14,Dec,2009
तरुण विजय
बैंकाक नगर में चारों तरफ जिस भाषा और बौद्ध पंथ के दर्शन होते हैं उनमें भारत झलकता है। गणपति घर-घर में पूजे जा रहे हैं। कुछ वर्र्षो से गणेश चतुर्थी का उत्सव भी काफी धूमधाम से मनाया जाता है। यहां के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे का नाम शुद्ध संस्कृत में सुवर्ण भूमि रखा गया है और राजा को तो रामनवम् की पदवी से अलंकृत किया गया है, क्योंकि वहां राम के नाम पर शासन करने की राज परंपरा में गणपति, शिव, हनुमान, कार्तिकेय, लक्ष्मी आदि देवी-देवताओं की पूजा का प्रचलन भी बढ़ा है। इसी परंपरा में चीनी मूल की अत्यंत प्रसिद्ध सिद्ध योगिनी समान थाई बौद्ध भिक्षु ने अपने कायरें से थाईलैंड में अद्भुत कीर्ति अर्जित की है। अस्सी वर्षीया इस बौद्ध भिक्षु का नाम है क्यों सोंग है, जिन्होंने गत चालीस वषरें से निरंतर अपनी साधना के बल पर विराट बौद्ध मंदिर बनवाए और उनमें शिव का प्रमुख स्थान रखा। वह शिवभक्त हैं। बौद्ध मंदिर के अलावा एक पृथक अत्यंत विशाल शिव मंदिर भी उन्होंने बनवाया है जो थाईलैंड में हिंदू दर्शनार्थियों के अलावा स्थानीय थाई बौद्ध मतावलंबियों के लिए वृहद आकर्षण का केंद्र बना है। लगभग सौ फीट ऊंची शिव प्रतिमा, त्रिशूल और नंदी सहित थाई मंदिर के भीतर हजार शिवलिंग विशाल भवन में एक रोमांच पैदा करते हैं। वहां सबसे पहले मुझे मेरे मित्र दिनेश दुबे ले गए और वहां जाकर देखा कि माताजी ने अपनी शिष्या के रूप में शरण्या और एक बेटी के नाते तनुश्री को मातृवत वत्सलता से अंतरंग बनाया हुआ है। थाई देश की इस महिमावान माता का भारत प्रेम निष्छल और निर्मल है। वह अपने मंदिर की ओर से अनेक अनाथ बच्चों की शिक्षा तथा लालन-पालन की भी पूरी व्यवस्था करती हैं। उनके मंदिर तथा आश्रम में केवल शुद्ध शाकाहारी भोजन मिलता है। गत सप्ताह उनकी चालीस वर्षीया साधना के परिणामस्वरूप एक बहुमंजिले पगोड़ा की प्राण प्रतिष्ठा का अनुष्ठान संपन्न हुआ, जिसमें शाही राजकुमारी ने भाग लिया। इन पगोड़ा में दस हजार बुद्ध प्रतिमाएं स्थापित की गई हैं। मुख्य प्रतिमा देवी दुर्गा के सहस्त्र हाथों वाली है, जिसे अवलोकितेश्वर का उमा रूप माना जाता है। उसकी यहां पूजा होती है और बौद्ध मंत्रों में भी उमा देवी के नाम का जाप किया जाता है। इस पगोड़ा की इक्कीस मंजिलें हैं और प्रत्येक मंजिल पर विश्वभर से लाए गए बुद्ध, गणेश, शिव, लक्ष्मी, काली, दुर्गा आदि देवताओं की सुंदर कलात्मक शिल्पकृतियां रखी गई हैं। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि इस संपूर्ण महिमावान कृति को राज परिवार और राजनेताओं का सीमा रहित समर्थन प्राप्त है। एक बौद्ध देश में महायान के माध्यम से बौद्ध भिक्षुणी की तपस्या का यह विराट रूप किसी भी दर्शनार्थी को प्रथमदृष्ट्या अभिभूत कर देता है। उनकी जीवनकथा भी बहुत रोमांचक है। बचपन में उनका विवाह हुआ था, दो बेटे हैं और पांच पोते-पोतियां। उनके पतिदेव ईसाई थे, परंतु अपनी पत्नी की अपार बुद्ध भक्ति देखकर उन्होंने बौद्ध मत का अनुशीलन किया और कालांतर में स्वयं बौद्ध भिक्षु बन गए। उनके देहांत के बाद माता सी कुंगसेन ने अपना सारा जीवन बौद्ध मत के प्रचार और थाईलैंड के बच्चों की शिक्षा के लिए समर्पित कर दिया। वह उत्तरी थाईलैंड के वनवासी बच्चों में स्कूल और संस्कार केंद्र भी चला रहीं हैं। राजकुमारी चुलाभरन के कैंसर रिसर्च सेंटर के लिए भी वह सहायता दे रही हैं। रोचक बात यह है कि उनके शिष्यों में मुस्लिम भी हैं। बहुत कम लोगों को यह जानकारी होगी कि थाईलैंड में मुस्लिम समाज में अरबी नाम रखने का रिवाज नहीं है। वे थाई भाषा के नाम रखते हैं, जैसे कंचना सुवाभुम एक मुस्लिम महिला अधिकारी हैं, जो इन थाई माताजी की प्रिय शिष्या हैं। उनका कहना है कि माताजी का व्यवहार ही ऐसा है कि उनको उसी में ईश्वर के प्रेम की अनुभूति होती है। थाई माताजी का अब अगला स्वप्न है कैलास मानसरोवर यात्रा पर जाना और शिव-शक्ति के दर्शन करना। वे इस आयु में भी एक तरुण युवती की भांति सक्रिय और सदा कार्यरत रहती हैं। उनको अचानक शिवभक्ति का कैसे ध्यान हुआ? इसके उत्तर में उनका कहना है कि कुछ वर्ष पूर्व उनको स्वप्न में शिव दर्शन हुए थे, तभी से उनके हृदय में शिवजी के प्रति गहन श्रद्धा उमड़ आई। उनके जीवन का एक अंतिम स्वप्न यह भी है कि इस शिवमंदिर में वह कैलास मानसरोवर की साक्षात प्रतिकृति बनवाएं, ताकि जो लोग स्वयं कैलास पर्वत के दर्शन नहीं कर सकते वे यहां आकर उनके रूप की पूजा कर सकें। थाई माताजी की साधना के कारण थाईलैंड में हिंदू तथा बौद्ध समन्वय का असाधारण अभूतपूर्व अध्याय रचा गया है जिससे भारत को भी प्रेरणा लेनी चाहिए और जो लोग धर्म के नाम पर हिंदू-बौद्ध समन्वय तोड़ने का प्रयास करते हैं उनको इन महान थाई माताजी के करुणामय तथा सर्व समन्वयवादी दृष्टिकोण से शिक्षा लेनी चाहिए।
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