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विरोध का अधिकार न देना भी तालिबानीकरण है
[Saturday, April 21, 2007 08:22:33 pm ]
तरुण विजय
संपादक, पांचजन्य
एक ऐसे देश में जहां सौंदर्य और लालित्य देवालयों का भी अभिन्न अंग रहा है और मुक्त चिंतन की ऐसी परंपरा प्रतिष्ठित रही है, जिसमें कभी किसी गैलीलियो को उसके विचारों के कारण फांसी नहीं चढ़ाया गया, उस देश में सभी असहिष्णु विचारधाराओं के आक्रमण तालिबानीकरण का अभारतीय एवं असभ्य दौर पैदा करते हुए हिंदू समाज पर ही उसका दोषारोपण करने का हास्यास्पद प्रयास कर रहे हैं। पुस्तकों पर प्रतिबंध, लेखन और कार्टूनों पर मौत के फतवे तथा बलात्कार की शिकार महिला को बलात्कारी से ही शादी का निर्देश देना कभी भारतीय भाव भूमि का अंग नहीं रहा। लेकिन जुगुप्सा जनक उछृंखलता और वासना का व्यापार सार्वजनिक जीवन और अखबारों के पहले पन्ने पर छाने लगे तो उसके विरोध का अधिकार भी समाज को नहीं देना तालिबानीकरण है। ऐसी घटनाओं का विरोध नैतिक पुलिसियापन नहीं। नैतिक पुलिसियापन तो वे लोग दिखा रहे हैं जो कामुक चित्रों का प्रकाशन करना अखबार की प्रसार संख्या या चैनल की लोकप्रियता बढ़ाने का आसान फॉर्म्युला तो मानते हैं, लेकिन समाज के किसी वर्ग को उसकी आलोचना तक का अधिकार नहीं देना चाहते। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्षधर इतने एकपक्षीय और आत्ममुग्ध दिखते हैं कि अपनी आलोचना वे तालिबानीकरण मान लेते हैं। अब मुंबई की आइटम अभिनेत्रियां अखबारों में मुफ्त की प्रसिद्ध पाने के लिए ऐसी ही हरकतों का आसान रास्ता अपनाने लगी हैं। इन बातों को पहले पन्ने पर महत्व देना हमारे बौद्धिक दीवालियापन और पत्रकारिता के क्षेत्र में गंभीर विषयों पर मेहनत न करने की प्रवृत्ति का द्योतक है। भोपाल में ही नहीं गुजरात, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में भी एक खास किस्म के अभियान का सिलसिला चला है, जिसमें हजारों हिंदू लड़कियों का मुस्लिम लड़कों से विवाह हुआ है। मामला इतना गंभीर है कि इसकी छानबीन के लिए इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने सरकार को निर्देश दिया है। लेकिन सेक्युलर तालिबान आहत हिंदू मन की पीड़ा को अभिव्यक्त होने की भी अनुमति नहीं देना चाहते। जब हिंदू पूछना चाहते हैं कि आखिर क्यों देश के हर बड़े और प्रभावशाली मुस्लिम ने हिंदू युवती से ही शादी करना और बाद में मुस्लिम परिवार बसाना सेक्युलर निशानी मान ली है, उन्हें सांप्रदायिक विद्वेष का तमगा थमा दिया जाता है। आमतौर पर हिंदू यह मानता रहा है कि अगर लड़का-लड़की राजी हैं तो इसमें हिंदू मुस्लिम या ऊंची नीची जात का भी कोई सवाल खड़ा करना बेमानी है। यह एक निजी पसंद और अपने ढंग से अपनी जिंदगी जीने का फैसला होता है, जिसमें किसी को दखल देने का हक नहीं है। लेकिन यदि हिंदुओं की यही उदार सोच उनकी कमजोरी मान ली जाए और इसका सहारा लेकर एक सोची समझी रणनीति के अंतर्गत हिंदू युवतियों का विवाह के रास्ते इस्लामीकरण किया जाए तो संगठित शक्ति से अपने समाज की संस्कृति और धर्म की रक्षा का दायित्व अगर हिंदू नहीं निभाएंगे तो कौन निभाएगा? वास्तव में जिहादी हमलों और सेक्युलर तालिबानों का अंध हिंदुत्व विरोध हिंदू समाज को अपनी प्रतिक्रियाओं को क्रुद्ध जामा पहनाने पर मजबूर करता दिखता है। जिस समाज में प्राचीनकाल में गार्गी और मैत्रेयी रहीं तो आधुनिक काल में मां शारदा, पंडिता रमा बाई, अमृतानंदमयी, इंदिरा गांधी, सुनीता पांडे विलियम्स, कल्पना चावला जैसी प्रगतिशील नारी प्रतीक रही हैं, वहां शिल्पा शेट्टी को वैचारिक मुक्तता और नारी स्वातंत्र्य का प्रतीक बनाना और नग्नता के विरोध को नैतिक पुलिसियापन कहना सतही साइबेरियावादी सोच है। ऐसे लोग बताएं यदि उनकी अपनी बेटी के साथ रिचर्ड गेरे मंच पर वैसा बर्ताव करता तो क्या वे तालियां बजाकर अपनी प्रगतिशीलता दिखाते?
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