Aug:24-09-2009
तरुण विजय
नेपाल के नए प्रधानमंत्री माधव नेपाल की भारत यात्रा का खास महत्व है। माओवादी सरकार गिरने के बाद लोकतात्रिक शक्तियों के सर्वसम्मत समर्थन के फलस्वरूप माधव नेपाल संघीय नेपाल गणतंत्र के दूसरे प्रधानमंत्री निर्वाचित हुए। उन्हें 22 राजनीतिक दलों के 360 सासदों का समर्थन मिला, जबकि माओवादियों के 238 सासदों ने उन्हें मत नहीं दिया। माधव नेपाल से मेरा परिचय लगभग 20 वर्ष पुराना है, जब वह अपनी पार्टी के उभरते नेताओं में माने जाते थे। सौम्य, सरल और असंदिग्ध रूप से नेपाल के प्रति प्रतिबद्ध माधव नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के नेता भले ही हों, पर वह प्रखर राष्ट्रवादी नेपाली हैं। इस बार उन्होंने अपने व्यस्त कार्यक्रमों से समय निकालकर मुझे सुबह चाय पर आमंत्रित किया और उनके साथ एकातिक रूप से मेरी नेपाल के नए भविष्य के संदर्भ में चर्चा हुई। वह मुख्यत: नेपाल के औद्योगिकीकरण, भारत द्वारा पूंजी निवेश और नेपाल के युवाओं के लिए विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में नए अवसर उपलब्ध कराने के प्रति चिंतित दिखे। उन्होंने स्पष्ट कहा कि अभी भी काफी बड़ी संख्या में माओवादी गुरिल्लाओं ने हथियार नहीं डाले हैं और अगर उन्होंने लोकतात्रिक रास्ता नहीं अपनाया तो सरकार उनके प्रति कठोर कार्रवाई से नहीं हिचकेगी। यह विडंबना है कि लोकतात्रिक अभिव्यक्ति के सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि के नाते माधव नेपाल की प्रधानमंत्री के रूप में पहली भारत यात्रा मीडिया और सामान्य जनचर्चा की दृष्टि से उपेक्षित रही। मीडिया शिमला, जिन्ना और जसवंत सिंह की पुस्तक की चर्चा में इतना डूबा रहा कि दुनिया में जिस हिंदू बहुल नेपाल राष्ट्र के साथ भारत के सर्वाधिक आत्मीय और सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण रिश्ते हैं उसके संबंध में चर्चा के लिए किसी चैनल या अखबार को अवकाश नहीं मिला। इसके विपरीत यदि भारत से शत्रुता रखने वाले पाकिस्तान जैसे देश से कोई प्रधानमंत्री से भी छोटे स्तर का नेता आता तो यही अखबार और चैनल उसे ज्यादा महत्व देते।
नेपाल में 22 राजनीतिक दलों के सामूहिक निर्णय से बनी गैर माओवादी सरकार का गठन होना भारत के लिए एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम है। एक दशक से अधिक समय तक चले माओवादी हिंसक गुरिल्ला आतंकवाद के फलस्वरूप 12 हजार से अधिक नेपालियों की हत्याएं हुई थीं। तब उसे रोमाटिक पंथनिरपेक्षतावादियों द्वारा राजतंत्र के विरुद्ध जनविद्रोह की संज्ञा दी गई थी। नेपाल के माओवादियों तथा भारत के कम्युनिस्ट समर्थकों ने मान लिया था कि माओवादियों को गणतंत्र की मुख्यधारा में शामिल करके नेपाल का भविष्य सुरक्षित किया जा सकता है। राजतंत्र की समाप्ति, हिंदू राष्ट्र की संवैधानिक मान्यता के अंत और नेपाल की शाही सेना में माओवादी गुरिल्लाओं की भर्ती जैसे विवादास्पद बिंदुओं पर टिका नया संघीय नेपाल गणतंत्र उदित हुआ। यह भारत में चीन समर्थक तत्वों की विजय के रूप में भी देखा गया। गणतंत्र के पहले माओवादी प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल यानी प्रचंड प्रधानमंत्री की शपथ लेने के बाद पहले बीजिंग गए और बाद में भारत आए। वह यहा सभी राजनीतिक दलों के नेताओं से मिले और भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह के साथ जलपान के दौरान उन्होंने हिंदू हितों के प्रति अपनी संवेदना दिखाते हुए भारत-नेपाल संबंधों को अयोध्या-जनकपुर के रिश्तों अर्थात राम और जानकी के संबंधों से निरूपित किया, लेकिन काठमाडू पहुंचते ही उनका हिंदू और भारत विरोधी रवैया अनेक घटनाओं द्वारा प्रकट हुआ। उन्होंने पशुपतिनाथ मंदिर की चिरपुरातन पुजारी व्यवस्था बदलने का प्रयास किया, जो व्यापक जनआदोलन के विरोधस्वरूप वापस लेना पड़ा। राष्ट्रपति चुनाव के समय भितरघात और अहंकारयुक्त राजनीति केपरिणामस्वरूप उनकी सरकार गिर गई और माधव नेपाल नए प्रधानमंत्री बने।
माधव नेपाल के सामने कठिन चुनौतिया हैं। एक ओर नेपाल के विकास की योजनाएं लागू करने और नया संविधान लिखने का काम समय सीमा के भीतर पूरा करने का दायित्व है और दूसरी ओर माओवादियों द्वारा सरकार गिराने की कोशिशें जारी हैं। साथ ही नेपाली काग्रेस के महत्वाकाक्षी नेता सरकार चलाने में राजनीतिक बाधाएं डाल रहे हैं। प्रधानमंत्री माधव नेपाल की भारत यात्रा के समय विदेश मंत्री सुजाता कोइराला नहीं आईं। हालाकि इसके लिए उन्होंने अपनी खराब तबियत को कारण बताया, किंतु नेपाल में मोटे तौर पर यह माना गया है कि सुजाता कोइराला ने उप प्रधानमंत्री पद हासिल करने के लिए दबाव बनाने को यह रास्ता चुना। इसकी नेपाल में निंदा हुई। स्वयं सुजाता की पार्टी ने ही इसकी आलोचना करते हुए माधव को पूरा समर्थन दिए जाते रहने का आश्वासन दिया, लेकिन इस प्रकरण से माधव नेपाल की कमजोर अंदरूनी स्थिति का तो अंदाजा हो ही गया। यदि उनकी सरकार में शामिल कैबिनेट मंत्री ही अपने प्रधानमंत्री की विदेश यात्रा के समय इस प्रकार का घटनाक्रम उपस्थित कर सकते हैं तो केवल नेपाल में ही नहीं, बल्कि अन्य देशों में भी ऐसी सरकार के स्थायित्व पर सवाल उठने स्वाभाविक ही होंगे।
नेपाल में गैर माओवादी लोकतात्रिक सरकार का स्थायित्व भारत के लिए रणनीतिक आवश्यकता है। दुर्भाग्य से भारत के राजनीतिक दल अपनी आतंरिक स्थितियों के प्रति इतने केंद्रित रहे हैं कि नेपाल में अपने मित्रों की सहायता के लिए उन्होंने समय ही नहीं निकाला। नेपाल पाकिस्तान और चीन ही नहीं, बल्कि बाग्लादेशी जिहादियों का भी अड्डा बनता जा रहा है। भारत में पाकिस्तानी षड्यंत्र से नकली करेंसी भी नेपाल मार्ग से ही भारत भेजे जाने के समाचार मिले हैं। मौजूदा स्थिति नेपाल में वर्तमान सरकार को स्थायित्व देते हुए माओवादियों को भविष्य में सिर न उठाने देने की माग करती है। अगर भारत अपने इस दायित्व से चूका तो आने वाला समय अस्थिर और अराजक नेपाल को उभरते देख सकता है।
नेपाल में 22 राजनीतिक दलों के सामूहिक निर्णय से बनी गैर माओवादी सरकार का गठन होना भारत के लिए एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम है। एक दशक से अधिक समय तक चले माओवादी हिंसक गुरिल्ला आतंकवाद के फलस्वरूप 12 हजार से अधिक नेपालियों की हत्याएं हुई थीं। तब उसे रोमाटिक पंथनिरपेक्षतावादियों द्वारा राजतंत्र के विरुद्ध जनविद्रोह की संज्ञा दी गई थी। नेपाल के माओवादियों तथा भारत के कम्युनिस्ट समर्थकों ने मान लिया था कि माओवादियों को गणतंत्र की मुख्यधारा में शामिल करके नेपाल का भविष्य सुरक्षित किया जा सकता है। राजतंत्र की समाप्ति, हिंदू राष्ट्र की संवैधानिक मान्यता के अंत और नेपाल की शाही सेना में माओवादी गुरिल्लाओं की भर्ती जैसे विवादास्पद बिंदुओं पर टिका नया संघीय नेपाल गणतंत्र उदित हुआ। यह भारत में चीन समर्थक तत्वों की विजय के रूप में भी देखा गया। गणतंत्र के पहले माओवादी प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल यानी प्रचंड प्रधानमंत्री की शपथ लेने के बाद पहले बीजिंग गए और बाद में भारत आए। वह यहा सभी राजनीतिक दलों के नेताओं से मिले और भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह के साथ जलपान के दौरान उन्होंने हिंदू हितों के प्रति अपनी संवेदना दिखाते हुए भारत-नेपाल संबंधों को अयोध्या-जनकपुर के रिश्तों अर्थात राम और जानकी के संबंधों से निरूपित किया, लेकिन काठमाडू पहुंचते ही उनका हिंदू और भारत विरोधी रवैया अनेक घटनाओं द्वारा प्रकट हुआ। उन्होंने पशुपतिनाथ मंदिर की चिरपुरातन पुजारी व्यवस्था बदलने का प्रयास किया, जो व्यापक जनआदोलन के विरोधस्वरूप वापस लेना पड़ा। राष्ट्रपति चुनाव के समय भितरघात और अहंकारयुक्त राजनीति केपरिणामस्वरूप उनकी सरकार गिर गई और माधव नेपाल नए प्रधानमंत्री बने।
माधव नेपाल के सामने कठिन चुनौतिया हैं। एक ओर नेपाल के विकास की योजनाएं लागू करने और नया संविधान लिखने का काम समय सीमा के भीतर पूरा करने का दायित्व है और दूसरी ओर माओवादियों द्वारा सरकार गिराने की कोशिशें जारी हैं। साथ ही नेपाली काग्रेस के महत्वाकाक्षी नेता सरकार चलाने में राजनीतिक बाधाएं डाल रहे हैं। प्रधानमंत्री माधव नेपाल की भारत यात्रा के समय विदेश मंत्री सुजाता कोइराला नहीं आईं। हालाकि इसके लिए उन्होंने अपनी खराब तबियत को कारण बताया, किंतु नेपाल में मोटे तौर पर यह माना गया है कि सुजाता कोइराला ने उप प्रधानमंत्री पद हासिल करने के लिए दबाव बनाने को यह रास्ता चुना। इसकी नेपाल में निंदा हुई। स्वयं सुजाता की पार्टी ने ही इसकी आलोचना करते हुए माधव को पूरा समर्थन दिए जाते रहने का आश्वासन दिया, लेकिन इस प्रकरण से माधव नेपाल की कमजोर अंदरूनी स्थिति का तो अंदाजा हो ही गया। यदि उनकी सरकार में शामिल कैबिनेट मंत्री ही अपने प्रधानमंत्री की विदेश यात्रा के समय इस प्रकार का घटनाक्रम उपस्थित कर सकते हैं तो केवल नेपाल में ही नहीं, बल्कि अन्य देशों में भी ऐसी सरकार के स्थायित्व पर सवाल उठने स्वाभाविक ही होंगे।
नेपाल में गैर माओवादी लोकतात्रिक सरकार का स्थायित्व भारत के लिए रणनीतिक आवश्यकता है। दुर्भाग्य से भारत के राजनीतिक दल अपनी आतंरिक स्थितियों के प्रति इतने केंद्रित रहे हैं कि नेपाल में अपने मित्रों की सहायता के लिए उन्होंने समय ही नहीं निकाला। नेपाल पाकिस्तान और चीन ही नहीं, बल्कि बाग्लादेशी जिहादियों का भी अड्डा बनता जा रहा है। भारत में पाकिस्तानी षड्यंत्र से नकली करेंसी भी नेपाल मार्ग से ही भारत भेजे जाने के समाचार मिले हैं। मौजूदा स्थिति नेपाल में वर्तमान सरकार को स्थायित्व देते हुए माओवादियों को भविष्य में सिर न उठाने देने की माग करती है। अगर भारत अपने इस दायित्व से चूका तो आने वाला समय अस्थिर और अराजक नेपाल को उभरते देख सकता है।