दैनिक जागरण
27 July, 2009
तरुण विजय
पिछले दिनों हरियाणा में जींद के एक गाव में सैकड़ों ग्रामीणों ने बड़ी वीरता का प्रदर्शन किया। वहशियों की तरह उन्होंने अपने ही गाव के एक निहत्थे युवक को दौड़ा-दौड़ा कर इतना पीटा कि उसकी मृत्यु हो गई। वह युवक अपनी पत्नी को घर लिवा लाने के लिए पुलिसकर्मियों व अदालती अफसरों के साथ ससुराल पहुंचा था। राजनेताओं और भ्रष्ट पुलिस की साठगाठ के चलते इस मामले में किसी के प्रति न्याय होगा, इसका कोई भरोसा नहीं। जिस युवती से युवक का प्रेम विवाह हुआ था, उसके मा-बाप और गाव वाले शायद अपने गाव, घर और खानदान की इज्जत बचाने के नाम पर अब खुश भी होंगे और मामले को दबा भी देंगे। इस कोलाहल में क्या किसी का ध्यान उस बेचारी युवती की व्यथा पर जाएगा, जिसे घर में कैद कर उसके पति को बर्बरता से मार डाला गया।
व्यापक हिंदू समाज के भीतर विभिन्न जातियों और संप्रदायों में शादी करने पर अक्सर उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब व राजस्थान में नवविवाहित दंपति की उनके ही परिजनों व धर्मरक्षकों द्वारा हत्या किए जाने के समाचार मिलते हैं। कोई हिंदू सामाजिक, धार्मिक नेता इसकी कभी निंदा नहीं करता। वास्तव में विवेकानंद, सावरकर और लोहिया के बाद हिंदुओं के भीतर पनप रहे पाखंड, जड़तामूलक जातिवाद और अस्वस्थ रूढि़यों के विरुद्ध कोई विशेष स्वर नहीं उठा। केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और गायत्री परिवार जैसे आध्यात्मिक आंदोलन सुधारवादी हिंदू मान्यताओं को जीवन में उतारने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन इसके बावजूद जातिगत क्षुद्रता का अहंकार बड़े-बड़े दिग्गजों के व्यवहार में दिखता है। यह राजनीति में जातिवाद की प्रतिष्ठा का विष फल है। बहुत कम लोग हानि-लाभ की चिंता किए बिना जाति भेद के विरुद्ध खड़े होते हैं। मा.स. गोलवलकर, बाला साहब देवरस, रज्जू भैया सदृश चिंतकों ने समरसता का व्यवहार प्रतिपादित किया, पर राजनीति में तो नाम से पहले जाति पूछने और फिर उसी आधार पर पद बाटने का चलन है।
सबसे ज्यादा दु:ख हिंदू तीर्थस्थानों और मंदिरों की दुर्दशा देखकर होता है। संस्कृत के सम्यक ज्ञान से शून्य केवल जाति के आधार पर पौरोहित्य कर्म करने वाले पंडों को राजनीति के वोटभक्षी नेताओं का जो तर्कहीन समर्थन मिलता है, उसी कारण मंदिर अस्वच्छ, पूजापाठ विधिविहीन, श्लोकों के गलत उच्चारण, देवपूजन में लापरवाही और श्रद्धालुओं को लूटने के केंद्र में बदल गए हैं। बहुत समय पहले रज्जू भैया से चर्चा हुई थी कि क्यों नहीं अखिल भारतीय स्तर पर पुरोहित कार्य के विधिवत प्रशिक्षण की ऐसी केंद्रीय व्यवस्था की जाए जो बहुमान्य शकराचार्यो एवं संत परंपरा के श्रेष्ठ धर्मगुरुओं के संरक्षण में चले। फिर जैसे आईएएस, आईपीएस अधिकारियों की नियुक्ति होती है, उसी प्रकार मंदिरों की देखरेख और वहां पूजा-पाठ के निमित्त भली प्रकार प्रशिक्षित पुरोहित ही नियुक्त किए जाएं। बदलते समय और जीवन की आवश्यकताओं को देखते हुए उनकी सम्मानजनक न्यूनतम आजीविका भी सुनिश्चित की जानी चाहिए। समाज में जो पवित्र कार्य जीवन, मृत्यु तथा अन्य अवसरों के लिए आवश्यक माने जाते हैं, उनके प्रति युगानुकूल चैतन्य व तदनुरूप उचित व्यवस्था हिंदू समाज के अग्रणी संतों और महापुरुषों की चिंता का विषय होना चाहिए। यदि राजनेता भी आपसी दलगत दूरिया भुलाकर हिंदू नव चैतन्य के लिए एकजुट होते हैं तो इससे उनकी प्रतिष्ठा और लोकमान्यता बढ़ेगी, साथ ही हिंदू समाज का भी हित होगा।
क्या हर की पैड़ी या चार धामों की पूजा व्यवस्था में अप्रशिक्षित और संस्कृत का कम ज्ञान रखने वाले ब्राह्मणों से सुप्रशिक्षित एवं पाडित्यपूर्ण अनुसूचित जाति के युवाओं को बेहतर मानना अधर्म होगा? क्या भगवान किसी वंचित (दलित) वर्ग के पुरोहित द्वारा अर्पित अर्चना अस्वीकार कर देंगे? देश के मंदिरों को एक अखिल भारतीय धार्मिक व्यवस्था के अंतर्गत अधिक स्वच्छ, विनम्रतापूर्ण श्रद्धालु-केंद्रित, पैसे के वर्चस्व से परे, भावना-आधारित हिंदू जागरण तथा संगठन का केंद्र बनाने के लिए हिंदू-संगठनों को ही आगे आना होगा। आज हिंदुओं की नई पीढ़ी में आधुनिकता और नवीन प्रयोगों के प्रति स्वाकारोक्ति दिखती है, जैसे गुजरात में पिता की मृत्यु पर बेटी द्वारा मुखाग्नि देना, अंतर्जातीय, अंतप्र्रातीय विवाहों का चलन, कुछ मंदिरों में पूजा व दर्शन की सुचारू व्यवस्था, लेकिन इसके बावजूद गंगा, यमुना के तीर्थ-घाटों पर गंदगी, गोमुख तक के पास कचरा, यात्रियों की पूजा व आवासीय व्यवस्थाओं में पंडों की लूटखसोट के कारण अराजकता जैसे दृश्य भी दिखते हैं। जातिभेद और अस्पृश्यता आज भी जिंदा है। क्या यह सब उस देश के लिए शोभा देता है जो आज दुनिया में सबसे युवा जनसंख्या वाला सभ्यतामूलक समाज है? क्या मंदिर देवता और श्रद्धालु के बीच केवल व्यक्तिगत लेन-देन तक सीमित रहना चाहिए या देवताओं के गुण श्रद्धालुओं तक पहुंचाने का सशक्त केंद्र बनना चाहिए? पूजा करेंगे महिषासुरमर्दिनी दुर्गा की, रावणहंता राम की, बलशाली हनुमान की और व्यवहार में दिखाएंगे कायरता, स्त्री-दमन तथा जातीय शोषण के लक्षण। ऐसे मंदिरों और पूजा का क्या अर्थ? मंदिर हिंदू सशक्तिकरण, भाव प्रबोधन, नूतन युग की माग के अनुसार जातिभेद, कन्या भ्रूण हत्या, दहेज आदि के विरुद्ध जागरण के लिए कायाकल्प करें।
आज विश्व में हिंदू समाज, धर्म और हिंदू प्रतिभाओं की प्रशसा इसलिए होती है, क्योंकि ये हजारों वर्ष पुरानी सनातन परंपराओं का अनुगमन करते हुए भी बदलते वक्त के साथ खुद को ढालने की अपूर्व क्षमता दिखाते हैं। सुधारों का अधुनातन प्रभाव गावों तथा शहरों के रूढिबद्ध अंधकार से घिरे लोगों तक भी पहुंचे तभी हिंदू जाति के उत्कर्ष पर लगा ग्रहण हटेगा।
व्यापक हिंदू समाज के भीतर विभिन्न जातियों और संप्रदायों में शादी करने पर अक्सर उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब व राजस्थान में नवविवाहित दंपति की उनके ही परिजनों व धर्मरक्षकों द्वारा हत्या किए जाने के समाचार मिलते हैं। कोई हिंदू सामाजिक, धार्मिक नेता इसकी कभी निंदा नहीं करता। वास्तव में विवेकानंद, सावरकर और लोहिया के बाद हिंदुओं के भीतर पनप रहे पाखंड, जड़तामूलक जातिवाद और अस्वस्थ रूढि़यों के विरुद्ध कोई विशेष स्वर नहीं उठा। केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और गायत्री परिवार जैसे आध्यात्मिक आंदोलन सुधारवादी हिंदू मान्यताओं को जीवन में उतारने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन इसके बावजूद जातिगत क्षुद्रता का अहंकार बड़े-बड़े दिग्गजों के व्यवहार में दिखता है। यह राजनीति में जातिवाद की प्रतिष्ठा का विष फल है। बहुत कम लोग हानि-लाभ की चिंता किए बिना जाति भेद के विरुद्ध खड़े होते हैं। मा.स. गोलवलकर, बाला साहब देवरस, रज्जू भैया सदृश चिंतकों ने समरसता का व्यवहार प्रतिपादित किया, पर राजनीति में तो नाम से पहले जाति पूछने और फिर उसी आधार पर पद बाटने का चलन है।
सबसे ज्यादा दु:ख हिंदू तीर्थस्थानों और मंदिरों की दुर्दशा देखकर होता है। संस्कृत के सम्यक ज्ञान से शून्य केवल जाति के आधार पर पौरोहित्य कर्म करने वाले पंडों को राजनीति के वोटभक्षी नेताओं का जो तर्कहीन समर्थन मिलता है, उसी कारण मंदिर अस्वच्छ, पूजापाठ विधिविहीन, श्लोकों के गलत उच्चारण, देवपूजन में लापरवाही और श्रद्धालुओं को लूटने के केंद्र में बदल गए हैं। बहुत समय पहले रज्जू भैया से चर्चा हुई थी कि क्यों नहीं अखिल भारतीय स्तर पर पुरोहित कार्य के विधिवत प्रशिक्षण की ऐसी केंद्रीय व्यवस्था की जाए जो बहुमान्य शकराचार्यो एवं संत परंपरा के श्रेष्ठ धर्मगुरुओं के संरक्षण में चले। फिर जैसे आईएएस, आईपीएस अधिकारियों की नियुक्ति होती है, उसी प्रकार मंदिरों की देखरेख और वहां पूजा-पाठ के निमित्त भली प्रकार प्रशिक्षित पुरोहित ही नियुक्त किए जाएं। बदलते समय और जीवन की आवश्यकताओं को देखते हुए उनकी सम्मानजनक न्यूनतम आजीविका भी सुनिश्चित की जानी चाहिए। समाज में जो पवित्र कार्य जीवन, मृत्यु तथा अन्य अवसरों के लिए आवश्यक माने जाते हैं, उनके प्रति युगानुकूल चैतन्य व तदनुरूप उचित व्यवस्था हिंदू समाज के अग्रणी संतों और महापुरुषों की चिंता का विषय होना चाहिए। यदि राजनेता भी आपसी दलगत दूरिया भुलाकर हिंदू नव चैतन्य के लिए एकजुट होते हैं तो इससे उनकी प्रतिष्ठा और लोकमान्यता बढ़ेगी, साथ ही हिंदू समाज का भी हित होगा।
क्या हर की पैड़ी या चार धामों की पूजा व्यवस्था में अप्रशिक्षित और संस्कृत का कम ज्ञान रखने वाले ब्राह्मणों से सुप्रशिक्षित एवं पाडित्यपूर्ण अनुसूचित जाति के युवाओं को बेहतर मानना अधर्म होगा? क्या भगवान किसी वंचित (दलित) वर्ग के पुरोहित द्वारा अर्पित अर्चना अस्वीकार कर देंगे? देश के मंदिरों को एक अखिल भारतीय धार्मिक व्यवस्था के अंतर्गत अधिक स्वच्छ, विनम्रतापूर्ण श्रद्धालु-केंद्रित, पैसे के वर्चस्व से परे, भावना-आधारित हिंदू जागरण तथा संगठन का केंद्र बनाने के लिए हिंदू-संगठनों को ही आगे आना होगा। आज हिंदुओं की नई पीढ़ी में आधुनिकता और नवीन प्रयोगों के प्रति स्वाकारोक्ति दिखती है, जैसे गुजरात में पिता की मृत्यु पर बेटी द्वारा मुखाग्नि देना, अंतर्जातीय, अंतप्र्रातीय विवाहों का चलन, कुछ मंदिरों में पूजा व दर्शन की सुचारू व्यवस्था, लेकिन इसके बावजूद गंगा, यमुना के तीर्थ-घाटों पर गंदगी, गोमुख तक के पास कचरा, यात्रियों की पूजा व आवासीय व्यवस्थाओं में पंडों की लूटखसोट के कारण अराजकता जैसे दृश्य भी दिखते हैं। जातिभेद और अस्पृश्यता आज भी जिंदा है। क्या यह सब उस देश के लिए शोभा देता है जो आज दुनिया में सबसे युवा जनसंख्या वाला सभ्यतामूलक समाज है? क्या मंदिर देवता और श्रद्धालु के बीच केवल व्यक्तिगत लेन-देन तक सीमित रहना चाहिए या देवताओं के गुण श्रद्धालुओं तक पहुंचाने का सशक्त केंद्र बनना चाहिए? पूजा करेंगे महिषासुरमर्दिनी दुर्गा की, रावणहंता राम की, बलशाली हनुमान की और व्यवहार में दिखाएंगे कायरता, स्त्री-दमन तथा जातीय शोषण के लक्षण। ऐसे मंदिरों और पूजा का क्या अर्थ? मंदिर हिंदू सशक्तिकरण, भाव प्रबोधन, नूतन युग की माग के अनुसार जातिभेद, कन्या भ्रूण हत्या, दहेज आदि के विरुद्ध जागरण के लिए कायाकल्प करें।
आज विश्व में हिंदू समाज, धर्म और हिंदू प्रतिभाओं की प्रशसा इसलिए होती है, क्योंकि ये हजारों वर्ष पुरानी सनातन परंपराओं का अनुगमन करते हुए भी बदलते वक्त के साथ खुद को ढालने की अपूर्व क्षमता दिखाते हैं। सुधारों का अधुनातन प्रभाव गावों तथा शहरों के रूढिबद्ध अंधकार से घिरे लोगों तक भी पहुंचे तभी हिंदू जाति के उत्कर्ष पर लगा ग्रहण हटेगा।
4 comments:
पूजा व्यवस्था में अप्रशिक्षित और संस्कृत का कम ज्ञान रखने वाले ब्राह्मणों से सुप्रशिक्षित एवं पाडित्यपूर्ण अनुसूचित जाति के युवाओं को बेहतर मानना अधर्म होगा? आपने बिलकुल सही सवाल उठाया है | ऐसा ही एक प्रयास पटना के हनुमान मंदिर मैं किया गया था | वहां के पुजारी जाती से हरिजन थे पर सुना था की वो ज्ञानी थे |
एक सवाल ये उठता है की ये पूजा स्थलों मैं साफ-सफाई , पंडों की गुंडागर्दी , सुस्खित पुजारी की व्यवस्था के लिए कौन आगे आयेगा ? क्यों नहीं विश्व हिन्दू परिषद् या आर.एस. एस. आगे आते हैं | कम से कम २-४ मंदिरों से ही सही ऐसे कार्य आरम्भ किये जा सकते हैं | अब मेरे जैसा अदना आदमी यदि ये सब बात मंदिर प्रशाशन को बोलेगा
पांडे लोग मेरी धुनाई करने से बाज नहीं आयेंगे | हाँ यही काम यदि विश्व हिन्दू परिषद् या आर.एस. एस. आरम्भ करे तो हमलोग actively शामिल होंगे |
ati uttam.
Let's start.
regards
http://parshuram27.blogspot.com/
नमस्कार तरुण जी, हमलोग ये जानते हैं की आप काफी व्यस्त रहते हैं फिर भी जब आप अपने ब्लॉग पे पोस्ट करते हैं तो हम जैसे लोगों के प्रश्नों का जवाब भी कभी कभार दे दिया करें | इससे संवाद बना रहता है , नहीं तो ऐशा लगता है की हम बस comment कर रहे हैं , आप इसे पढ़ते हैं .. शायद समय की बर्बादी हो रही है |
problem पे चर्चा तो ठीक है पर उसके समाधान की चर्चा यदि पाठक करता है तो आपका फर्ज बनता है की आप हम सबों का मार्गदर्शन करें |
तरुणजी, मुझे यह देखकर काफ़ी हैरत हुयी की मेरे comments आपके blog पर नही दिखते है.मैने आपसे सन्घ और भारतीय जाती व्यवस्थापर कुछ प्रश्न रखे थे.
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