तरुण विजय
May 03, 2009
क्वात्रोची मामले में सीबीआई पर सोनिया गाधी की अध्यक्षता वाले संप्रग शासन द्वारा डाले गए दबाव के रहस्योद्घाटन से एक बार पुन: वे विकृतिया उजागर हुई हैं जो उन संस्थानो को खत्म कर रही हैं जिन पर राष्ट्र की व्यवस्था टिकी है। व्यवस्थाओं का निर्माण कर उन्हें संरक्षित और सुदृढ़ करना लोकतात्रिक समाज का धर्म होता है। क्वात्रोची मामले ने उन दिनो की याद ताजा कर दी जब इंदिरा गाधी के शासनकाल में चुन-चुनकर राज्य व्यवस्था को आधार देने वाली संस्थाएं खत्म की जा रही थीं। न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा के विरुद्ध प्रदर्शन किए गए और उनके पुतले फूंके गए। प्रतिबद्ध न्यायपालिका की प्रस्तावना, संसद को सर्वोच्च न्यायालय के सामने संघर्ष की स्थिति में ला खड़ा कर संसद की अवधि पाच से छह साल तक बढ़ाना, शासन व्यवस्था में चाटुकार और वफादार अफसरों की वरिष्ठता क्रम तोड़कर नियुक्तियों द्वारा आईएएस तथा आईपीएस जैसी अखिल भारतीय सेवाओं का अतिशय राजनीतिकरण वस्तुत: 70 के दशक से प्रारंभ हुआ। तब राष्ट्रपति पद के अधिकृत पार्टी उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी की जगह वीवी गिरि को समर्थन देकर इंदिरा गाधी ने पार्टी ही दोफाड़ कर दी थी। आपातकाल लागू कर विपक्ष को जेल भेजना तथा असहमति में उठे नागरिकों पर अत्याचार करना उसी राजनीतिक दृष्टि का परिणाम था जिसने 34 साल बाद भी शासकीय व्यवस्था को इटली के अपराधी क्वात्रोची के बचाव के लिए मनमाने ढंग से इस्तेमाल किया। क्वात्रोची के लंदन स्थित बैंक खाते को बंधनमुक्त कर उसे पैसे निकालने की अनुमति दिए जाते समय भी भाजपा सहित अनेक दलों ने आपत्ति उठाई थी, लेकिन संभवत: भारत में सत्ता पक्ष ात्र छोटी-सी झलक दिखाती हैं। देश राष्ट्रीय और समग्र भारत के स्तर पर सोचने वाले नेताओं का अभाव महसूस कर रहा है। राजनीति के स्थानीयकरण ने उन संस्थाओं की पद्धतिया ही नष्ट करनी चाही हैं जो विधायिका तथा प्रशासन को परिवारों या व्यक्तियों के प्रति नहीं, बल्कि संविधान और कानून के प्रति निष्ठावान बनाती हैं। यह तब हो रहा है जब भारत तालिबानी पाकिस्तान, अस्थिर माओवादी नेपाल, जिहादी बांग्लादेश और आतरिक संघर्ष में घायल श्रीलंका से घिरा हुआ है। इसके साथ भारत की अपनी आतरिक सुरक्षा इस्लामी तथा मार्क्सवादी दावे करने वाले आतंकवादी संगठनों के आक्रमण झेल रही है। ऐसी स्थिति में सामान्य जन राजनीतिक दलों की अपनी आपसी चखचख और वोट-बैंक जुटाने के लिए राष्ट्रद्रोह तक जाने वाली कोशिशों के बजाय आतंकवाद निर्मूलन के लिए सभी दलों की सहमति देखना चाहता है। सीमित दायरों से ऊपर उठकर सोचने वाले कुछ विचारकों ने तो यहा तक कहा है कि यदि देश को अच्छी तरह चलाने के लिए भाजपा और काग्रेस एक 'न्यूनतम साझा कार्यक्रम' के अंतर्गत सरकार चलाने पर राजी हो जाएं तो सबसे अच्छा होगा। हालाकि इस विचार को दोनों ही दलों के नेताओं ने खारिज किया है, लेकिन यह बात जनसामान्य द्वारा एक अच्छी, आपसी घृणारहित, ऐसी सरकार देखने की आकाक्षा बताती है जो देश को रक्षा और अर्थ के क्षेत्र में मजबूत बनाते हुए आम आदमी को बेहतर ढाचागत सुविधाएं उपलब्ध करवाए।
हाल ही में मुझे पुणे के प्रसिद्ध गरवारे कालेज में व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया गया था। वहां उच्च स्तरीय व्यावसायिक प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे अधिकाश छात्रों ने जो प्रश्न पूछे उनका सार कुछ ऐसा था-अगर केंद्र सरकार के पास स्विट्जरलैंड में जमा काले धन और उनके खाताधारकों की सूची है तो उनके विरुद्ध कार्रवाई क्यों नहीं होती? भारत की पुलिस और अर्धसैनिक बलों को युद्ध की भाति एक निश्चित समयसीमा और निर्णय की स्वतंत्रता देकर आतंकवाद निर्मूलन के लिए जिम्मेदारी क्यों नहीं दी जाती? जो राजनेता पढ़ा-लिखा नहीं और जिन पर अनेक गर्हित अपराधों के आरोपपत्र दाखिल हो चुके हैं उन्हें त्वरित अदालतों में क्यों नहीं भेजा जाता? भारत में नागरिक राज्य सत्ता और कानून से समानरूपेण व्यवहार पाने के बजाए मजहब और जाति के आधार पर विशेषाधिकार क्यों प्राप्त करता है? पिछडे़, अति पिछड़े, महाअतिपिछड़े जैसी सूचिया क्या सामाजिक समरसता को पुष्ट करती हैं? इन प्रश्नों के उत्तर वे दे सकते हैं जो राज्य सत्ता पर अंकुश रखने का नैतिक बल रखते हों। इस बार अनेक गैरराजनीतिक जनसंगठन और उनके मार्गदर्शक भारत एवं भारतीयता की रक्षा के लिए आगे आए हैं। यह भारतीय लोकतंत्र के लिए एक शुभ संकेत है। जहा आरएसएस केनए सरसंघचालक मोहन भागवत ने शत प्रतिशत तक मतदान का आह्वान किया है वहीं श्री श्री रविशकर तथा उनके साधक- सहयोगी भारत जागरण का अभियान चला रहे हैं।
इसी प्रकार संत-धार्मिक नेता लोकतात्रिक जागरण के लिए सक्रिय हुए हैं। भारत और भारतीयता के लिए राजनीति निरपेक्ष धर्म जागरण के लिए अखाड़ा परिषद के वीतरागी साधुओं की सक्रियता बंकिम रचित आनंद मठ के योद्धा संन्यासियों का स्मरण कराती है। क्या ये प्रयास और लोक-आह्वान के गैरराजनीतिक स्वर निष्फल जाएंगे? नि:संदेह आज सत्य का सत्ता की अपावनता से संघर्ष है। अगर हम सत्यमेव जयते में विश्वास रखते हैं तो यह भी विश्वास करना होगा कि भारत एक महान नियति को प्राप्त करने बढ़ रहा है। वर्तमान कलुष वैसे ही हैं जैसे सागर मंथन में निकला हालाहल।
हाल ही में मुझे पुणे के प्रसिद्ध गरवारे कालेज में व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया गया था। वहां उच्च स्तरीय व्यावसायिक प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे अधिकाश छात्रों ने जो प्रश्न पूछे उनका सार कुछ ऐसा था-अगर केंद्र सरकार के पास स्विट्जरलैंड में जमा काले धन और उनके खाताधारकों की सूची है तो उनके विरुद्ध कार्रवाई क्यों नहीं होती? भारत की पुलिस और अर्धसैनिक बलों को युद्ध की भाति एक निश्चित समयसीमा और निर्णय की स्वतंत्रता देकर आतंकवाद निर्मूलन के लिए जिम्मेदारी क्यों नहीं दी जाती? जो राजनेता पढ़ा-लिखा नहीं और जिन पर अनेक गर्हित अपराधों के आरोपपत्र दाखिल हो चुके हैं उन्हें त्वरित अदालतों में क्यों नहीं भेजा जाता? भारत में नागरिक राज्य सत्ता और कानून से समानरूपेण व्यवहार पाने के बजाए मजहब और जाति के आधार पर विशेषाधिकार क्यों प्राप्त करता है? पिछडे़, अति पिछड़े, महाअतिपिछड़े जैसी सूचिया क्या सामाजिक समरसता को पुष्ट करती हैं? इन प्रश्नों के उत्तर वे दे सकते हैं जो राज्य सत्ता पर अंकुश रखने का नैतिक बल रखते हों। इस बार अनेक गैरराजनीतिक जनसंगठन और उनके मार्गदर्शक भारत एवं भारतीयता की रक्षा के लिए आगे आए हैं। यह भारतीय लोकतंत्र के लिए एक शुभ संकेत है। जहा आरएसएस केनए सरसंघचालक मोहन भागवत ने शत प्रतिशत तक मतदान का आह्वान किया है वहीं श्री श्री रविशकर तथा उनके साधक- सहयोगी भारत जागरण का अभियान चला रहे हैं।
इसी प्रकार संत-धार्मिक नेता लोकतात्रिक जागरण के लिए सक्रिय हुए हैं। भारत और भारतीयता के लिए राजनीति निरपेक्ष धर्म जागरण के लिए अखाड़ा परिषद के वीतरागी साधुओं की सक्रियता बंकिम रचित आनंद मठ के योद्धा संन्यासियों का स्मरण कराती है। क्या ये प्रयास और लोक-आह्वान के गैरराजनीतिक स्वर निष्फल जाएंगे? नि:संदेह आज सत्य का सत्ता की अपावनता से संघर्ष है। अगर हम सत्यमेव जयते में विश्वास रखते हैं तो यह भी विश्वास करना होगा कि भारत एक महान नियति को प्राप्त करने बढ़ रहा है। वर्तमान कलुष वैसे ही हैं जैसे सागर मंथन में निकला हालाहल।
[तरुण विजय: लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं]
2 comments:
देखिये जब तक अच्छे लोग राजनीति से जी चुराते रहेंगे, तब तक ये गंदे लोगों का अखाड़ा ही बना रहेगा| और आज के भारतीय मीडिया का तो क्या कहना? राजनीति से तो ज्यादा गंदगी मीडिया में आ गई है|
* मीडिया वाले एक जिंदा आदमी को आत्महत्या के लिए उक्साते हैं और जलते हुए आदमी का फोटो निकालने में खुस होते है|
* आज्-कल मीडिया वाले कितनी बार सही चीजोंको सही तरीके से दिखाते है? संजय पुगलिआ जैसे एकाध लोगों को छोड़ दिया जाए तो सायद ही कोई टी.वी. पत्रकार/एंकर मिलेगा जो किसी का अच्छा इंटरव्यू ले सके| सभी को बस सेंसेसनल न्यूज़ चहिये, गुणवत्ता से कोई लेना देना नही| सिर्फ़ खबरें दे कर अपनी टी.आर्.पी. रेटिंग बनाए रखनी है| और विचार की नाम पर बस हद ही कर देते है|
* भले ही अमरनाथ आंदोलन एक सच्चा अधिकार के लिए लडी गई हो, आज की मीडिया ने इसको सम्प्रदयिक रंग देने में कोई कोर-कसर नहिन् छोडी|
* कश्मीर में पिछले कुछ वर्षों में सैकड़ों मन्दिर तोड़े गए, मीडिया में कोई ख़बर नहि, क्यो? क्योंकि यदि ये दिखयेंगे तो कहीं उस न्यूज़ चैनल पर बी.जे.पी., हिंदुवादी होने का लेवेल ना लगा दे| अब भला मीडिया यदि इस तरह की सच्चाई से भागता रहे तो ये लोकतंत्र का एक स्तंभ नहि बस दंभ बन कर राह गया है या नहि?
* सभी को पता है की यदि यी भोगवादी इसी रफ्तार से प्रकृति का दोहन करते रहे तो आने वाली पीढ़ी वीनास के कगार पे खड़ी होगी, फिर भी देखिये मीडिया वाले प्रतिदिन भोग्वदी का ऐसा माहिमा मंडन करते हैं की आम आदमी को लगता है की यदि हम भोग्वदिनहिन् हैं तो हमारा जीवन ही सफल नहि है|
Sir.
Why it is not possible to reply in Devnagari Script.You should include Devnagari script in the option.
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