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Tuesday, October 20, 2015

अचानक ऐसा माहौल बना दिया , मानो हिंदू क्रूर हैं। हिंदू आज पुनः सेक्यूलर आघातों का शिकार हो रहा है।


Daily Amar Ujala, 19th October 2015, page 13, main edit page article

यदि सेक्यूलर अपने ′बीफ विचारों′ के प्रति इतने ही आश्वस्त हैं, तो बिहार, उत्तर प्रदेश के चुनावों में घोषित कर दें कि उनकी सरकार यदि आई, तो गोमांस सर्वसुलभ कर देगी। फिर नतीजे देख लें। हमें यह समझना होगा कि मोदी सरकार को मिले असाधारण और अभूतपूर्व बहुमत से बौखलाए वर्ग द्वारा यह हरसंभव प्रयास किया जाएगा कि सामाजिक वातावरण ऐसा विषाक्त हो जाए, जिससे मोदी सरकार पर प्रहार किया जा सके। 
इन विवादों में उलझने के बजाय देश के हित में विकास एवं निर्माण क्षेत्र की मजबूती में जुटना सबसे बड़ी गौ-सेवा एवं भारत सेवा होगी।

उदार हुए बिना कैसे हिंदू
तरुण विजय


विकास और पूंजी निवेश की बात करते-करते अचानक ऐसा माहौल बना दिया गया है, मानो इस देश के हिंदू क्रूर और लोकतंत्र की धज्जियां उड़ाकर लोगों के खान-पान में भी बाधा डालने वाले हैं।


यदि कोई हिंदू ऐसी किसी हिंसा का समर्थन करता है, अथवा सार्वजनिक समाज में अभद्रता और हिंसा का सहारा लेता है, तो वह अपने हिंदूपन से च्युत हो जाता है। हिंदू होने का अर्थ ही है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और वैचारिक निर्बंधता में विश्वास करना।

गुलाम अली और कसूरी के कार्यक्रमों की अनुमति भाजपा नीत प्रदेश सरकार ने ही दी थी। भारत उस वर्ग में नहीं खड़ा होना चाहेगा, जहां संगीत को आक्रमण झेलना पड़े। पाकिस्तान में ऐसा होता है। लेकिन वह हमारा आदर्श नहीं हो सकता। जिससे हम सहमत नहीं भी हैं, उसे भी यदि अपनी बात कहने का कोई स्थान मिलना चाहिए, तो वह भारत ही हो सकता है।

देश का एक वर्ग, जो स्वयं को सेक्यूलर कहता है, और अंग्रेजी मीडिया में छाया हुआ है, वह हिंदू भावनाओं को आहत करना ही सेक्यूलरवाद की कसौटी मान बैठा है। जिस देश में कृष्ण को गोपाल कहकर पूजा जाता है, और जहां करोड़ों ऐसे हिंदू रहते हैं, जो गाय को अपनी मां के समान मानते हैं, वहां गाय को निशाना बनते देखना अपनी जननी पर आक्रमण के समान माना जाता है। क्या हिंदू अपने देश में अपनी भावनाओं के सम्मान की अपेक्षा नहीं कर सकते?



विश्व में यदि सर्वप्रथम किसी जाति और समाज ने उदार चरितानाम वसुधैव कुटुम्बकम कहा, तो वह हिंदू ही है। उदार हुए बिना आप हिंदू कैसे हो सकते हैं? इसी उदार हिंदू ने उन सेक्यूलर आघातों से परेशान होकर छद्म सेक्यूलरवाद शब्द गढ़ा, जिन आघातों ने हिंदू विरोध को ही सेक्यूलर होने का पर्याय बना दिया था। इसी माहौल का परिणाम नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को अभूतपूर्व जन समर्थन में मिला। अपने हिंदू होने के प्रति क्षमा भाव न रखने वाला हिंदू आज पुनः सेक्यूलर आघातों का शिकार हो रहा है।
विकास और पूंजी निवेश की बात करते-करते अचानक ऐसा माहौल बना दिया गया है, मानो इस देश के हिंदू क्रूर और लोकतंत्र की धज्जियां उड़ाकर लोगों के खान-पान में भी बाधा डालने वाले हैं। दादरी कांड, गुलाम अली के गायन कार्यक्रम और कसूरी की पुस्तक के विमोचन पर हुआ हंगामा तथा कुछ लेखकों की घृणित हत्या की घटनाओं से मीडिया एवं सार्वजनिक समाज के अन्य माध्यमों पर छाए कुछ लोगों ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि ये घटनाएं उन प्रदेश सरकारों से संबंधित नहीं है, जहां ये घटी हैं, बल्कि इन सबकी जिम्मेदारी दिल्ली में मोदी सरकार और हिंदू संगठनों की है।
यह एक विद्रूप भरी स्थिति है। यदि कोई हिंदू ऐसी किसी हिंसा का समर्थन करता है, अथवा सार्वजनिक समाज में अभद्रता और हिंसा का सहारा लेता है, तो वह अपने हिंदूपन से च्युत हो जाता है। हिंदू होने का अर्थ ही है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और वैचारिक निर्बंधता में विश्वास करना।
दादरी कांड के संबंध में मैंने कहा था कि इकलाख की बेटी का दुख हमारी अपनी बेटी के दुख जैसा महसूस होता है। किसी को भी किसी भी स्थिति में कानून अपने हाथ में लेने अथवा भीड़ का न्याय अपनाने की अनुमति नहीं दी जा सकती। लेकिन इसे भी प्रताप भानु मेहता जैसे लेखक ने तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया। गुलाम अली और कसूरी के कार्यक्रमों की अनुमति भाजपा नीत प्रदेश सरकार ने ही दी थी। भारत उस वर्ग में नहीं खड़ा होना चाहेगा, जहां संगीत को आक्रमण झेलना पड़े। पाकिस्तान में ऐसा होता है। लेकिन वह हमारा आदर्श नहीं हो सकता। जिससे हम सहमत नहीं भी हैं, उसे भी यदि अपनी बात कहने का कोई स्थान मिलना चाहिए, तो वह भारत ही हो सकता है।
भारत के हिंदू दुनिया भर में जाते हैं और उन होटलों में भी अपनी पसंद का या शाकाहारी खाना खाते हैं, जहां गोमांस बनता है। स्वामी विवेकानंद ने अपनी पुस्तक प्राच्य और पाश्चात्य में हिंदुओं के खान-पान संबंधी तीव्र मतों पर कठोर प्रहार किया है। भारत के जो संत और भिक्षु धर्म प्रचार के लिए विश्व भर में गए, वे यदि खान-पान के संबंध में इतनी तीव्रताएं व्यवहार में लाते, तो क्या चीन, जापान, कोरिया जैसे देशों में बौद्ध मत एवं हिंदू सनातन विचार का प्रसार हो पाता? सामिष और निरामिष का द्वंद्व बहुत पुराना है, और यह सदैव व्यक्तिगत पसंद और नापसंद का ही विषय बने रहना चाहिए।
देश का एक वर्ग, जो स्वयं को सेक्यूलर कहता है, और अंग्रेजी मीडिया में छाया हुआ है, वह हिंदू भावनाओं को आहत करना ही सेक्यूलरवाद की कसौटी मान बैठा है। जिस देश में कृष्ण को गोपाल कहकर पूजा जाता है, और जहां करोड़ों ऐसे हिंदू रहते हैं, जो गाय को अपनी मां के समान मानते हैं, वहां गाय को निशाना बनते देखना अपनी जननी पर आक्रमण के समान माना जाता है। क्या हिंदू अपने देश में अपनी भावनाओं के सम्मान की अपेक्षा नहीं कर सकते?
कुछ लोगों द्वारा साहित्य अकादेमी पुरस्कार भी लौटाए जा रहे हैं। क्या वे इस बात का जवाब देंगे कि देश में क्या 1984 के सिख दंगों से भी ज्यादा भयानक स्थिति आ गई है? उस समय ये लोग खामोश रहे। तब भी इन लोगों की आत्मा नहीं तड़पी, जब करीब पांच लाख हिंदुओं को अपमानित एवं उनकी स्त्रियों को जलील कर कश्मीर से निकलने के लिए मजबूर किया गया, या जब देश के सैनिक, साधारण अध्यापक और किसान नक्सलियों के हाथों मारे जाते हैं। उनकी पुरस्कार वापसी घटिया राजनीति ही है।
इसी प्रकार पानसारे और कलबुर्गी जैसे लेखकों की हत्या भर्त्सना योग्य है। हालांकि लोग नहीं जानते कि कलबुर्गी ने अपने लेखों और भाषणों में अपनी दृष्टि से अंधविश्वास पर हमला करते हुए कई बार सीमाएं भी लांघी हैं। इसका कुछ विरोध हुआ, लेकिन फिर भी यदि ऐसे कथन पर आपत्ति है, तो सहारा केवल कानून का ही लिया जाना चाहिए। दुर्भाग्य से स्वयं को सेक्यूलर कहने वाले वर्ग ने पिछले छह दशकों से हर बौद्धिक संस्थान, मीडिया घरानों के स्तंभों तथा शासकीय केंद्रों से संचालित शिक्षा माध्यमों से स्टालिन की मानसिकता दिखाते हुए राष्ट्रीयता की विचारधारा से जुड़े लोगों को अस्पृश्य बनाए रखना। उनकी मठाधीशी अब खत्म हो रही है, तो उन्हें बौखलाहट में केवल मोदी पर हमला ही सूझ रहा है।
यदि सेक्यूलर अपने ′बीफ विचारों′ के प्रति इतने ही आश्वस्त हैं, तो बिहार, उत्तर प्रदेश के चुनावों में घोषित कर दें कि उनकी सरकार यदि आई, तो गोमांस सर्वसुलभ कर देगी। फिर नतीजे देख लें। हमें यह समझना होगा कि मोदी सरकार को मिले असाधारण और अभूतपूर्व बहुमत से बौखलाए वर्ग द्वारा यह हरसंभव प्रयास किया जाएगा कि सामाजिक वातावरण ऐसा विषाक्त हो जाए, जिससे मोदी सरकार पर प्रहार किया जा सके। इन विवादों में उलझने के बजाय देश के हित में विकास एवं निर्माण क्षेत्र की मजबूती में जुटना सबसे बड़ी गौ-सेवा एवं भारत सेवा होगी।

3 comments:

अमित/Амит/অমিত/Amit said...

तरुण जी,
हालांकि मैं आपसे कुछेक मुद्दों से इत्तेफ़ाक़ नहीं रखता हूँ लेकिन यहाँ आपके शब्दों से पूरी तरह सहमत हूँ. वर्तमान माहौल से समझा जा सकता है कि हमारा "इतिहास लेखन" किस तरह हुआ है. जब वर्तमान में आँखों के सब सामने हैं, तब ये लोग एकतरफा लिख रहे हैं तो अतीत में गुजरी हुई घटनाएं कितनी एकतरफा लिखीं होगीं इन (कथित) बुद्धजीवियों ने, इसका सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है.
लेकिन इसमें दोष हिंदी मीडिया का भी कम नहीं है. मैं देखता हूँ कि आप जैसे कोई और यहाँ लिखता भी है तो अच्छे से अच्छे समाचार माध्यमों में (जागरण/अमर उजाला या भास्कर) छपने के बाद भी वह उतना लोकप्रिय नहीं हो पता. इसका कारण मुझे लगता है कि सोशल मीडिया पर अश्लीलता/चटखारे परोस कर ये माध्यम अपना गंभीर पाठक वर्ग खो चुके हैं जिस कारण हिंदी माध्यमों में लिखे हुए विचारों का प्रसार ही नहीं हो पाता. कहने को तो ये समाचार समूह देश-दुनिया में नंबर एक हैं लेकिन इनके यहाँ गंभीर लेखन/खोजी लेखन का शायद पूर्णतः अभाव है.

अमित/Амит/অমিত/Amit said...

तरुण जी,
हालांकि मैं आपसे कुछेक मुद्दों से इत्तेफ़ाक़ नहीं रखता हूँ लेकिन यहाँ आपके शब्दों से पूरी तरह सहमत हूँ. वर्तमान माहौल से समझा जा सकता है कि हमारा "इतिहास लेखन" किस तरह हुआ है. जब वर्तमान में आँखों के सब सामने हैं, तब ये लोग एकतरफा लिख रहे हैं तो अतीत में गुजरी हुई घटनाएं कितनी एकतरफा लिखीं होगीं इन (कथित) बुद्धजीवियों ने, इसका सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है.
लेकिन इसमें दोष हिंदी मीडिया का भी कम नहीं है. मैं देखता हूँ कि आप जैसे कोई और यहाँ लिखता भी है तो अच्छे से अच्छे समाचार माध्यमों में (जागरण/अमर उजाला या भास्कर) छपने के बाद भी वह उतना लोकप्रिय नहीं हो पता. इसका कारण मुझे लगता है कि सोशल मीडिया पर अश्लीलता/चटखारे परोस कर ये माध्यम अपना गंभीर पाठक वर्ग खो चुके हैं जिस कारण हिंदी माध्यमों में लिखे हुए विचारों का प्रसार ही नहीं हो पाता. कहने को तो ये समाचार समूह देश-दुनिया में नंबर एक हैं लेकिन इनके यहाँ गंभीर लेखन/खोजी लेखन का शायद पूर्णतः अभाव है.

अमित/Амит/অমিত/Amit said...

तरुण जी,
हालांकि मैं आपसे कुछेक मुद्दों से इत्तेफ़ाक़ नहीं रखता हूँ लेकिन यहाँ आपके शब्दों से पूरी तरह सहमत हूँ. वर्तमान माहौल से समझा जा सकता है कि हमारा "इतिहास लेखन" किस तरह हुआ है. जब वर्तमान में आँखों के सब सामने हैं, तब ये लोग एकतरफा लिख रहे हैं तो अतीत में गुजरी हुई घटनाएं कितनी एकतरफा लिखीं होगीं इन (कथित) बुद्धजीवियों ने, इसका सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है.
लेकिन इसमें दोष हिंदी मीडिया का भी कम नहीं है. मैं देखता हूँ कि आप जैसे कोई और यहाँ लिखता भी है तो अच्छे से अच्छे समाचार माध्यमों में (जागरण/अमर उजाला या भास्कर) छपने के बाद भी वह उतना लोकप्रिय नहीं हो पता. इसका कारण मुझे लगता है कि सोशल मीडिया पर अश्लीलता/चटखारे परोस कर ये माध्यम अपना गंभीर पाठक वर्ग खो चुके हैं जिस कारण हिंदी माध्यमों में लिखे हुए विचारों का प्रसार ही नहीं हो पाता. कहने को तो ये समाचार समूह देश-दुनिया में नंबर एक हैं लेकिन इनके यहाँ गंभीर लेखन/खोजी लेखन का शायद पूर्णतः अभाव है.