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Sunday, November 29, 2009

अयोध्या आंदोलन का असर

दैनिक जागरण
29,Nov,2009

तरुण विजय

लिब्रहान आयोग ने वही किया जो लालू प्रसाद यादव की पहल पर बनर्जी आयोग ने गोधरा कांड के बारे में किया था। सदियों विदेशी, विधर्मी आघातों का अनवरत सिलसिला झेलने के बाद भी हिंदुओं के लिए अपमान और तिरस्कार का दौर खत्म नहीं हुआ। जो लोग ऊंचे पदों पर बैठे प्रभावशाली हिंदुओं को देखकर प्रतिवाद करना चाहते हैं उन्हें अंग्रेजों के जमाने के रायबहादुर और मुगलों के समय के बीरबल याद करने चाहिए। सत्ता और सम्मान के हिस्सों के लिए अपने ही हितों पर चोट करना हमारा पुराना इतिहास रहा है। भगत सिंह के खिलाफ गवाही देने वाले ऐसे ही रायबहादुर हुआ करते थे। आज के भारत पर नजर दौड़ाकर कोई भी समझ सकता है कि हम मुट्ठीभर अंग्रेजों द्वारा इतने वर्षो तक गुलाम कैसे बनाए गए थे। जब सारा देश शहीदों की याद में सिर झुकाए नमन कर रहा था और आतंकवादियों के खिलाफ एकजुटता का प्रदर्शन कर रहा था उस समय देश के प्रधानमंत्री वाशिगटन में ओबामा के शानदार डिनर का लुत्फ उठा रहे थे। हो सकता है कि उन्होंने इस बहाने कुछ काम की बातें भी की हों, पर शासन व्यवस्था और राजनीति छवि पर ज्यादा निर्भर होती है। चीन यात्रा में ओबामा ने बीजिंग के प्रति बराबरी का व्यवहार दिखाया और भारत को एक शानदार डिनर से खुश किया। जिस समय भारत के शीर्ष नेतृत्व को मुंबई में जनता के साथ मिलकर अपनी श्रद्धाजलि देनी चाहिए थी, विपक्ष आपसी मारकाट में उलझा था। माओवादी पेज तीन के वैसे ही रोमाटिक मसाले बनाए जा रहे हैं जैसे कसाब को बनाया गया है। इस देश की सुप्त आत्मा को संन्यासी समान जीवन की आहुति देकर जिलाने वाले संघ आदोलन के उपहास और उनके कार्यकर्ताओं के तिरस्कार का वह सिलसिला अभी तक जारी है जो अंग्रेजों के समय चला था।

लिब्रहान ने अपनी रपट में अनेक भूलें भी की हैं और विषय भ्रम तो अपार है, जैसे इसमें देवरहा बाबा पर कारसेवा का आरोप लगाया गया है, जबकि उनकेएक ज्येष्ठ अनुयायी शिव कुमार गोयल ने बताया कि बाबा तो 19 जून, 1990 को ही ब्रह्मलीन हो गए थे, जबकि ढाचा गिरा 6 दिसंबर, 1992 को। लिब्राहन ने अयोध्या का प्रसंग उठाया है तो उसका हिसाब चुकाना ही होगा। अयोध्या सिर्फ एक मंदिर के निर्माण का प्रश्न नहीं, बल्कि राष्ट्र जीवन की चेतना के जागरण का आंदोलन था, जो सोमनाथ रक्षा के हिंदू संघ की सेनाओं की भाति भीतरी छल का शिकार हुआ। उसमें इस देश का सामान्यजन पूरी निष्ठा के साथ जुड़ा था। इस आंदोलन ने पहली बार देश में जाति की सीमाएं तोड़कर अद्भुत ज्वार पैदा किया था। बरसों की गुलामी की मानसिकता का बंधन टूटने लगा था। अपने पूर्वजों में श्रीराम को भी शामिल करने वाले मुस्लिम बंधु भी इस आंदोलन से जुड़े थे, जो बाबर को विदेशी हमलावर मानते थे। इस आंदोलन ने देश की राजनीति का कलेवर और दिशा बदल दी। काग्रेस भी इस ज्वार को समझती थी। उसने ताला खुलवाने से लेकर शिलान्यास तक पूरा सहयोग किया। राजीव गांधी द्वारा अयोध्या से चुनाव प्रचार का श्रीगणेश और रामराज्य का वायदा बेमतलब राजनीति नहीं थी। लिब्रहान ने अयोध्या की गलियों में बहे कारसेवकों के खून की पुन: याद दिला दी। राम कोठारी और शरद कोठारी जैसे निहत्थे कारसेवक जय श्रीराम कहते-कहते क्यों मार डाले गए, कोई इसका कभी जवाब मागेगा? जिन पुलिस अफसरों ने निष्काम सत्याग्रही कारसेवकों को गोलिया मारीं उन्हें किनके हाथों पुरस्कार दिए गए, इसका भी कोई तो कभी हाल लिखेगा। किसने कारसेवकों को उत्तेजित कर ढाचा ढहाने तक ले आने की सुनियोजित कार्यनीति बनाई, यह काग्रेस कब तक छिपा सकती है। रज्जू भैया बार-बार नरसिंह राव से अनुरोध करते रहे कि इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला जल्दी दिलवाइए, ताकि 6 दिसंबर को अयोध्या जाने वाले कारसेवक अविवादित भूमि पर कारसेवा कर सकें और प्रतीकात्मक कारसेवा के बाद शांतिपूर्वक लौट सकें, पर क्या कारण रहा कि घोषित तिथि के बावजूद फैसला टाला गया। हंसराज भारद्वाज की इलाहाबाद यात्रा का क्या मकसद था? ये सब प्रश्न तब सामने आएंगे जब सत्ता की राजनीति में अपना घर जलाकर भी हिंदू हितों के साथ छल न करने वाले लोग आएंगे। इस देश की कोख ऐसे वीर राजनेताओं को जन्म देगी ही। कब तक? यह समय के गर्भ में छिपा माना जाना चाहिए। सैन्य शक्ति से देश नहीं बनते, गिरोह बन सकते हैं। देश बनता है स्वाभिमान, सभ्यता और चरित्र से। जो अपने पूर्वजों का नहीं हो सकता वह अपनी मातृभूमि का कैसे हो सकता है? प्रसिद्ध शायर इकबाल ने श्रीराम को इमामे हिंद कहा था और बाबर महज एक लुटेरा हमलावर था। संपादक एवं सांसद नरेंद्र मोहन ने अपनी पुस्तक 'हिंदुत्व' में विवादित ढाचे के गिराए जाने से असहमति प्रकट करते हुए लिखा था-जिस ढांचे को गिराया गया उसकी क्या पृष्ठभूमि थी? क्या वह ढांचा या भवन वास्तव में एक मस्जिद के रूप में प्रयुक्त हो रहा था?

आज निर्भीक तथ्यपरक लेखन पर कुहासा छाया हुआ है। अयोध्या आदोलन इसी कुहासे के अंत का प्रयास था। उसमें हिंदू, मुसलमान, सभी वगरें के लिए राष्ट्रीयता की भावना को साथ में लेकर चलने का संदेश था। गंदे तीर्थस्थल, जातिवाद का विष, आपसी फूट के कारण विदेशी तत्वों का प्रभाव, दमित, शोषित वर्ग को उपकरण बनाकर सत्तारोहण, इन सबके विरुद्ध एक सुधारवादी और नवीन भविष्य को गढ़ने का नाम था अयोध्या। उस आदोलन के बाद देश-विदेश के अत्यंत महत्वपूर्ण लोग हिंदुत्व आदोलन से जुड़े, जिनमें पत्रकार गिरिलाल जैन, जनरल जैकब, जनरल कैनडेथ, प्रो. एमजीके मेनन, अभिनेता विक्टर बनर्जी के अलावा वीएस नायपाल जैसे विश्वविख्यात नोबेल पुरस्कार विजेता लेखक भी थे। क्या वह सब निष्फल जाएगा? अयोध्या आदोलन अपनी दीप्ति और आभा के साथ पुन: देश को आलोकित करेगा, यह विश्वास लेकर ही चलना चाहिए।


[तरुण विजय : लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं]

1 comment:

Anonymous said...

Mr Vijay The Point Which You pointed out which is exactly right.I am totally agree with your statement.