है| साथ ही अज़ीज़ साहब का कहना भी ठीक है| काश अपने निजी स्वार्थ के लिए देश की धर्मनिरपेक्षता को हानि पहुँचने वाले नेता तरुण जी के इस लेख से कुछ सीखें|
सबसे पहले हम तरुण विजय जी को धन्यवाद देते हैं। हम यही कहना चाहते हैं कि जो किसी से नहीं हारता, वो अपने से हार जाता है। आज हिंदू ही हिंदू की नींव काट रहा है। हमने अवसरवादी राजनेताओं और लोगों को अपनी जड़ों को काटते हुए देखा है। वो ये नहीं सोचते हैं कि वे भी इसी पेड़ के फल हैं। वे अपने तुच्छ फायदे के लिए अपने लोगों को ग़लत कहते हैं। कुछ ग़लत हैं, पर सब नहीं। हिंदू हमेशा सबके साथ मिलकर रहना चाहते हैं। पर कुछ लोग ऐसा नहीं चाहते।
I READ SUCH FOOLISH AND BIASED COMMENTS FULL OF LIES WHICH IS REFLECTIONG CLEARLY . FIRST OF ALL MR. TARUN MUST KNOW THE FAITH IS NOT THE THING THAT CAN BE CHANGED BY FORCE. IT IS INSIDE PEOPLE'S MIND AND HEART. THE FACT IS THE WORST DISCRIMINATORY HINDU SOCIAL SYSTEM IS MAIN CAUSE OF CONVERSION.I DONT WANT TO EXPLAIN ANYMORE. ON THE OTHER SIDE THERE IS LOVE, EQUALITY, AMONG HUMAN BEING. IF YOU KNOW THE HISTORY, WHO FORCED ASHOK,CHANDRAGUPTA,KANISHKA,AMBEDKAR TO TO CHANGE THEIR FAITH. YOU USE THE MUSLIM JIHADI, DO YOU KNOW THE MEANING OF JIHAD, IT IS AGAINST THE EVIL, YOU DON'T MAKE DIFFERENCE BETWEEN THE VIOLENCE. IT IS EXIST IN EVERY SOCIETY AS DHARMYUDH, OR CRUSADE ETC. YOU HAVE DESCRIBED THE HISTORY WHICH YOU DON'T KNOW THAT MOST OF THE MUSLIM DID NOT COME FROM THE OUTSIDE BUT LEAVE THE DARKNESS AND CAME TO LIGHT. DID YOU FORGET THE TERRORISM OF MODI, THAKREY OR ADVANI BECAUSE THEY ARE LICENSE HOLDER TERRORIST WITH CLEAR EVIDENCE THAT THEY SPREAD HATRED AND RESPONSIBLE FOR THE KILLING OF HUNDERED AND THOUSAND OF THE INNOCENT PEOPLE. WHAT EVIDENCE YOU NEED AGAINST BAJRANGDAL AND RSS, WHO SPREAD HATRED, VIOLENCE AND RESPONSIBLE FOR LOOTING AND MASS MURDER.
मेरा मानना है कि हिंदू धर्म में बहुत सारी कमियां हैं। कभी कुछ लोग जरूरत पड़ने पर पठार को भगवान कह देते हैं, तो कभी वही काम निकल जाने पर फिर उसे पठार कह देते हैं। वह भी सिर्फ़ थोड़े से फायदे के लिए।
adarniya tarunji,
praman.
apki prakhar lekhni se sanatan dharma ki sewa hoti rahe yahi deepotsav par meri paramprbhu shri ramji se prarthana hai.
Shastri Kosalendradas
Jaipur (Rajasthan)
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