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Thursday, October 16, 2008

सिमरन के आंसू तो सूख गए...

Published on :- Navbharattimes.com, 24 Sep 2008,

नवत्ररात्र निकट है , कन्यापूजन का समय। घर बुलाकर पांव पूजेंगे , दक्षिणा देंगे। शक्ति का आह्वान करेंगे। व्रत रखेंगे। फिर वही सिमरन का आंसुओं में डूबा चेहरा अखबार में छापकर एक दर्द भरी मार्मिक स्टोरी करेंगे।

सिमरन भी तो कन्या है। दुर्गा स्वरूपा। शक्ति प्रदायिनी। दुर्गा के आंसू आज भारत में सिर्फ अखबार की स्टोरी ही हैं। सिमरन खबर है - नए संवाददाता की भाषाई पकड़ की परीक्षा है। आतंकवाद ग्रस्त जनता का दर्द कितने प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता है , इसका अवसर मात्र है। कैमरामैन का लेंस उस बच्ची के चेहरे पर मां से न मिल पाने की मायूसी कैसे पकड़ पाता है , इसकी महारत दिखाने का मौका है। मां कैसे बताए कि आतंकवादी विस्फोट में उसके पिता और दादा दोनों खत्म हो गए। अब उस मां के दर्द को शब्दों में बयान कीजिए। देखें दस में से कितने अंक आप ला पाते हैं।

आतंक ने हमारी जिंदगी बदल दी है। हमारे शब्द , वाक्य विन्यास , मुहावरे , और रिश्ते। जैसे आसानी से बस , रिक्शा , रेल कहते हैं वैसे ही कहते हैं आरडीएक्स , टाइमबम , एके -47, जिहादी। कोई अचीन्हा अटैची मत छूना , मोबाइल बम , पैन बम , रेल में सफर करते वक्त आजू - बाजू ध्यान रखना , हवाई अड्डे पर एक घंटा पहले पहुंचना , पुलिस कंट्रोल रूम , लश्करे तोएबा , जैशे मुहम्मद , इंडियन मुजाहिदीन , हुर्रियत , ओसामा ... ये सब नए नाम हमारी रोजाना की जिंदगी में कब जुड़ गए पता नहीं चला।

प्रधानमंत्री से ज्यादा अहमियत राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के बयानों की हो गई है - पहले ईद की सेवइयों के चर्चे होते थे। अब इफ्तार की राजनीति के जोखिम हैं। दो सौ की सभा में दो मुसलमान हों तो भाषा बदल जाती है - घर में इखलाक या सईद दोस्त आएं तो बात इधर - उधर की करेंगे , कोशिश होगी ये जिहादी आतंकवाद चर्चा में न आए। क्यों ? क्या इससे मुसलमान परेशान नहीं होता ? ओसामा और लश्कर के सामने ‘ सेकुलर बैलंस ' करना है तो दो चार हिन्दुओं को भी उसी श्रेणी में खड़ाकर आत्मा तृप्त होती है।

असलियत यह है कि आतंक से लड़ना या उसे खत्म करना हमारे किसी एजेंडा का हिस्सा ही नहीं है। आतंक , घुसपैठ , वगैरह का इस्तेमाल करना ही बच रह गया है। कुछ अच्छे नारे , कुछ दमदार पोस्टर , चुनाव में अपने - अपने वोट बैंक संभालने की जुगत , आंकड़े और घटनाओं की कुछ इस किस्म से तैयार की जाने वाली फेहरिस्त , कि जो पक्ष हमारा विरोधी है उसे अपने शब्द प्रहारों से धूलि - धूसरित किया जा सके। भई वाह , क्या भाषण था आपका !

आश्चर्य होता है कैसे यह देश खुद ही खुद को खत्म होते देख उत्सव मनाता है। हर दुर्घटना एक नए जलसे का सृजन कर जाती है। दिल्ली में विस्फोट हुआ तो क्राइसिस मैनेजमेंट कैसे करें ? मीडिया में छवि बहुत खराब बन रही है - तो कुछ नई जोरदार घोषणाएं करते हैं - पुलिस बल बढ़ाएंगे , नए थाने खोलेंगे , कुछ हजार करोड़ नई राइफलों पर खर्च करेंगे - अच्छा चलो बता दो एक नया कानून भी बना रहे हैं। बहुत शोर मचाया हुआ था , चुनाव तो आ ही गए हैं , कानून बनते - बनते जाने क्या हो।

सिमरन के आंसू तो सूख गए।

सौभाग्य माहेश्वरी सिमरन।

महिषासुरमर्दिनी सिमरन।

दुष्ट दलन करने वाली सिमरन।

दुर्गति नाशिनी दुर्गा सिमरन।

सिर्फ आंसू का तालाब सिमरन।

भक्ति जारी है। जागरण , भागवत कथाओं , प्रवचनों की तादाद बढ़ती जा रही है। मल्टीनैशनल कॉरपोरेशनों की तरह आश्रमों के बहुराष्ट्रीय संस्करण और हर राजनेता का एक - एक अनुयायी मठाधीश। बिना राजनेता के आश्रम भी फीके - फीके , सूने - सूने लगते हैं। स्थानीय प्रशासन भी मदद के लिए तब तक हरकत में नहीं आता जब तक महाराज जी के उच्च स्तरीय कनेक्शन न पता चलें।

अब सिमरन की फोटो नहीं छपेगी , पुरानी खबर जो गयी। कुछ नया विस्फोट हो तो इस बार जूम लैंस और नए करारे मुहावरों का इस्तेमाल किया जाए। अब लिस्ट में लेखकों के नाम कम , कुछ ‘ माडरेट ’ मौलाना , कुछ पक्के जिहादी , एक आध तेज तर्रार भगवा और एक मध्यमार्गी - बस इत्ते भर से चैनल का शो मजेदार हो जाएगा - बहुत मेहनत से जुगाड़ करना पड़ता है , इन्हें इकट्ठा करने को। कोई भी , ऐंकर ही सही एक उत्तेजक वाक्य बोल दें तो एक घंटे तक वो चख - चख चलती है कि भई मजा आ जाए। बॉस कह रहे थे , पिछले शो की रेटिंग अभी तक सबसे हाई चल रही है।

सिमरन को उसकी मां अभी तक यह समझा नहीं पाई कि उसके पिता और दादा को अचानक क्यों जान गंवानी पड़ी। क्या किया था उन्होंने ? और वे कौन थे जो मार गए ? ये ‘ क्यों ’ बड़ा खतरनाक सवाल है। जाती दुश्मनी का तो कोई सवाल ही नहीं उठता। गुस्सा तो आता है - पर सच बात यह है कि भरोसा टूट गया। कोई भी हो , नेता या पार्टी - वह सच में सिमरन के आंसू पोंछने के लिए कुछ करेगी , यह भरोसा अब है नहीं। भरोसा टूट जाए तो बचता क्या है ? चुनाव पेटी ?

दिल्ली ने तो वह नहीं सहा जो कश्मीर के हिन्दुओं ने सहा। क्या हुआ ? हिन्दू तो वहां रहे नहीं , पर दो निशान ( यानी भारत का तिरंगा अलग और कश्मीर का लाल झंडा अलग ), दो विधान तो अभी भी हैं। क्या हुआ ? संजू बाबा कितने स्वीट हैं - जुर्म साधारण न भी हो तो भी क्या हुआ ? अफजल बाबा को तो छोड़ देना चाहिए , वरना कश्मीरी नाराज हो जाएंगे। जिहादी वेबसाइट देखी है - इस्लाम का गाजी कुफ्र शिकन , मेरा शेर ओसामा बिन लादेन। तो क्या हुआ ? अपने ही हैं। बांग्लादेशियों को भारतीय नागरिक बनाने की मांग के पीछे भी तो देशभक्ति का चरम है। सारी दुनिया को हम भारत की नागरिकता दे देंगे तो विशाल विराट भारत जगतमय न हो जाएगा ? समझा करो जी।

आजमगढ़ जाना तो नया सेकुलर विधान है। तीर्थ नहीं कह सकते - शब्द ही साम्प्रदायिक है , कुछ और कहें तो डर लगता है। भाई पकड़ा गया तो हमदर्दी जतानी ही थी। फिर सिमरन के आंसू देखने का वक्त कहां है ? काम इतने बढ़ गए हैं - जबसे ये विस्फोट हुए , कि अब पहले से भी कम फुर्सत मिलती है।

सिमरन पूछती है - मेरे पापा को क्यों मारा ?

हम कहेंगे सारी दुनिया हमारा कुटुम्ब हैं। शास्त्र , वेद , पुराण बांचेंगे। आदमी को जात की पहचान से जानेंगे और पड़ोसी को रोजे रखते देख उम्र बीत जाएगी पर कभी यह न जानेंगे कि रमजान होता क्या है , मुहम्मद ने कहां कब और क्यों युद्ध किए थे , बिस्मिल्लाह और श्री गणेश में साझापान क्या है ? बस , बर्फ जमा कर बैठे हैं। और कथा बांचते हैं इंसानियत के उत्कर्ष की। साझी लड़ाई साझेपन से लड़ी जाएगी या बर्फ की दीवारों को सहेज - सहेज कर रखते हुए ? गीता पढ़ने से मुसलमान का दीन खत्म होता है या कुरान पढ़ने से हिन्दू भ्रष्ट होता है कौन बताएगा ? कितनी सदियां बीत गयीं ? जैसे भी हुए , जो भी हुआ , पर जमीन , आसमान , जुबान , नस्ल , पहनावा और पूर्वज तो एक ही थे न। 1857 तो साथ - साथ लड़ा था। गोरे , बिधर्मी , म्लेच्छों के खिलाफ ? आज वही गोरे ज्यादा प्यारे और हम दुश्मन ?

सिमरन को तो रोना ही पडे़गा जब तक बात साझेपन की न चले।

इसे वे तो नहीं चला सकते जो कुरेश , सिद्दीकी , शेख और सईद में बंटे हैं या सवर्ण , निम्न जाति , पिछड़े , अति पिछड़े में वोट ढूंढते हैं। खुल के सामने आओ। जात हिन्दुस्तानी बताओ , तो न अल्लाह नाराज होगा, न राम जी।

पर हम लगें है इश्तिहारों की राजनीति में। राम , कृष्ण के भद्दे मजाक बनाकर वे किताबें छापें , गांव के लोग गुस्सा कर तोड़ - फोड़ , मारपीट करें , तो चल यूएनओ - देखो भारत में ईसाई होना गुनाह है। भाई , अगर चर्च पर गलत निगाह से देखना पाप है तो दूसरे के आराध्य छीनना पुण्य होगा क्या ? ऐसा कहना , लिखना भी साइबेरिया - गुलाग के नवसर्जकों की मेजों पर वर्जित कर दिया जाना स्वीकार्य व्यवहार में शामिल हो गया है।

दुर्गा सौम्या है , सुन्दर है , वत्सला है , विद्या प्रदायिनी परमेश्वरी है , महालक्ष्मी है - पर दुष्ट को कभी न क्षमा करने वाली भी तो है। उसका सौम्य रूप शिवा बनकर ही सौभाग्य स्थिर करता है। सौम्य हो , पर महिषासुर मर्दिनी न हो तो अधूरापन रहेगा। यही है देवी तत्व , जो देश को आतंक के रात्रिकाल से निकाल सकता है। यह देवी तत्व सिमरन के आंसू बन बहे तो फिर - फिर वही महिषासुरवाद चलता रहेगा जिसे आज सेकुलरवाद भी कहते हैं।

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