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Friday, March 12, 2010

नवभारत टाइम्स

10 March 2010

ये संत गरीबों में अपना ईश्वर क्यों नहीं ढूंढते?


तरुण विजय


जिस देश में बच्चे रोटी और कपड़े के मुफ्त वितरण में यूं झपट पड़े कि अकाल काल के ग्रास बन जाएं, उस देश के किस देवता को हम अपना नैवैद्य अर्पित करें? जिस देश में भुखमरी, कंगाली और बदहाली बच्चों से उनका बचपन छीन ले और बूढ़ों को फुटपाथ पर मरने के लिए छोड़ दें, उस देश में कौन से मन्दिर किसकी पूजा, किसका मठ और भागवत कथा ईश्वर स्वीकार करेंगे?

उत्तर प्रदेश फिर समाचारों में छाया और इस बार समाचार थे बच्चों की अकाल मृत्यु के। यह मुद्दा कि वे किसी धार्मिक स्थान में गए, या कि वहां अव्यवस्था थी, अथवा प्रशासन मुस्तैद नहीं था, सन्दर्भहीन है। यह वह क्षेत्र है जहां बुंदेलखण्ड के अकाल, सूखी धरती, मानिकपुर के जनजातीय दरिद्र, पूर्वांचल की अथाह गरीबी किसी को संतप्त नहीं करती। इस कुहासे में अथाह, बदबूदार धन के मालिक जनता की कमाई पर बदसूरत ऐश्वर्य के नए-नए अपयश-मान निर्माण करते दिखते हैं। यह वह प्रदेश है जिसने देश को अधिकतम प्रधानमंत्री दिए, जहां जिस पार्टी का भाग्य प्रबल न हो वह देश पर राज करने लायक नहीं मानी जाती। यह वह प्रदेश है जहां के तीर्थ, जहां की गंगा और यमुना का स्मरण मात्र सारे देश को पवित्र करता है।


और उस प्रदेश के बच्चे, स्त्रियां हल्का, अति-सामान्य भोजन और बेहद सामान्य कपड़े का एक टुकड़ा लेने के लिए ऐसी भगदड़ मचाने को मजबूर दिखे कि 26 नौनिहाल जान खो बैठे। राहत देंगे? सांत्वना देंगे? सरकार या राजनेताओं को कोसेंगे? होगा क्या? क्या वे बच्चे वापस अपनी मां की गोद में आ पाएंगे? गरीब के बच्चे थे। इसलिए थोक में ही जान गंवाते हैं। उनकी जान गंवाना एक राहुल महाजन की दुल्हनियों के जुगुप्साजनक टीवी शो से ज्यादा कभी अहमियत नहीं पाता। गरीब के बच्चे किसी दिल्ली-सुल्तान के दिल में राजनीति से परे दर्द पैदा नहीं करते। वे मायावती को कोसेंगे, पर सच यह है कि यहां हर कोई अपने भीतर एक मायावती का रूप लिए बैठा है - एक ने मूर्त्तियों का वितण्डावाद कर गरीबों की छाती पर अट्टहास किया तो दूसरे अपने-अपने तरीके से गरीबों का वोट बैंक सहलाकर अपने बंगले सजाते हैं।


उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, बंगाल, ये प्रदेश भारत के सबसे गरीब प्रदेश क्यों है? लद्दाख की -40 सेल्सियस की सर्दी में भी क्यों बिहार, उड़ीसा और उ.प्र. के मजदूर जान गलाकर मजदूरी करने पहुंचते हैं? सरकारी पैमाने के अनुसार यदि शहरी गरीबी का स्तर प्रतिदिन 29 रुपये में जीवन चलाना है तो ग्रामीण गरीबी के लिए यह स्तर मात्र 14 रुपया है।


दिल्ली में जो बुखारा की एक कटोरी दाल के लिए 450 रुपये देते हैं और प्रति व्यक्ति 1200 से 2500 तक के डिनर देकर राजनीति पोसते हैं, उन पर जिम्मेदारी रही है कि वे भारत की गरीबी व्याख्यायित करें और उसे दूर करने के उपाय खोजें।

एक बार गरीबी हटाओ का भी नारा उछला था। सत्ता में तो तब इन्दिरा गांधी आ गईं पर गरीबी तब से अब तक बढ़ी ही है। इसके पीछे भारत की नितान्त अपरिपक्व और अमीरों का प्रतिनिधित्व करने वाली पत्रकारिता, वोट बैंक राजनीति का ऐश्वर्य और भोगवादी चरित्र और भ्रष्ट अफसरशाही है।

आइएएस, आईपीएस के सदस्य संविधान द्वारा रक्षित होते हैं। उन पर राजकीय नीतियां क्रियान्वित करने का दायित्व होता है। पर वे हर भ्रष्ट नेता के दरबारीपन में अपना मोक्ष ढूंढते हैं। यदि वे तय कर लें कि किसी नेता के गलत काम में साथ नहीं देंगे, तो कोई उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकता। पर वे फिसलते हैं, क्योंकि वे फिसलना चाहते हैं। अब तक के उनके राज में न गांवों में शौचालय पहुंचे, न हैंडपम्प चले और न ही परीक्षा के दिनों में बच्चों को 24 घंटे बिजली मिल पाती है। जिनके पास पैसा है, वे जेनरेटर लगाकर बच्चों को गिटपिटिया अंग्रेजी स्कूलों के ए.सी. वातावरण में पढ़ाकर समाज विमुख विलासी पीढ़ी की ऐसी जमात तैयार करते रहते हैं, जो गरीबों की गरीबी को अपनी अमीरी बढ़ाने का उपकरण बनाती है। जिनके पास पैसा नहीं, वे मोमबत्ती, लालटेन या गली के लैम्प पोस्ट के सहारे पढ़ाई करते हैं और एक दिन अचानक किसी अमीर नेता के जन्मदिन पर बंटती साड़ियां लेते हुए लाइन में जान खो देते हैं।


ये सामंती प्रकृति के नेता वास्तव में जनता, धर्म और राष्ट्रीयता के शत्रु हैं। किसी के पास बिना किसी ज्ञात स्रोत के असीम पैसा आ गया तो वो खैरातें बांटकर अपने चेहरे पर लिखी कालिख धोने की कोशिश करता है। जनता जस की तस रहती है।

ऐसी स्थिति में क्या भारत के उन महान धार्मिक नेताओं, संतों और प्रवचनकारों का यह कर्तव्य नहीं बनता कि वे भारत की भूखी, गरीब जनता में अपना शिव, अपना नारायण ढूंढे? विद्रोह का शंख गुंजाएं और देश का हर मन्दिर यह सुनिश्चित करें कि उसके प्रभाव क्षेत्र में कोई भूखा नहीं सोएगा। मन्दिर और संत क्यों नहीं भ्रष्ट राजनेताओं के खिलाफ आवाज उठाते? कृष्ण के पूजक यदि कंस की सेवा में रत दिखेंगे तो गोबर्द्धन कौन उठाएगा?


जिसने संसार त्याग दिया, उसे संत कहते हैं। जो वीतरागी हो गया, जिसकी आंखों में स्वर्णमुद्रा और धूलिकण बराबर है, वह साधु कहलाता हैं। पर देखिए, आज क्या हाल है? राजनेताओं को अपने आश्रम में एक बार बुला लेने भर को साधु-संतों में यूं होड़ मची रहती है, मानो उनका आश्रम राजपुरुष की चरणधूलि से पवित्र हो जाएगा। उनके आश्रम ऐश्वर्य की चमक से चुंधियाते हैं और किसान अपने गांव के किनारे के शिवमंदिर में जाकर रोता है कि, हे प्रभु! अन्नदाता तो मुझे कहा जाता है, पर जीवन अब जीने लायक नहीं दिखता। गन्दी गंगा, प्रदूषित यमुना, सड़े-गले मन्दिर, अशिक्षित पंडों की लूट, ज्ञानियों का तिरस्कार, संस्कृत और संस्कृति का अपमान, फिर भी हमारा धर्म महान? धर्म तो निश्चय ही महान है, पर धर्मानुयायी जब राष्ट्र के साथ राम-भक्ति का सम्बन्ध जोड़ें तो बात बने।


इस क्षेत्र में स्वामिनारायण सम्प्रदाय, गायत्री परिवार, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, पुट्टपार्थी साईंबाबा जैसे अनेक सामाजिक-आध्यात्मिक संगठन सक्रिय हुए हैं जो भारत के भविष्य में आशा जगाता है। यह भाव और बढ़े, मठ, मन्दिर और आश्रम गांव, और गरीब के लिए भी सक्रिय हों तो असली श्री रामदर्शन होंगे।

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