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Sunday, December 27, 2009

आत्मकेंद्रित दृष्टिकोण

दैनिक जागरण
28,Dec,2009

तरुण विजय
2010 की आहट अजीब कुहासे भरी दिखती है। सूखती नदिया, सिकुड़ते ग्लेशियर और घटते जंगल एक ओर हैं तो दूसरी ओर गरीबी का विस्तार थम नहीं रहा। शहरों और गावों में गरीब न केवल बढ़े हैं, बल्कि उनका जीवन पहले से ज्यादा कष्ट साध्य हुआ है, जिसके सामने अमीरों का बढ़ता प्रभाव-विस्तार और सामाजिक-राजनीतिक विषमता देश को अतिवादी हिंसा तक ले जा रही है। कश्मीर से हिंदुओं के निष्कासन के दो दशक पूरे होने की तिथि जब निकट आ रही है तो घाव पर नमक के समान सगीर अहमद रपट लाकर कश्मीर को अजीब स्वायत्तता देने की चर्चा है। तब देश की एकता के लिए क्या फिर किसी श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बलिदान की आवश्यकता होगी? सामाजिक स्तर पर न्याय, समृद्धि और उन्नत जीवन के अवसर केवल उन लोगों तक सीमित होते जा रहे हैं जो अंग्रेजी पढ़े लिखे और साधन संपन्न हैं। देश का अखिल भारतीय स्वरूप राजनीति और पत्रकारिता में सिकुड़ता दिखता है, एक के लिए वोट बैंक देश का प्रतिरूप है तो दूसरे के लिए वही क्षेत्र मिलकर देश बनाते हैं जहा उसका प्रभाव है। रुचिका कांड में न्याय का उपहास या तेलगाना के प्रश्न पर विभ्रम जनित अराजकता टुकड़ों-टुकड़ों में बंटी खंडित दृष्टि का परिणाम है। पुलिस से राजनेता अपने सही गलत सब कार्य करवाते हैं। पुलिस जनसेवक नहीं, तबादले-पोस्टिंग और कमाई के लिए नेताओं की हस्तक बनाई जाती है-फलत: ईमानदार अफसर सजायाफ्ता की तरह किनारे धकेले जाते हैं और राठौर जैसे हर मुख्यमंत्री की आख का तारा बन जाते हैं। जब सुरक्षा के प्रमुख ही आत्मकेंद्रित द्वीप हों तो जनता किससे उम्मीद करे? यही हाल पत्रकारिता का हो रहा है। मीडिया का मायाजाल सही-गलत के फर्क को ही धूमिल नहीं कर रहा, बल्कि चौथे स्तंभ के प्रति जन-आस्था को डिगा रहा है। पत्रकारिता जाबाज कलम-धर्मियों का क्षेत्र है, पर वह भी आत्मकेंद्रित द्वीप में बदल जाएगी तो भारत कहा छपेगा?

तेलंगाना में जनभावनाओं के साथ खिलवाड़ राष्ट्रीय एकता और समग्र भारतीय दृष्टि के लिए बेहद क्षतिकारक है। आखिर किसी भी प्रांत के उपक्षेत्र को अलग अस्तित्व बनाने की माग करने पर बाध्य ही क्यों होना पड़ता है? यह तब होता है जब द्वीप देश से बड़े होने का अहंकार पालने लगते हैं। नागालैंड या मणिपुर या लद्दाख से उनका नाता रिश्ता सिर्फ तभी तक रहेगा जब तक उनको वहा से कुछ मिलेगा? उनके लिए देश श्री अरविंद के शब्दों में साक्षात् जगत्जननी का स्वरूप नहीं, बल्कि एक प्लेटफार्म है, अपनी व्यक्तिगत वासनापूर्ति की रेलगाड़ी पकड़ने के लिए। जब ऐसे द्वीप-दृष्टि वाले सत्ता में आते हैं या प्रशासन और साहित्य में दखल देते हैं तो खंडित समाज का सृजन होता है। ऐसा मंडल के समय हुआ, राजेंद्र सच्चर कमेटी ने यही काम किया। गंगा सफाई अभियान में गड़बड़ करने वालों का भी यही पाप है तो उनका भी जो गंगा के अविरल प्रवाह को बाधित कर राष्ट्र की मूल धरोहर के साथ छल कर रहे हैं-तनिक अधिक आराम से रहने की खातिर वे अपने पूर्वजों द्वारा संजोयी विरासत को ही दाव पर लगा रहे हैं। यह भी द्वीपीय खंडित दृष्टि का फल है-सिर्फ मैं और मेरे इर्द-गिर्द का हित, बाकी की परवाह नहीं। हाल ही में एक फिल्म घोषित हुई है-माई नेम इज खान अर्थात मेरा नाम खान है। देश के लाखों दिलों के प्रिय अभिनेता शाहरुख खान इसके नायक हैं। खान होने के कारण उन्हें अमेरिका में जो कथित अपमान झेलना पड़ा उसका इसमें वर्णन है। इसके पहले एक पत्रिका को दिए साक्षात्कार में शाहरुख खान ने घोषित किया कि 'वह इस्लाम के वैश्विक दूत' यानी एंबेसडर हैं। अच्छी बात है। उन्हें उन अमेरिकी सुरक्षाकर्मियों ने जाच से गुजारा जो अपने देश में पुन: 9/11 नहीं होने देना चाहते थे। इसमें आपत्ति की क्या बात है? अगर आज ज्यादातर जिहादी आतंकवादी खान होने का दावा करते हैं तो शाहरुख साहब को उनके आतंक का शिकार होने वालों के साथ खड़े दिखना चाहिए या अपनी जाच को अपना अपमान मानकर उस पर फिल्म बनानी चाहिए? उन लाखों कश्मीरी देशभक्त भारतीयों के उजड़ने, कत्ल होने और स्वतंत्र देश में शरणार्थी बनने की व्यथा क्या शाहरुख की अमेरिकी पुलिस द्वारा जाच यानी जूता-जुराब उतारने से कम दुखदायी और इसलिए महत्वहीन है? शाहरुख खान आज 'बादशाह' क्या इस बदौलत हैं कि वह 'इस्लाम के एंबेसडर' हैं या इसलिए हैं कि वह बेहद अच्छे अभिनेता, अच्छे भारतीय हैं और इस कारण देश के लाखों-करोड़ों हिंदू भी उन्हें अपना प्रिय स्टार मानते हैं? उनके मन में खान के नाते खड़े होने के बजाय उस कौल या रैना या भट्ट के दर्द को साझा करने का विचार क्यों नहीं आया?

यह है द्वीप-दृष्टि जो भारत की समग्रता के महासागर को अपने भीतर समाने के बजाय उससे पृथक रहने में अपना भविष्य देखती है। देश ऐसे द्वीपों से नहीं बनते। देश बनते हैं एक राष्ट्रीयता, एक सामूहिक विराट स्वप्न, एक जन और संस्कृति के अधिष्ठान से, जहा के लोग एक दूसरे के सुख-दुख में अपना सुख-दुख महसूस करें। 2010 का वर्ष, हालाकि हमारा अपना भारतीय वर्ष तो चैत्र शुक्ल प्रथम, वर्ष प्रतिपदा के दिन ही मनाया जाएगा, भारत सहित विश्व में गहरे बदलाव लाने वाला है। ये बदलाव भाषा, तकनीक, राजनीतिक व्यवहार और मेहनतकश जनता के प्रति रवैये को भी प्रभावित करेंगे। आखिर क्यों विकास केवल शहर केंद्रित रहे और किसान आत्महत्याएं करें तो उसकी तुलना में बालीवुड की अभिनेत्री की शादी या राजनेता का सुपुत्र ज्यादा महत्व की सुर्खिया पाए? देश का युवा पुराने चोले को फेंकने, रंगरूप, मुहावरों और चलन का साथी बना है। जो यह पहचानेगा और समग्र भारतीय दृष्टि के साथ अपनी धुरी पर टिका रहेगा वही जीतेगा।

[तरुण विजय: लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं]

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